बिन्दुधाम में गिरा था सती का तीन बूंद खून

संथाल परगना में प्राकृतिक सुषमा बिखेरती राजमहल की पहाड़ियों में बरहड़वा से एक किलोमीटर दूर छोटी-सी पहाड़ी पर बसा है—बिन्दुधाम। साहिबगंज ज़िला मुख्यालय से पचपन किलोमीटर दूर अति प्राचीन शक्तिपीठ के रूप में मां ‘बिन्दुवासिनी’ का अति मनोरम दर्शनीय मंदिर, बिन्दुधाम के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है। बिन्दुधाम में हर वर्ष चैत माह के रामनवमी के अवसर पर एक पखवाड़े तक लगने वाला भव्य मेला और साल भर हज़ारों श्रद्धालुओं की उमड़ने वाली भीड़ से लोग बरबस इसकी ओर आकर्षित होकर मां का दर्शन कर कृतकृत्य हो जाते हैं। यहां स्थित अन्य अनेक छोटे-बड़े मंदिरों की अपूर्व शोभा को देखकर दर्शनार्थी यहां पर बार-बार आना चाहते हैं।
बिन्दुधाम शक्तिपीठ का इतिहास बहुत ही पुराना है। पौराणिक काल में इस पीठ की स्थापना हुई थी। अति विस्तृत इलाके में फैला यह शक्तिपीठ 53वां शक्तिपीठ माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने जब तांडव नृत्य किया था, तब उनके कंधे पर सती का शरीर था। भगवान विष्णु ने उनकी विनाशलीला को विराम देने के लिए सती के सभी अंगों को काट डाला ताकि उनका तांडव नृत्य रुके और विनाश से ब्रह्माण्ड का बचाव किया जा सके। सती के शरीर के कटे अंग जहां-जहां गिरे, वहां-वहां एक-एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई। इस तरह 51 स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना हो गई। ऐसी मान्यता है कि बिन्दुधाम में सती के शरीर का तीन बूंद खून गिरा था, इसलिए यह ‘बिन्दुधाम’ शक्तिपीठ कहलाता है। यहां स्थापित तीन शिला मूर्तियां तीन बूंद की प्रतीक हैं, जो सिद्ध आसन हैं। मंदिर प्रांगण में ही वटवृक्ष के नज़दीक इस घटना को उत्कीर्ण किया गया है। साथ ही भगवान शंकर के कंधे पर सती को भी दर्शाया गया है। इसकी महत्ता और ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है।पुराने समय में सम्राट अशोक ने यहां आकर बिन्दुवासिनी माता के समक्ष एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान भी किया था। मंदिर निर्माण करते वक्त नींव-खुदाई के क्रम में पाली भाषा में लिखित ताम्रपत्र मिला था, जो इस समय पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग दिल्ली की शोभा बढ़ा रहा है। पहाड़ी के ऊपर कुछ दूरी पर तालाब खुदाई करते समय नर-कंकाल तथा उसके साथ बंधी जंजीर भी सम्राट अशोक के काल की पुष्टि करते हैं।भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत कबीर को इस शक्ति पीठ में आने और कुछ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। चैतन्य महाप्रभु जब अपने गृह नदियां से वृन्दावन जा रहे थे, तब यहां आकर माता का दर्शन कर कन्हैया स्थान (राजमहल) में कुछ समय व्यतीत किया था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य विनोबाभावे और भिखारी ठाकुर जैसे महापुरुष इस स्थान पर आये और मां बिन्दुवासिनी का दर्शन कर अभिभूत हो गये।बिन्दुधाम मंदिर पहले निर्जन और सुनसान जंगल में पहाड़ी पर स्थिर था जो कालक्रम में विकसित हुआ और स्थानीय धर्मप्रेमी जनता के सहयोग से इसे सजाने और संवारने में काफी मदद मिली। जब यह जंगलों में स्थित था तो लोग विशेष सुरक्षा में पूजा-अर्चना करने आते थे। ज़मींदारी प्रथा काल में दो स्टेटों द्वारा मंदिर की देख-रेख और पूजा होती थी। 1960 में स्वामी सत्यानंद गिरि के परम शिष्य हरिहरानंद गिरि पहाड़ी बाबा का आगमन बिन्दुधाम में हुआ। उनकी आध्यात्मिक शक्ति और भक्ति की वजह से जल्दी ही इसका यश और कीर्ति चारों दिशाओं में फैली और मंदिर में उनका प्रभाव बढ़ने लगा। धीरे-धीरे मंदिर की पूजा अर्चना का भार, पहाड़ी बाबा ने संभाला और वहां यज्ञशाला, भैरव मंदिर, संकटमोचन मंदिर, शिव पंचायती, वासुदेव मंदिर, योगेश्वरी मंदिर, रानी सती मंदिर का भव्य निर्माण कराया गया जो वास्तुकला तथा स्थापत्य कला का एक भव्य नमूना है।यह एक ऐसा स्थान है जहां आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्रकृति के अनोखे दृश्यों का भी आनन्द उठाया जा सकता है।  (उर्वशी)
—आनन्द कुमार अनन्त