औरत तेरे रूप अनेक

सृजनहार की सबसे प्यारी और श्रेष्ठ रचना है औरत। मोह, ममता, त्याग और सहनशीलता की मूर्ति है औरत। अनेक रूप हैं औरत के। एक औरत किसी की बेटी बनकर धरती पर जन्म लेती है, आखिरी सांस तक अनेक रिश्तों को निभाती है। बेटी बनकर अपने पिता के सम्मान के लिए जीती है, बहन बन कर भाई की राखी की इज्ज़त रखती है। बहू बनकर ससुराल घर के मान-सम्मान की खातिर अपनी खुशियों का त्याग करती है, मां बनकर अपनी सारी ममता अपने बच्चे पर कुर्बान कर देती है। हर रिश्ते का दिल से सम्मान करना यही है एक औरत की पहचान। और मरियम बनकर जीती है। ज़रूरत पड़ने पर चंडी का रूप भी धारण कर लेती है। सभी गुरुओं पीरों ने औरत को जगत-जननी का दर्जा दिया है।एक औरत का ऋण यह समाज कभी भी नहीं चुका सकता। अगर धरती पर औरत है तो ही जीवन सम्भव है। लेकिन हमारा समाज उस औरत का दुश्मन बना बैठा है। धरती पर नये जीवन का अस्तित्व केवल औरत के कारण ही सम्भव होता है। लेकिन हमारे समाज में अब तो शुरू से ही यानि जन्म से ही उसका अधिकार छीन लिया जाता है। पुरुष और महिला के लिंगानुपात से संबंधित जो मामले सामने आए हैं, उनमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि औरत का अस्तित्व खतरे में है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि पूरा मानवीय अस्तित्व ही खतरे में है। महिला है तो परिवार है, क्योंकि परिवार को प्यार के धागे से बांध कर रखने वाली औरत ही होती है। चाहे खुद वह सारी उम्र उस प्यार और सम्मान के लिए तरसती रहे। आज के समाज में महिला से सम्मान लेने की इच्छा तो हर कोई रखता है, लेकिन उसको सम्मान देने की इच्छा शक्ति कुछेक लोगों में ही होती है।औरत तो घर का वह रोशन चिराग है, जो खुद जलकर भी दूसरों की रौशनी प्रदान करती है। फिर भी समाज में महिला सुरक्षित नहीं है। कहीं भ्रूण हत्या के द्वारा औरत के वजूद को खत्म करने की कोशिश की जा रही है, तो कहीं बाल-विवाह करवा कर उसका मासूम बचपन उससे छीना जा रहा है। कहीं दहेज की आग में वह जल रही है, कहीं तेज़ाब हमले की शिकार, महिला रोज़ घुट-घुट करके मर रही है। वह चाहे घर हो, स्कूल हो या आफिस में कहीं भी सुरक्षित नहीं है। औरत का सारा जीवन ही संघर्ष बनकर रह गया है। औरत को एक वस्तु समझकर प्रयोग करने वाला पुरुष पता नहीं क्यों यह भूल जाता है कि उसको जन्म देने वाली भी एक औरत ही है।
हम चाहे सभी आज 21वीं शताब्दी में विचर रहे हैं, औरत के प्रति हमारी सोच आज भी रूढ़ीवादी है। हमें सुंदर बहू घर के लिए चाहिए, लेकिन घर में बेटी का अस्तित्व बर्दाश्त नहीं होता। औरत की पूरी ज़िन्दगी घर बनाने में निकल जाती है, लेकिन फिर भी यह कहा जाता है कि औरत का अपना कोई घर नहीं। यह हमारी स्वार्थी सोच नहीं तो और क्या है? आज भी औरत घर की चीर-दीवारों में कैद है। मान-मर्यादा की बेड़ियों में जकड़ी है। औरत के प्रति हमारी सोच दोगली क्यों है? अगर महिलाओं की उपलब्धियों का ज़िक्र करें तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं हैं। जंग के मैदान में लड़ने वाली लक्ष्मीबाई भी एक औरत थी। अंतरिक्ष तक पहुंचने वाली कल्पना चावला भी एक औरत थी, निडर होकर देश चलाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी औरत ही थी। वर्तमान में देखें तो देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, रक्षा मंत्री निर्माला सीतारमन, लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन ये सब महिलाएं ही हैं। एक महिला घर में रह कर घर की अंदरूनी ज़िम्मेवारी को भी निभाती हैं और बाहर रहती हुई पुरुष के बराबर भी होती है। फिर क्यों महिला को बेचारी, अबला कहकर उसको तिरस्कार का पात्र बनाया जाता है?
आज ज़रूरत है औरत के प्रति अपनी सोच बदलने की। आज समाज में अगर औरत की स्थिति कमज़ोर है तो उसके लिए काफी हद तक औरत खुद भी ज़िम्मेवार है, क्योंकि जुल्म करने से बड़ा पाप जुल्म को सहना होता है। ज़रूरत है औरत द्वारा अपनी शक्ति पहचानने की। अपने वजूद के लिए लड़ने की। औरत समाज के लिए व परिवार के लिए बोझ नहीं है। औरत तो मोह, ममता की वह बहती नदी है, जो परिवार रूपी बगिया को महकाती है-
‘मोह ममता की मूर्त हूं मैं,
मुझे बोझ समझकर धिक्कारो न,
चंडी का दूसरा रूप हूं मैं,
मुझे अबला कह कर पुकारो न।’

-जसप्रीत कौर संघा