चुनावी हिंसा पर अंकुश ज़रूरी

लुधियाना नगर निगम चुनावों के लिए सम्पन्न हुए मतदान के दौरान घटित हुई व्यापक हिंसक घटनाओं ने एक ओर जहां देश के कानून को मानने वाले प्रत्येक नागरिक को चिंतित किया है, वहीं इन घटनाओं ने लोकतंत्र की आस्था को भी आघात पहुंचाया है। लुधियाना की इस चुनावी हिंसा में विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में झड़पें भी हुई हैं, और मत केन्द्रों पर जब्री कब्ज़े के आरोप भी लगे हैं। यहां तक कि एक पक्ष के कुछ लोगों की ओर से गोलियां चलाए जाने के आरोप भी लगे हैं। एक-दूसरे के वाहनों की तोड़-फोड़ भी हुई है। पंजाब में जालन्धर, अमृतसर और पटियाला नगर निगमों के चुनाव विगत वर्ष 17 दिसम्बर को सम्पन्न हो चके थे, जबकि लुधियाना नगर निगम के लिए आज मतदान हुआ। लुधियाना में सम्भावित चुनाव हेतु जिस प्रकार का चुनाव प्रचार अभियान चलाया जा रहा था, उसने पहले से ही इस प्रकार की आशंकाओं के बादलों को घना कर दिया था कि मतदान के दौरान हिंसा हो सकती है। नि:संदेह इस हिंसा के लिए सभी पक्ष एक-दूसरे को दोषी ठहरायेंगे। वास्तव में होता भी यही है कि हिंसा भड़कने की ज़िम्मेदारी यूं तो सभी वर्गों/पक्षों पर आयद होती है, परन्तु ऐसे अवसरों पर प्राय: सत्ता पक्ष हावी रहता आया है और विपक्ष के पास केवल आरोप-प्रत्यारोप की भूमिका ही रह जाती है। पिछले दस वर्षों के शासन में पंजाब में जब भी कोई चुनाव/उप-चुनाव सम्पन्न हुए, कांग्रेसी यह वावेला करते रहे कि चुनावों में हेराफेरी हुई, सत्ता पक्ष ने दबंगता और गुंडागर्दी की। यहां तक भी आरोप लगते रहे कि मत मशीनों से छेड़खानी की गई, अथवा मतगणना को प्रभावित किया गया। इन आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच हिंसक घटनाएं भी होने लगी हैं, और इनके लिए प्राय: सत्ता पक्ष आरोपित होता रहा है। यह सही भी है, क्योंकि विपक्षी दल ऐसे यत्न कर ही नहीं सकते। सत्ता की मशीनरी की कुंजी तो हमेशा सत्ता पक्ष के हाथ में ही होती है न।
लुधियाना में यही कुछ हुआ है। पंजाब में दस वर्ष तक अकाली-भाजपा सरकार की सत्ता रहने के बाद अब कांग्रेस की सरकार है, और इसी कारण कांग्रेसियों को कुछ भी कर गुज़रने हेतु पूर्ण स्वतंत्रता हासिल है। पंजाब में जब अकाली-भाजपा की सरकार थी, तो दस वर्ष तक किसी भी निकाय के चुनावों के बाद खासतौर पर विपक्ष के चुनाव हार जाने के बाद ये आरोप लगते रहे हैं कि सरकार की शह पर हिंसा एवं गुण्डागर्दी हुई है। अब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लुधियाना नगर निगम चुनावों के दौरान वैसी ही घटनाएं हुई हैं, जैसी पहले कभी होती रही हैं, परन्तु आरोप लगाने वाले और जिनके विरुद्ध आरोप लगे हैं, दोनों पक्ष बदल गये हैं। इस बार हिंसा, कथित गुण्डागर्दी और छीना-छपटी के आरोप कांग्रेस समर्थकों के विरुद्ध हैं, जबकि आरोप लगाने वाले पक्ष में लोक इन्साफ पार्टी और अकाली दल के नेता/कार्यकर्ता शामिल