जलवायु परिवर्तन के चलते कम हुए धु्रवीय भालू

जलवायु परिवर्तन तेजी से विकराल रूप लेता दिखाई देने लगा है। इसे हम अपने आस-पास बढ़ती सर्दी और गर्मी के साथ अनावृष्टि और अतिवृष्टि के रूप में भी अनुभव कर रहे हैं। अब इसके नकारात्मक परिणाम वन्य जीवों पर भी देखने में आने लगे हैं। कुछ समय पहले आए एक अध्ययन से पता चला था कि बढ़ते वैश्विक तापमान के चलते मछलियों का आकार छोटा होने लगा है। इसी कड़ी में दूसरा चिंताजनक पहलू सामने आया है कि पोलर बीयर यानी धु्रवीय भालू भूख से दम तोड़ रहे हैं। यह सुंदर और भारी भरकम जीव जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते ठीक से शिकार नहीं कर पा रहा हैं, जिसके चलते इन्हें पर्याप्त ऊर्जा नहीं मिल पा रही है। इस वजह से इनकी संख्या इनके आवास स्थलों में तेजी से घट रही है। जरनल साईंस में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक धु्रवीय भालू की उच्च चयापचय दर (मोटाबॉलिक रेट) अभी तक के ज्ञात आनुमान से अधिक है, इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से वसायुक्त भोजन की तलाश करने वाले इस जीव की शिकार करने की क्षमता प्रभावित हुई है। शोधकर्त्ता 1980 से ब्यूफोर्ट सागर क्षेत्र में धु्रवीय भालू पर अध्ययन कर रहे हैं। इस अध्ययन से पता चला है कि इन भालुओं की आबादी 40 प्रतिशत तक कम हो गई है। अमेरिका स्थित केलिफोर्निया विश्व विद्यालय के जीवविज्ञानी एंथनी पागानो के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते इस जीव के षरीर की दशा और जीवित रहने की दर पर असर पड़ा है। नतीजतन इनकी संख्या कम हो रही है। ये अपना प्रिय शिकार सील नामक मछली पकड़ने में अक्षम होते जा रहे हैं। यदि वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो यह अति आकर्षक जीव धरती से विलुप्त भी हो सकता है।  
इसके पहले उत्तरी ध्रुव के दूरांचल स्वालवार्ड में ध्रुवीय भालू की मौत पर्यावरण विज्ञानियों की चर्चा में रही थी। इस भालू की मौत का कारण भूख माना जा रहा है। यह भालू बर्फ  की ठोस सतह के नीचे स्थित झीलों में रहने वाली सील मछली को शिकार करके खाता है। लेकिन उत्तरी धु्रवों पर बढ़ते तापमान के कारण तेजी से बर्फ  पिघल रही है, इस कारण सील मछली समेत अन्य जीव-जंतु या तो विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए हैं अथवा इन जीवों ने अपने आवास स्थल बदल दिए हैं। लिहाजा कई दिनों की तलाश के बाद भी जब भालू को भोजन नहीं मिला तो उसकी मौत हो गई। ध्रुवीय भालू की प्रकृति व आचरण के विषेशज्ञ डॉ इयान स्टर्लिंग ने इस मौत को जलवायु परिवर्तन का स्पश्ट संकेत माना था। क्योंकि इसी कारण उत्तरी ध्रुव पर तेजी से बर्फ  पिघल रही है। नतीजतन सीलें खत्म हो रही हैं और आहार के अभाव में भालू मर रहे हैं।
