त्रिपुरा में भाजपा की रणनीति जीती या हारा माकपा का ‘विकास’ ?

तीन उत्तर-पूर्व राज्यों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जो चुनावी रणनीति अपनायी, उसके लचीलेपन ने इस पार्टी के आलोचकों को ताज्जुब में डाल दिया है। वे यह देख कर हैरत में हैं कि ‘हिंदू पार्टी’ समझी जाने वाली भाजपा ने ईसाई बहुल राज्य नगालैंड में यरूशलम का हज करवाने का चुनावी वायदा किया था। भाजपा की त्रिपुरा संबंधी रणनीति तो अपने-आप में अनूठी और अध्ययन-योग्य साबित हुई है। ‘हिंदी’ पार्टी और ‘शाकाहारी’ पार्टी की छवि रखने वाली भाजपा के इंचार्ज सुनील देवधर (मराठी भाषी) ने वहां काम करने के लिए बांग्ला सीखी, न केवल मछली-भात खाना शुरू किया बल्कि जीतने पर मछली-भात की दावत देने का वायदा भी किया, आदिवासियों को लुभाने के लिए भारत माता की मूर्ति को आदिवासी पोशाक पहनाई और त्रिपुरा के हिंदुओं की नाथपंथी धार्मिक विरासत को स्पर्श देने के लिए गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ की रैलियां करवाईं। पिछले दो साल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं साठ से बढ़ कर ढाई सौ से अधिक हो गईं। उनके एकत्रीकरणों में पंद्रह से बीस-बीस हज़ार स्वयंसेवक जमा होने लगे। पूरे प्रदेश में संघ और भाजपा के कुल मिलाकर पचास हज़ार से ज़्यादा कार्यकर्ता सक्रिय थे। त्रिपुरा की ट्रेनों में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मोदी टी-शर्ट पहन कर यात्राएं कीं और अन्य यात्रियों को पार्टी-साहित्य भेंट करके उनके ़फोन नंबर लिये ताकि उनसे भविष्य में भी सम्पर्क किया जा सके। यह सब उस हालत में किया गया जबकि दो साल पहले त्रिपुरा के सभी साठ निर्वाचन-क्षेत्रों में भाजपा की सांगठनिक इकाइयां भी नहीं थीं। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा की इस रणनीतिक कामयाबी के विपरीत त्रिपुरा में अपनी असाधारण पराजय के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रवक्तागण टीवी चैनलों पर अपनी ढाई दशक पुरानी सरकार की विकास संबंधी कामयाबियों के आँकड़े गिना रहे हैं। उनका कहना है कि पिछले पच्चीस सालों में उत्तर-पूर्व के इस राज्य ने कम्युनिस्ट हुकूमत के तहत बहुत प्रगति की है। इस राज्य का कुल घरेलू उत्पाद बढ़ कर नौ फीसदी हो गया है, खेती में चावल की उत्पादकता दूसरे राज्यों के म़ुकाबले क़ाफी बेहतर है, प्रदेश में साक्षरता की दर 95 फीसदी (केरल से भी अधिक) है, लैंगिक अनुपात एक हज़ार पुरुषों पर 960 स्त्रियों (राष्ट्रीय औसत से अधिक) का है, पेयजल सप्लाई 70 फीसदी से ज़्यादा है। भाजपा की आकर्षक रणनीति को जब माकपाई विकास के उक्त आंकड़ों के सामने रखा जाता है तो यह उतनी विजेता रणनीति नहीं लगती जितनी वास्तव में साबित हुई है। इसीलिए मैंने मतगणना के दिन इन्हीं आंकड़ों से बनाया गया एक सवाल त्रिपुरा में भाजपा के प्रभारी के सामने रखा और पूछा कि इनके बावजूद आपने माकपा को पराजित करने में सफलता कैसे प्राप्त की? जवाब में देवधर ने जो बातें मुझे विस्तार से बताईं, वे मार्क्सवादी सरकार का एक ऐसा चेहरा हमारे सामने रखती हैं जो अभी तक छिपा हुआ था। देवधर के मुताबिक त्रिपुरा में पानी को पेयजल बनाने वाले ज़्यादातर वाटर-ट्रीटमेंट प्लांट बंद पड़े हुए हैं (इस प्रांत के पानी में आर्सेनिक और लौह तत्व बहुत अधिक हैं)। स्त्रियों को पानी लाने के लिए दूर-दूर पैदल जाना पड़ता है। भाजपा इंचार्ज का कहना था कि साक्षरता के आंकड़े पूरी तरह से दिखावटी हैं, क्योंकि प्रांत में शिक्षा और बच्चों-किशोरों के पढ़ने की क्षमताएं क़ाफी ़खराब हालत में हैं।  