हैं। हम समझते हैं कि नि:संदेह यह तस्वीर देश के लोकतंत्र की सेहत के लिए किसी भी सूरत अच्छी नहीं है। भारतीय लोकतंत्र की विश्व धरा पर इसीलिए एक भिन्न छवि है कि आज़ादी के बाद से केन्द्र और राज्यों में जितनी भी सरकारें बदली अथवा बनी हैं, उनका सम्पूर्ण दारोमदार लोकतांत्रिक  धरातल पर ही रहा है। बीच में एक अवसर ऐसा भी आया था कि बिहार, उत्तर प्रदेश, पं. बंगाल जैसे राज्यों में हिंसक घटनाएं होने की भी सूचनाएं मिलती रहीं, परन्तु फिर भी भारतीय चुनाव आयोग ने चुनावों को शांतिपूर्वक एवं लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के साथ कराये जाने की अपनी भूमिका को निभाना बदस्तूर जारी रखा। आज स्थिति यह है कि देश के एक-दो राज्यों को छोड़ कर चुनावों के दौरान हिंसा की किसी बड़ी वारदात की सूचना कम ही मिली है। तथापि, लुधियाना में नगर निगम चुनावों में हुई हिंसा, गोलीबारी एवं तोड़-फोड़ की घटनाएं एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं। स्थानीय निकाय चुनाव बहुत सीमित क्षेत्र में सम्पन्न होते हैं, और यहां के मतदाता भी प्राय: एक-दूसरे से परिचित होते हैं। ऐसे, में इन लोगों के बीच हिंसा और शत्रुतापूर्ण घटनाएं दूरगामी एवं गम्भीर परिणामदायक हो सकती हैं। मत-केन्द्रों पर कब्ज़े और मतदाताओं को प्रभावित करने वाली घटनाएं लोकतंत्र की मूल भावना के लिए खतरा सिद्ध हो सकती हैं। ऐसे अवसरों पर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता जब आपस में भिड़ते हैं तो उनके भीतर एक स्थायी किस्म की शत्रुता घर करने लगती है। यह स्थिति किसी भी सभ्य समाज के लिए उपयुक्त नहीं है। यह भी देखा गया है कि ऐसे अवसरों पर पुलिस की भूमिका प्राय: मूक दर्शक जैसी होकर रह जाती है। यह स्थिति धीरे-धीरे एक परिपाटी जैसी बन जाती है। इससे प्रशासनिक तंत्र निष्ठुर और निर्मम होने लगता है, जिससे लोकतंत्र की मूल भावना भी आहत होती है।हम समझते हैं कि देश में एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ज़रूरी है कि चुनावी परम्परा को साफ-सुथरा बनाया जाए। इसके लिए जहां चुनाव आयोग को महती भूमिका निभानी होगी, वहीं प्रशासनिक तंत्र में पारदर्शिता और निष्पक्षता को लाया जाना भी बहुत ज़रूरी है। जन-साधारण एवं मतदाताओं को भी समझना होगा कि राजनीतिक व्यवस्था का तंत्र तो वही रहा है। केवल इसका संचालन करने वाले लोग बदल जाते हैं। यह भी कि एक निश्चित समय पर इन लोगों को बदले जाने का अवसर फिर आने वाला है। ऐसे में आपस में पारिवारिक और सामाजिक समरसता एवं सद्भाव के ताने-बाने को बिखेरना कदापि उचित नहीं है। देश के लोकतंत्र की प्रतिष्ठाजनक परिपाटी को बनाये रखने के लिए भी यह ज़रूरी है कि चुनावों खास तौर पर मतदान के दौरान होने वाली हिंसा पर हर स्थिति में अंकुश लगाया जाए। यह कार्य जितनी शीघ्र सम्पन्न होगा, देश के लोकतंत्र की सेहत के लिए यह उतना ही लाभदायक एवं श्रेष्ठ रहेगा।