ध्रुवीय भालू की स्थिति आर्कटिक सागर क्षेत्र में भी खराब है। इस सागर में बर्फ  अप्रत्याशित ढंग से पिघल रही है। इस कारण इन धु्रवीय भालुओं का जीवन संकट में है। अल्बर्टा विश्वविद्यालया के प्राध्यापक एंड्यू डेरोचर के नेतृत्व में किए गए अनुसंधान में पाया गया कि बर्फ  पिघलने से बीते तीन साल के भीतर हड़सन की खाड़ी में पाए जाने वाले भालू सैकड़ों की संख्या में मरे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि आर्कटिक में मौसम से पहले बर्फ की चट्टानें टूट रही हैं और फिर देर से जम रही हैं। जलवायु का यह परिवर्तन इन भालुओं की मौत का सबसे बड़ा कारण बन रहा है, इस कारण भोजन के लिए नियमित सील मछलियां नहीं मिल रही हैं। ये भालू बर्फ  की ठोस सतह के नीचे बह रही झीलों में मौजूद सील मछलियों का शिकार करने में कुशल होते हैं। यही इनका प्रमुख भोजन है। डेरोचर के अनुसार पश्चिमी हड़सन खाड़ी में 900 से 1000 ध्रुवीय भालू की आबादी है। डेरोचर और उनके 11 साथी शोधकर्ताओं ने दुनिया के राजनीतिक व औद्योगिक नीति-नियंताओं से अपील की है कि वह जल्द से जल्द आर्कटिक की प्राकृतिक संपदा व पारिस्थितिकी तंत्र को बचाए रखने के उपाय करें, अन्यथा इस भालू समेत अन्य ध्रुवीय जीवों की तादाद में भारी गिरावाट आ जाएगी। कई जीवों की तो प्रजातियां ही लुप्त हो जाएंगी।
आर्कटिक के नीचे एक ऐसी बड़ी झील खोजी गई है, जिसमें मीथेन और कार्बन-डाइऑक्साइड गैसों का अथाह भंडार है। इन्हीं ग्रीनहाऊस गैसों के कारण आर्कटिक क्षेत्र में तापमान बहुत तेजी से बढ़ रहा है। आर्कटिक सागर की सतह और उसके तल के तापमान में 30 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक का अंतर है। ऐसी ही झीलें होने की आशंका उत्तरी धु्रव के सुदूरवर्ती ब्यूफोर्ट  और स्वालवार्ड में जताई जा रही है। यही गैसें तापमान बढ़ाती हैं,नतीजतन बर्फ  पिघलती है और सील मछलियां या तो उस क्षेत्र में मर जाती हैं अथवा पलायन कर जाती हैं। जिसके दुष्परिणाम के चलते भालुओं को भोजन नहीं मिलता और आखिरकार शिकार की खोज में उनके प्राण निकल जाते हैं।
बढ़ते तापमान का असर भारतीय हिमालय पर भी पड़ रहा है। हिमालय के हिमनद या तो सिकुड़ रहे हैं, या टूट रहे हैं। ध्रुवीय भालू से मिलती-जुलती प्रजाति का सफेद भालू इन हिमखंडों के प्राकृतिक आवासों में रहता है। यह हिमाचल, लद्दाख, कश्मीर और उत्तराखंड में पाया जाता है। नेपाल में भी इसका आवास है। इसे अंग्रेजी में ब्राउन या स्नो बीयर कहते हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के हिमनद विशेषज्ञ डॉ अनिल बी कुलकर्णी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि हिमाचल प्रदेष में आने वाले जिन 466 हिमनदों के उपग्रह चित्र लिए गए हैं, उनके नतीजे चौंकाने वाले हैं। इनमें से 162 हिमनदों का आकार सिकुड़ गया है। यदि ये हिमनद सिकुड़ने व खंडित होने का क्रम जारी रखते हैं तो हिमालयी भालू के प्राकृतिक आवास व आहार भी संकट में आ जाएंगे। जाहिर है, इनकी संख्या घट जाएगी। जलवायु परिवर्तन, भालुओं के लिए संकट तो नई खबर है,लेकिन इस बदलाव की जद में दुनिया भर की 72 प्रतिशत पक्षी-प्रजातियां पहले ही आ गई हैं। यह संकट अनेक कीटभक्षियों के साथ ठंडे पानी में रहने वाले पक्षी पेंग्यून पर भी है। ये संकट स्पष्ट करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग ने जीव-जंतुओं पर कयामत ढाना शुरू कर दी है और कालांतर में मनुष्य जाति भी इनके दायरे में आ जाएगी ?
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