मोदी सरकार के काम-काज का भी हो लेखा-जोखा

कुछ टीवी चैनलों और हिंदी के एक बड़े अ़खबार ने दिल्ली की केजरीवाल सरकार और मुंबई नगर महापालिका  पर काबिज शिवसेना के कामकाज का मीडिया ऑडिट करना शुरू कर दिया है। अ़खबार ने पहले पन्ने पर प्रश्नावली छापी है ताकि पाठकगण उसके आधार पर आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में ऑनलाइन राय बता सकें। दूसरी तऱफ टीवी चैनल ने ‘सुनिये केजरीवाल जी’ और ‘सुनिया उद्धव ठाकरे जी’ शीर्षकों से कार्यक्रम शुरू किये हैं। यह एक स्वागत योग्य कदम है,और हो सकता है कि मार्केट सर्वे करने वाली व्यावसायिक एजेंसियों द्वारा की जाने वाली रायशुमारी के म़ुकाबले जनता की राय जानने का यह तरीका बेहतर साबित हो। मुझे तो लगता है कि यह विधि केंद्र की मोदी सरकार के ऊपर भी आजमाई जानी चाहिए। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि केजरीवाल सरकार के बजाय अ़खबारों और चैनलों को मोदी सरकार के कामकाज का ऑडिट करने की पहल करनी चाहिए। आ़िखरकार केजरीवाल सरकार को 2020 में चुनाव का सामना करना होगा, जबकि मोदी को उससे क़ाफी पहले 2019 में ही वोटरों के पास जाना पड़ेगा। दरअसल, 2018 का साल केजरीवाल और ठाकरे के लिए नहीं, बल्कि मोदी के लिए जवाब-तलबी का साल है। दिलचस्प बात यह है कि अ़खबार और चैनलों को यह एहसास हो या न हो, मोदी को ज़रूर है, और साथ-साथ भाजपा के सहयोगी दलों को भी है। इसीलिए राजग के सहयोगी दलों ने पेशबंदी शुरू कर दी है। महाराष्ट्र में भाजपा के एक मात्र विचारधारात्मक सहयोगी दल शिवसेना ने न सिर्फ ऐलान कर दिया है कि वह अगला चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ेगी, बल्कि उसने जनता से 2019 में भाजपा को वोट न देने की अपील भी कर दी है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की तऱफ से मान-मनव्वल के कारण आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी ने अभी इस तरह का निर्णय तो नहीं लिया है, लेकिन उसने धमकी भरे स्वर में इस तरह के इरादे ज़ाहिर अवश्य कर दिये हैं। पंजाब में अकाली दल ने स़ाफ तौर पर नाराज़गी जताई है कि एक प्रमुख सहयोगी दल के रूप में मोदी सरकार उसे उतना महत्व नहीं दे रही है जितना मिलना चाहिए। अकाली चाहते हैं कि उनके खाते में कुछ राज्यपाल के पद और कुछ कार्पोरेशनों की चेयरमैनी आनी चाहिए। मोदी सरकार ने इस संदर्भ में अकालियों को अभी तक कुछ नहीं दिया है। बिहार में जनता दल (एकीकृत) की तऱफ से फिलहाल दोस्ती की बातें ही की जा रही हैं, लेकिन अंदरखाते लोकसभा में सीटों के बंटवारे को लेकर अंदेशे जताए जाने लगे हैं। नीतिश की पार्टी को लग रहा है कि भाजपा 2019 में उन्हें मन-म़ािफक सीटें नहीं देने वाली है। इसी हालत को देखते हुए मोदी को लग रहा है कि ज़रा सा चूकते ही उन्हें लोकतांत्रिक राजनीति की बिसात पर शह और मात के खेल में फंस जाना पड़ेगा। इसीलिए उन्होंने अपने सांसदों को नरम आवाज़ में झिड़कते हुए कहा है कि वे लोगों के बीच जाएं, ट़ििफन पार्टी करें। और, साथ में बताएं कि किस तरह सरकार का आ़िखरी बजट गरीबोन्मुख और किसानोन्मुख है। प्रधानमंत्री की यह सलाह अच्छी है। लेकिन इसमें एक जोखिम भी है। उनके सांसदों को एक अंदेशे का सामना करना पड़ सकता है। ट़ििफन पार्टी में लोग उनसे पूछ सकते हैं कि आपके पिछले चार बजट गरीबोन्मुख और किसानोन्मुख क्यों नहीं थे? वे बजट किसके हित में बनाये गए थे? साथ ही वे भाजपा सांसदों से यह भी पूछ सकते हैं कि जिस बजट को आप गरीबों और किसानों के हित में बता रहे हैं उसमें संबंधित घोषित योजनाओं को धरती पर उतारने के लिए ज़रूरी खर्च का प्रावधान क्यों नहीं है? सांसदों को इस बात की स़फाई भी देनी पड़ सकती है कि फसल की जिस लागत पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पचास ़फीसदी बढ़ाने का वायदा किया गया है, वह कृषि मूल्य और लागत आयोग द्वारा निर्धारित फसल की तीन लागतों में कौन सी है? 
इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं होगा। अगर किसी सांसद ने कोशिश करके इन प्रश्नों का कुछ भरोसेमंद उत्तर दे भी दिया तो उनसे एक ऐसा ज़ोरदार सवाल भी पूछा जा सकता है जो उन्हें बगलें झांकने पर मजबूर कर देगा। वोटरों को यह प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार है कि यह बजट तो एक बहुत बड़ा वायदा है। यह कहता है कि आप ऐसा-ऐसा कर देंगे। आपको बताना तो यह चाहिए कि पिछले चार सालों में आपने किया क्या है। बजाय इसके कि आप वायदे पर वायदा थमाते जाएं, आप अपनी ठोस उपलब्धियों की ठोस जानकारी कब देंगे? 
सांसदों के पास इस सवाल के जवाब देने की तैयारी हो या न हो, ऐसा प्रतीत होता है कि योजना आयोग की जगह बने एनआईटीआई आयोग के अध्यक्ष राजीव कुमार ने इसकी कुछ तैयारी कर ली है। एक्सप्रेस अड्डे में बोलते हुए उन्होंने जानकारी दी है कि नवम्बर के बाद से ही उनके नेतृत्व में आयोग सरकार के लिए प्रदर्शन-आधारित नतीजों का बजट तैयार करने में लगा हुआ है। इसमें होगा यह कि आयोग सरकार को 740 विषयों का एक क्रमवार दस्तावेज देगा जिसे प्रत्येक मंत्रालय के पास भेजा जाएगा, और हर मंत्रालय हर पंक्ति के बाद दर्ज लक्ष्य को अपनी क्षमताओं के आधार पर भेदने की कोशिश करेगा। इस आउटकम बजट के आधार पर तकरीबन छह महीने बाद यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि दरअसल निर्धारित लक्ष्य पूरे हुए या नहीं। राजीव कुमार की चलती तो 9 फरवरी को ही सरकार इस बजट को संसद में रख देती। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, अच्छे कामों का शगुन बहुत देर से निकलता है। सोचने की बात है कि अगर यह कवायद पहले के बजटों के संदर्भ में भी की जाती तो इस समय भाजपा के सांसदों के पास बताने के लिए बहुत कुछ होता, और वोटरों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों के जवाब वे एक हद तक भरोसे के साथ दे पाते। ऐसा न होने की सूरत में हो यह रहा है कि सरकार की घोषणाओं की समीक्षा या तो मीडिया द्वारा की जा रही है या ़गैर-सरकारी संगठनों द्वारा। अभी हाल ही में उज्जवला योजना की समीक्षा में पता चला कि इसके तहत जिन गरीबों को गैस कनेक्शन, गैस का चूल्हा और एक सिलेंडर दिया गया था, उनमें से भी ज़्यादातर लकड़ी और गोबर के जलावन पर खाना पका रहे हैं। जब पूछताछ हुई तो पता चला कि उन्होंने गैस तभी तक इस्तेमाल की जब तक उन्हें सिलेंडर मुफ्त मिला। योजना में एक सिलेंडर और एक बार उसे भरवाने का कोई शुल्क नहीं था। उसके बाद सभी को सिलेंडर खरीदना था। जिन परिवारों की आमदनी पांच-छह हज़ार रुपए मासिक है, वे म़ुफ्त ईंधन छोड़ कर छह-सात सौ का सिलेंडर खरीदने से रहे। ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की सफलता के जो तर्क पार्टी की तऱफ से दिये गये थे, उनमें एक उज्जवला योजना भी थी।  इसी से मिलती-जुलती स्थिति मोदी सरकार द्वारा शुरुआत में जारी की गई जन-धन योजना की है। मीडिया द्वारा इसकी जब भी समीक्षा होती है, इसकी नकारात्मक छवि ही सामने आती है। मसलन, इसके बारे में तथ्य आते हैं कि ज़्यादातर खाते ‘मृत’ पड़े हुए हैं और विमुद्रीकरण के दौरान इन खातों का इस्तेमाल काले धन को सफेद करने के लिए किया गया। ऐसे आरोप लगते रहते हैं, और इनका ठोस जवाब देने के बजाय सरकार वही पुराना दावा करके अपनी पीठ ठोकती रहती है कि उसने इतने कम समय में करोड़ों खाते खुलवा कर वित्तीय समावेशन का विश्व-रिकॉर्ड बना दिया है। मेक इन इंडिया योजना के तहत क्या हुआ, स्किल इंडिया की कहानी वास्तव में किस मुकाम तक पहुंची, स्टैंडअप इंडिया के तहत कितने दलित उद्योगपति बने और कितनी स्त्रियों को उद्यमशीलता की तऱफ प्रोत्साहित किया गया, मुद्रा योजना के तहत जो छोटे कज़र् दिये गये उनसे वास्तव में क्या स्व-रोज़गार निकला? 
इन सवालों का जवाब तभी मिल पाएगा जब इन योजनाओं को एक विस्तृत सोशल ऑडिट से गुज़ारा जाए। मीडिया और एनजीओ द्वारा की जाने वाली समीक्षाएं कभी समग्र नहीं होतीं, क्योंकि इन संगठनों के पास इतना समय, विशेषज्ञता और संसाधन नहीं होते। इनके ज़रिये किसी योजना के कार्यान्वयन की आंशिक तस्वीर ही सामने आ पाती है। सरकार अगर चाहे तो इसी आधार पर अपने वायदों और घोषणाओं के कार्यान्वयन का एक श्वेत पत्र जनता के सामने रख कर सार्वजनिक जीवन में एक अनूठी मिसाल पेश कर सकती है।