क्या जस्टिन ट्रूडो के दौरे को साबोताज़ किया गया ?

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के भारत दौरे से पहले, के दौरान और अब उसके बाद भी जिस तरह के संकेत मिल  रहे हैं, वह पंजाबियों तथा सिख समुदाय को चिंतित करने वाले हैं। एक तरफ कौम के पास कोई वर्ग नहीं, जो सिख हितों के बारे में सोच समझ कर कोई फैसला लेने में सक्षम हो और दूसरी तरफ सिख बुद्धिजीवी वर्ग गहरी नींद सोया पड़ा है। बेशक ‘कोई हरिया बूट रहिओ री’ के कथन के अनुसार कोई एक-आध मेले में तूती की आवाज़ की तरह अवश्य बोलता है। परन्तु उसकी आवाज़ भी मेले के शोरगुल में अनसुनी रह रही है। 
पता नहीं क्यों? परन्तु लगता है कि कौम के सिर एक बार फिर 1978 के बाद तथा 1984 से पहले वाले हालात बनने का खतरा मंडरा रहा है। अफसोस की बात है कि उस समय भी सिख और पंजाबी बुद्धिजीवी वर्ग या तो समय के साथ बह गया था या चुप रहा था। समय रहते कौम को किसी ने नहीं जगाया था कि जो हालात बनते जा रहे हैं, इनका परिणाम आपरेशन ब्लू स्टार और 1984 के सिख कत्लेआम जैसा ही निकल सकता है। किसी ने समय रहते कौम को नहीं बताया कि यह समय की सरकार की चाल है कि वह सिखों को ‘अपने घर, अपने देश’ का सपना दिखाकर एक राजनीतिक खेल खेल रही है, ताकि पहले बहुसंख्यक की साम्प्रदायिक भावनाओं को घायल करके और बाद में सिखों को सबक सिखा कर चुनाव जीत सके। 
अब सफेद दिन की तरह कई ऐसे संकेत मिलते हैं, जो यह एहसास करवाते हैं कि केन्द्रीय खुफियां एजेंसियां क्या खेल खेलती रही थीं। कैसे हमारे युवक उनके जाल में फंसते गए। देश भर के सभी राज्यों को अधिक अधिकार देने की एक लोकतांत्रिक मांग को कैसे खालिस्तान की ओर धकेल कर देश-विरोधी बना दिया गया? मीडिया के एक हिस्से द्वारा अब कनाडा के प्रधानमंत्री के दौरे के समय जिस तरह कनाडा को खालिस्तान का समर्थक दिखाया गया है, वह सचमुच ही कई सवाल खड़े करता है। 
भारतीय विदेश नीति और कनाडा
भारत सरकार द्वारा आकार के लिहाज़ से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश कनाडा के प्रधानमंत्री के प्रति अपनाया इतना ठण्डा रवैया सिर्फ हैरानीजनक ही नहीं अपितु लगता है कि यह बिना किसी सोची-समझी रणनीति के नहीं हो सकता। वह भी उस समय जिस समय यह माना जाता हो कि ब्रिटेन, अमरीका, आस्ट्रेलिया और कनाडा बहन-भाईयों जैसे देश हैं। गौरतलब है कि यू.के. की महारानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय आज भी कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड सहित 16 देशों की रानी है। बेशक ऐलिज़ाबेथ अमरीका की रानी नहीं, परन्तु इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि विश्व राजनीति में अमरीका और यू.के. एक-दूसरे के सहयोगी देश हैं। यदि थोड़ा विस्तार में ढूंढ लिया जाए तो पता चलेगा कि पांचों देशों के गुप्त संगठन को फाईव आईज़ (पांच आंखें) कहा जाता है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही गुप्त रूप में विश्व में सांझी रणनीति के अधीन चलते हैं और हर मामले में एक-दूसरे को सूचना भी देते हैं। फिर यह कैसे सम्भव है कि भारत जैसा देश इससे अन्जान हो और वह भी उस समय जिस समय एक तरफ उसका चीन जैसे शक्तिशाली देश के साथ विवाद चल रहा हो, रूस के साथ पहले जैसे मैत्रीपूर्ण संबंध न रहे हों। वह अमरीका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों के खुफिया गठबंधन के एक अहम सदस्य देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा ठण्डा और उपेक्षित रवैया धारण कर ले? क्या भारत की विदेश नीति के निर्माताओं को इसकी समझ नहीं? या यह सब कुछ एक साज़िश के तहत है? यदि है तो इसका कारण क्या है? भारत को इसमें से क्या प्राप्ति होगी? क्या भारतीय विदेश नीति निर्माता अपने पांवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रहे हैं? या फिर भारत के विदेश नीति माहिर इतने ज्यादा समझदार और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं कि वह यह समझते हैं कि अमरीका को सम्भावित चीन, रूस तथा उत्तर कोरिया के गठबंधन का मुकाबला करने के लिए भारत की इतनी ज्यादा ज़रूरत है कि वह कनाडा जैसे अपने साथी को भारत से कुर्बान कर सकता है? 
