बैंकिंग प्रणाली का निजीकरण जनहित में नहीं

नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कांड से केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा को करारा झटका लगा है। मोदी सरकार जानती है कि अगर जल्दी ही उसने जनता की निगाह में चढ़ने वाला कोई ज़ोरदार किस्म का ़कदम न उठाया, तो वह घोटालेबाज़ों को देश से भगाने के विपक्ष के आरोप से बच नहीं पाएगी। इसीलिए उसने फटाफट एक के बाद एक तीन कदम उठाए हैं : उसने फैसला लिया है कि पाँच सौ करोड़ का कज़र् अगर बट्टे खाते डालने की नौबत आई तो उसकी जाँच उसी तरह होगी जैसे किसी बैंक ़फ्रॉड की होती है, उसने ़फ्रॉड करने वालों की सम्पत्ति जब्त करने का कड़ा कानून बनाने की पहलकदमी ली है और कार्ति चिदम्बरम को गिरफ्तार करके यह संदेश देने की कोशिश की है कि आर्थिक बईमानी करने वालों को छोड़ा नहीं जाएगा। ये कदम कितने असरदार होंगे, इस पर बहस की जा सकती है। पर इसमें कोई शक नहीं कि इनके ज़रिये सरकार अपने बारे में बदलती लोगों की राय को प्रबंधित करने की कोशिश करते अवश्य दिखाई दे रही है। जो भी हो, इस तरह के हल्के कदमों के मुकाबले हज़ारों करोड़ के बैंक ़फ्रॉड से निकलने वाले मुद्दे कहीं ज़्यादा गम्भीर और विचारणीय हैं। पहला और सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए? घोटाले का भाँडा फूटने के कारण सरकारी बैंकों के निजीकरण की माँग ने ज़ोर पकड़ लिया है। भारतीय संदर्भ में जब से बैंकों पर न हो सकने वाले कज़र् का बोझ बढ़ा है, तभी से इस तरह की सुगबुगाहट होने लगी थी। लेकिन निजीकरण के वकीलों को यह माँग ऊँची आवाज़ में करने में कुछ संकोच हुआ करता था, लेकिन अब वे खुल कर कहने लगे हैं कि 1969 में इंदिरा गाँधी द्वारा किया गया बैंकों का राष्ट्रीयकरण किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया सबसे ज़्यादा नुक्सानदेह आर्थिक फैसला था। इंदिरा गाँधी जब 1980 में सत्ता में लौटीं तो उन्होंने बैंक राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चलाया। इन आलोचकों की दलील है कि राष्ट्रीयकरण का यह ़कदम बिना किसी सार्वजनिक बहस के अध्यादेश जारी करके उठाया गया था। आलोचकों का यह भी दावा है कि सरकारीकरण से पहले निजी स्वामित्व में चलने वाली भारत की बैंकिंग प्रणाली मुऩाफा कमाऊ थी और सरकारीकरण का परिणाम यह निकला बैंकों ने किसी भी तरह का वित्तीय नवाचार बंद कर दिया, जबकि सारी दुनिया में वित्तीय क्षेत्र नये-नये तऱीके अपनाता हुआ अपना विकास करता रहा। 1990 के बाद निजी क्षेत्र में बैंक खोलने के लिए लाइसेंस तो दिये जाने लगे लेकिन न वाजपेयी सरकार ने, न कांग्रेस सरकार ने और न ही मोदी सरकार ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को उलटने के बारे में सोचा। विरोधाभास यह है कि बैंक निजीकरण के पैरोकार घोटालों और मनमानी के कारण लेहमैन ब्रदर्स, रॉयल बैंक ऑ़फ स्कॉटलैंड और मेरिल लिंच जैसे प्राइवेट सेक्टर के विशाल और ग्लोबल स्तर के बैंकों का भट्ठा बैठने की घटनाओं को सुविधापूर्वक भुला चुके हैं। इन बैंकों के पतन के कारण विश्व-अर्थव्यवस्था संकट में आ गई थी। 
एक बड़े टिप्पणीकार ने सरकार को कुछ हिदायतनुमा सलाह दी है : ‘शट इट, सेल इट ऐंड फॉरगेट इट’। इसका मतलब यह हुआ कि सरकारी बैंकों को बंद करो, निजी क्षेत्र को औने-पौने दामों में बेच दो और बैंकिंग के क्षेत्र में हस्तक्षेप करना भूल जाओ। सोचने की बात है कि अगर सरकार ने इस हिदायत पर अमल किया तो उसका क्या नतीजा निकलेगा? इसका पहला नतीजा यह होगा कि सरकार बैंकों को खेती, शिक्षा और गृह-निर्माण के लिए कज़र् देने के निर्देश देने की हैसियत खो देगी, और ये सभी क्षेत्र पूरी तरह से निजी पूँजी के मोहताज हो जाएँगे। यह भी सोचने की बात है कि अगर सरकार के पास बैंक न होते तो क्या वह जन-धन योजना चला पाती? प्राइवेट सेक्टर में चलने वाले देश के 13 बैंकों ने केवल साढ़े तीन ़फीसदी जन-धन खाते खोले, जबकि बाकी खाते पूरी तरह से सरकारी क्षेत्र में ही खोले गए। इसी तरह अगर सरकार के पास बैंक न होते तो वह विमुद्रीकरण की कवायद भी इस तरह से न कर पाती जिस तरह से पिछले दिनों की गई। 
बैंकों के सरकारीकरण के कारण जिस वित्तीय नवाचार के न हो पाने का अ़फसोस व्यक्त किया जा रहा है, वह दरअसल क्या है? अमरीकी  बैंक निजी क्षेत्र में हैं। भूमंडलीकरण से पहले उनकी भूमिका केवल एक वित्तीय माध्यम की होती थी। लेकिन जैसे ही वित्तीय पूँजी भूमंडलीकरण के कारण उन्मुक्त हुई, वैसे ही बैंकों की भूमिका बदलती चली गई। उन्हें ‘सबप्राइम’ कज़र् देने की ज़िम्मेदारी दी गई। सबप्राइम का मतलब होता है नियम-़कानून ढीले करके उन लोगों को भी ऋण का लाभ पहुँचाना जो तकनीकी रूप से कज़र् ले कर चुकाने की स्पष्ट हैसियत नहीं रखते। जैसे ही निजी क्षेत्र के बैंकों ने यह नवाचार किया, वैसे ही एक पूरा का पूरा ‘सबप्राइम’ मार्केट ही उभर आया। घर खरीदने, कार खरीदने और अन्य उपभोक्ता सामग्री खरीदने के बिना पक्की ज़मानतों के अनाप-शनाप कज़र् दिये जाने लगे। मुख्य तौर पर ‘हाउसिंग बूम’ के लिए दिये गए इन ऋणों को वापिस नहीं किया जा सका, तो बैंकों को वित्तीय संकट में फँस जाना पड़ा जिसका नतीजा 2008 में ग्लोबल पैमाने पर वित्तीय संकट में निकला। यह संकट आज तक पूरी तरह से ़खत्म नहीं हो पाया है। चूँकि निजी स्वामित्व वाले बैंकों का यह तथाकथित नवाचार अमरीका में हुआ था, इसलिए इसका पहला शिकार अमरीकी अर्थ-व्यवस्था हुई। उसमें आई मंदी का असर सारी दुनिया पर पड़ा। भारतीय अर्थ-व्यवस्था इस संकट से उस समय इसलिए बच पाई कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली सरकारी क्षेत्र में थी और उसका नाता ग्लोबल अर्थ-व्यवस्था से कुछ ़खास नहीं था। इस विवरण से ज़ाहिर है कि निजी मालिकाने वाले अमरीकी बैंकों की उस दुर्गति पर बिना ़गौर किये भारतीय सरकारी बैंकों के निजीकरण की वकालत करने वाले यह भूल जाते हैं कि निजी बैंक भी किसी न किसी नियम-कानून की संहिता के अधीन ही चलते हैं। उस संहिता को लागू करने का काम देश के सेंट्रल बैंक (भारतीय रिज़र्व बैंक) का होता है। आखिरकार रिज़र्व बैंक का तो निजीकरण नहीं किया जा सकता।  
अगर भारत के रिज़र्व बैंक ने आँखें खोल कर काम किया होता, तो कम से कम पंजाब नैशनल बैंक में लेटर्स ऑ़फ अंडरस्टेंडिंग के ज़रिये होने वाली धोखाधड़ी तो न हो पाती। क्या पीएनबी का घोटाला बिना बैंक के बड़े अ़फसरों, रिज़र्व बैंक के ऑडिट अ़फसरों और पिछली और इस सरकार के सत्तारूढ़ राजनीतिक आकाओं की मज़र्ी के बिना यह घोटाला हो सकता था? बैंकों का अनिवार्य ऑडिट करने वाली रिज़र्व बैंक की टीम पिछले सात साल के दौरान अपनी आँखें क्यों बंद किये रही? सारी दुनिया का अनुभव बताता है कि बैंक निजी हों या सरकारी, ़फ्रॉड की रोकथाम करने के तऱीके आम तौर से एक जैसे ही होते हैं। स्वामित्व से कोई अंतर नहीं पड़ता। दुनिया के सारे बैंक (अमरीकी और यूरोपीय बैंकों समेत) किसी न किसी रूप में धोखाधड़ी के शिकार होते हैं। बैंकों को इस प्रकार लूटने की प्रक्रिया में बैंकों के बड़े अ़फसरों, पूँजीपतियों और छोटे स्ट़ाफ की मिली-जुली भूमिका होती है।बैंकों के निजीकरण का सुझाव देने वालों को एक बात और समझनी चाहिए कि  भारतीय जनता पार्टी समेत भारत की कोई भी राजनीतिक पार्टी इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं हो सकती।  बैंकों का निजीकरण करने से भारतीय राज्य की त़ाकत आधे से भी कम रह जाएगी। उसके बाद कॉरपोरेट क्षेत्र पर उसका नियंत्रण न के बराबर हो जाएगा। दूसरी तऱफ बैंकों द्वारा दिये जाने वाले विशाल ऋणों की हर हालत में वापिसी होने की गारंटी भी नहीं होगी। न ही निजीकरण बैंक ़फ्रॉड्स के खिल़ाफ किसी तरह की गारंटी दे सकता है।