इसके साथ ही देवधर ने माकपा के कैडरों द्वारा की जाने वाली दाब-धौंस और ज़ोर-ज़बरदस्ती की राजनीति का बार-बार ज़िक्र किया जिसने मध्यवर्गीय बंगालियों को धीरे-धीरे क़ाफी नाराज़ कर दिया था। उनका यह आरोप पश्चिम बंगाल में माकपा कैडरों द्वारा सिंगूर और नंदीग्राम से संबंधित घटनाओं में निभाई गई भूमिका के मद्देनज़र भरोसे योग्य लगता है। दूसरे, नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर और बेरोज़गारी के बढ़े हए आंकड़ों का मुखर विरोधाभास भी आंखों में चुभता है। इनमें दस हज़ार से ज़्यादा तो आदिवासी युवक हैं। तीसरे, नौ फीसदी वृद्धि दर वाला राज्य अभी तक अपने कर्मचारियों को चौथे वेतन आयोग की तनख्वाह क्यों दे रहा है, यह प्रश्न भी अनुत्तरित रह जाता है। यही कारण है कि जैसे ही भाजपा ने सातवें वेतन आयोग की स़िफारिशें लागू करने का चुनावी-वायदा किया वैसे ही यह सुनिश्चित हो गया कि उसे साठ से सत्तर फीसदी सरकारी कर्मचारियों के वोट मिलेंगे।  सुनील देवधर ने माकपा शासन की एक ऐसी आलोचना भी पेश की जो आम तौर पर मेरे जैसे पर्यवेक्षकों की निगाह से हमेशा छिपी रही है। हम लोग मानते रहे हैं कि भाजपा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार साइकिल पर चलने वाले और सादा जीवन जीने वाले अत्यंत ईमानदार नेता हैं। देवधर ने चुनौती फेंकी कि मानिक सरकार के साइकिल पर चलने वाला एक भी दृश्य टीवी पर नहीं दिखाया जा सकता, क्योंकि यह केवल होशियारी से गढ़ा गया एक मिथक ही है। उनका कहना था कि मुख्यमंत्री के रूप में मानिक सरकार हमेशा हैलिकॉप्टर से यात्राएं करते रहे हैं और सरकार ने इस पर दसियों करोड़ रुपया खर्च किया है। वे ट्रेन से भी कभी नहीं चलते और चालीस किमी. की दूरी तय करने के लिए भी हैलिकॉप्टर का इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है कि भाजपा प्रभारी के ये दावे कुछ बढ़ा-चढ़ा कर किये गए हों, पर चुनाव परिणाम बताते हैं कि ये पूरी तरह से ़गलत नहीं हो सकते। एक बात तो तय है कि माकपा का निज़ाम उत्तरोत्तर आदिवासी आबादी से कटता जा रहा था। नृपेन चक्रवर्ती के मुख्यमंत्रित्व के दौर में माकपा के पास दशरथ देव जैसा प्रभावशाली आदिवासी नेता था जो बंगालियों और आदिवासियों का गठजोड़ सुनिश्चित कर देता था। धीरे-धीरे माकपा के पास ऐसे प्रमुख आदिवासी नेताओं का टोटा होता चला गया। उप-मुख्यमंत्री अगोर देब रमन से माकपा को इस बार दशरथ देव जैसी भूमिका निभाने की उम्मीद थी, क्योंकि 1988 में कांग्रेस के हाथों पराजित होते समय भी उन्होंने माकपा के खाते में अपनी सीट जोड़ी थी। लेकिन इस बार वे वामपंथियों के गढ़ समझे जाने वाले निर्वाचन क्षेत्र आशारामबाड़ी से बुरी तरह हार गए। पहली नज़र में ही यह समझा जा सकता है कि भाजपा ने अपनी रणनीति में आदिवासी पहलू को विशेष स्थान क्यों दिया था। वह आदिवासियों के माकपा से अलगाव को देख पा रही थी। त्रिपुरा के आदिवासियों की आत्मछवि इस प्रांत के पूर्व-शासकों की है, और बंगालियों को वे अपने अधिकारों का अतिक्रमण करने वालों की तरह देखते हैं। कभी इस प्रांत में बंगाली अल्पसंख्यक हुआ करते थे, पर धीरे-धीरे वे बहुसंख्यक होते चले गए और त्रिपुरा के मूल-निवासी अल्पसंख्यक बन गए। भाजपा ने इन आदिवासियों को पूर्व-शासकों माणिकवंशियों का उत्तराधिकारी करार दिया, और इंडीजीनियस पीपुल्स ़फ्रंट से गठजोड़ कर लिया। माकपा ने आरोप लगाया कि यह तो पृथकतावादी संगठन है, पर भाजपा का जवाब था कि अलग राज्य की मांग करने वाले संगठन को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लेकिन, इसी के साथ भाजपा को यह रणनीति बड़ी बारीकी से लागू करनी पड़ी। अगर वह खुल कर अलग आदिवासी राज्य का समर्थन करती तो बंगाली वोटर उससे नाराज़ हो सकते थे, पर उसने ऐसा नहीं होने दिया। इस तरह दो नावों में पैर रख कर भी उसने स़फलतापूर्वक चुनावी नदी पार कर ली।  कहना न होगा कि भाजपा को मिली इस कामयाबी में मार्क्सवादियों की नाकामियों और अहम मान्यताओं ने भी अपनी भूमिका निभाई है। लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि संगठन को संगठन की ताकत ने हराया है। माकपा के पास भी शक्तिशाली संगठन था, और भाजपा ने भी उसके मुकाबले का ताकतवर संगठन खड़ा करके दिखाया। फैसला जनता का रहा जो भाजपा के पक्ष में गया। अब गेंद उसके पाले में है। उसे त्रिपुरी नौजवानों को रोज़गार देना है, सरकारी कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के मुताबिक तऩख्वाहें देनी हैं और आदिवासियों को त्रिपुरा में बनाए रखते हुए उनकी समस्याओं को दूर करना है।