खुफिया एजेंसियों की शक्ति
बेशक भारत सरकार ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है और कनाडा के सुरक्षा सलाहकार डैनियल जीन के इस दावे को रद्द भी किया है कि कनाडा उच्चायुक्त के कार्यक्रमों में एक कथित खालिस्तानी जसपाल अटवाल की भागीदारी के पीछे भारत के सरकारी तत्वों (खुफिया एजेंसियों) का हाथ है। परन्तु यह बात ध्यान रखने वाली है कि यह मामला कितना गम्भीर रूप धारण कर गया है कि कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो कनाडा की संसद में भी अपने सुरक्षा सलाहकार के दावे का खंडन नहीं करते बल्कि कहते हैं कि सुरक्षा अधिकारी सही जानकारी के आधार पर ही कुछ कहते हैं।
वैसे यह आम कहा जाता है कि अमरीका में भी वहां की खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. अमरीकी राष्ट्रपति से अधिक शक्तिशाली है। वैसे पाकिस्तान में आई.एस.आई. की शक्ति तो किसी से छिपी हुई नहीं। यू.एस.एस.आर. के दिनों में रूस में के.जी.वी. नाम की खुफिया एजेंसी की शक्ति भी वहां के राष्ट्रपति से ज्यादा मानी जाती थी। इसलिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को इस स्थिति की जांच अवश्य करवानी चाहिए कि कहीं उनके शासन में भी तो वही खेल नहीं खेला जा रहा जो इन्दिरा गांधी के शासन में सिख नेताओं के साथ समझौते की सारी कोशिशों को तार-तार करने के लिए उनके कुछ मंत्री और कुछ सुरक्षा एजेंसियां खेलती रही थीं? 
सिख कौम के लिए सोचने का समय
परन्तु खैर हमारा विषय भारत की विदेश नीति या भारत सरकार की आन्तरिक स्थिति नहीं, हमारा विषय तो इस समय सिख कौम के लिए बज रही खतरे की घंटियों की आवाज़ है। क्योंकि जिस तरह का रवैया इस देश में मुस्लिम अल्पसंख्यक के प्रति अपनाया जा रहा है, उसको देखते हुए यह सोचना पड़ता है कि क्या कहीं जस्टिन ट्रूडो के प्रति धारण किया गया रवैया देश के अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति अपनाये जाने वाले रवैये का आगामी सूचक संकेत तो नहीं? वैसे इस स्थिति को किसी सीमा तक समझने और इसके बारे में बोलने की हिम्मत करने वालों में दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के प्रधान मनजीत सिंह जी. के और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन तरलोचन सिंह जैसे गिनती के ही लोग हैं। परन्तु चर्चा है कि जी.के. द्वारा बोले जाने का भी कुछ वरिष्ठ अकाली नेताओं ने बुरा मनाया है, क्योंकि उनको लगता है कि यह अकाली-भाजपा गठबंधन के लिए नुक्सानदायक है। परन्तु स. जी.के. स्वयं इस बात को सही नहीं मानते कि उनके बोलने पर किसी वरिष्ठ नेता ने बुरा मनाया है, परन्तु यदि स. जी.के. की यह बात सही है तो अकाली दल के प्रधान सुखबीर सिंह बादल और पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल स्वयं इस स्थिति के बारे में खुलकर क्यों नहीं बोलते? दूसरी तरफ मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह जो आपरेशन ब्लू स्टार के समय इस्तीफा देकर सिखों के दिलों पर राज कर गए थे, का रवैया भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह केन्द्र सरकार की रणनीति का एक हिस्सा बन गए हों।  इस तरह प्रतीत होता है कि कैनेडियन प्रधानमंत्री की भारत यात्रा की रूप-रेखा बनाने वाले यदि थोड़े से सचेत होते और मोदी ट्रूडो की मुलाकात जो इस दौरे के अंत में हुई, पहले करवा लेते और दोनों देशों का यह साझा बयान पहले आ जाता कि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे की एकता तथा अखण्डता तथा कानून के शासन के लिए वचनबद्ध हैं, तो शायद मीडिया के एक शक्तिशाली हिस्से को ट्रूडो की भारत यात्रा को खालिस्तानी रंगत देने का अवसर ही नहीं मिलता। हम समझते हैं कि दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को इस बात की जांच अवश्य करवानी चाहिए कि दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात कैनेडियन प्रधानमंत्री के दौरे के अंत में रखने का फैसला क्यों और किन परिस्थितियों में हुआ? कहीं इसके पीछे भी कोई साज़िश तो नहीं? 
सिख बुद्धिजीवी जागें
बेशक सिख कौम इस समय एक बहुत बड़े बौद्धिक और राजनीतिक रिक्तता के दौर से गुजर रही है। हमारे पास इस समय ऐसा कोई सर्व प्रमाणित संगठन नहीं रहा जो हमारी कौम के हितों के बारे में सोचने, विचार करने तथा दिशा देने में सक्षम नज़र आता हो। जो हमारी खासतौर पर हमारे भारत और पंजाब में बसते सिखों की आर्थिकता, धार्मिकता, शिक्षा, सामाजिक बुराइयों से बचाव, कौम के लिए सामूहिक रूप में लाभदायक राजनीतिक पैंतरा लें और भविष्य के लक्ष्य निर्धारित करें तथा उनकी प्राप्तियों के लिए कोई रणनीति गढ़ सकती हो। 
जब-जब भी कौम ऐसे दोराहों या चौराहों पर खड़ी होती हैं, तो उस समय उनको रास्ता दिखाना बुद्धिजीवियों का फज़र् होता है। बेशक उसके बदले में उनको कोई भी कुर्बानी ही क्यों न करनी पड़े। इसलिए पंथ और पंजाब की चिन्ता करने वाले बुद्धिजीवियों को इस संबंधी अपना फज़र् निभाने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा।

—1044, गुरुनानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना