दिल्ली का सीलिंग संकट : समाधान केन्द्र सरकार के पास

दिल्ली इस समय सीलिंग संकट के दौर से गुजर रही है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दुकानों की सीलिंग की जा रही है। वे दुकानें कानून की नजर में अवैध हैं, क्योंकि दिल्ली नगर निगम के मानकों पर वे खरे नहीं उतरती हैं। व्यवसायिक क्षेत्रों में निर्माण के नियमों और विनियमों को उल्लंघन करके बनाए गए निर्माण में वे चल रही हैं, इसलिए उन्हें सील किया जा रहा है। आवासीय क्षेत्र में जहां व्यावसायिक गतिविधियों को चलाने की इजाजत नहीं है, वहां से व्यवसाय चलाए जा रहे हैं। वैसा करना अवैध है, इसलिए उन्हें भी बंद कराया जा रहा है।एक अनुमान के अनुसार यदि इस तरह की सारी दुकानों को बंद कर दिया जाये, तो लगभग 5 लाख दुकानें बंद हो जाएंगी। उन दुकानों में यदि औसतन तीन लोग भी काम कर रहे हैं, तो 15 लाख लोग बेरोजगार हो जाएंगे। उन 15 लाख लोगों पर यदि औसतन तीन व्यक्ति भी जीवनयापन के लिए निर्भर हैं, तो दिल्ली के 45 लाख लोगों के सामने जीवनयापन का संकट पैदा हो जाएगा। इसके अलावा उन दुकानों से जिनका लेन-देन होता है, उन सबको भी भारी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।यानी यदि सीलिंग निर्वाध चलती रही और अंत तक सभी अवैध दुकानों को बंद कर दिया गया, तो लगभग पूरी दिल्ली ही अस्त-व्यस्त हो जाएगी और लाखों लोगों के सामने जान के लाले पड़ जाएंगे। लेकिन वह समय आने में अभी देर है और उसके पहले दिल्ली में पता नहीं और क्या-क्या हो जाए। इस समय तो दिल्ली की तीनों प्रमुख पार्टियां व्यापारियों के लिए अपने आंसू बहा रही हैं और एक दूसरे पर दोष मढ़ रही है।
सीलिंग संकट की चपेट में आ रही दुकानों और दुकानदारों को राहत देने के लिए दिल्ली के मास्टर प्लान में बदलाव किया गया था। उस बदलाव को नाकाफी कहा जा रहा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस बदलाव को भी निरस्त कर दिया है और उसके द्वारा गठित एक कमेटी की निगरानी में दिल्ली नगर निगम के अधिकारी सीलिंग की कार्रवाई में व्यस्त हैं। इसके कारण प्रभावित व्यापारियों में गुस्से का पारा बढ़ता जा रहा है और वे बड़े आंदोलन की चेतावनी दे रहे हैं, वैसे उनका छिटपुट आक्रोश प्रदर्शन जारी है।दिल्ली में तीन तरह की सरकारें हैं। प्रदेश सरकार के अलावा दिल्ली नगर निगम की सत्ता है और केन्द्र शासित प्रदेश होने के कारण अंतिम सत्ता का केन्द्र तो केन्द्र सरकार ही है। दिल्ली नगर निगम और केन्द्र सरकार पर भाजपा काबिज़ है, जबकि दिल्ली सरकार पर आम आदमी पार्टी का कब्ज़ा है। सीलिंग की जिम्मेदारी को लेकर आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी नेता के बीच तू-तू-मैं-मैं चल रहा है।पर सच्चाई यही है कि सीलिंग का काम दिल्ली नगर निगम कर रहा है और नगर निगम पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी दिल्ली नगर निगम पर काबिज होने के बावजूद सीलिंग की कार्रवाई करने के लिए बाध्य है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उसे पालन करवाना है। जहां तक दिल्ली प्रदेश सरकार की बात है, तो वह इसमें कुछ खास नहीं कर सकती। मास्टर प्लान दिल्ली विकास प्राधिकरण का बनाया हुआ है और दिल्ली विकास प्राधिकरण दिल्ली सरकार नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार के अधीन है। उस मास्टर प्लान में संशोधन भी केन्द्र सरकार के इशारे पर ही हो सकता है। दिल्ली के उपराज्यपाल दिल्ली विकास प्राधिकरण के चेयरमैन हैं और वे केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि हैं। इस तरह की समस्या दिल्ली में कोई पहली बार नहीं है। पहले भी सीलिंग और डिमोलिशन के खतरे का सामना दिल्ली कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही जब आवासीय क्षेत्रों के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भारी पैमाने पर हटाया जा रहा था और गैर-कानूनी ढंग से बने भवनों को तोड़ा जा रहा था, तो अध्यादेश लाकर तब की मनमोहन सरकार ने दिल्ली के लोगों को राहत दी थी। अभी जो समस्या सामने आ गई है, उसका समाधान भी केन्द्र सरकार के पास ही है। वही अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निरस्त कर सकती है और फिर 5 लाख व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सीलिंग और डिमोलिशन से राहत दिला सकती है। प्रदेश में जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार को अंत में यही करना पड़ेगा। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अब भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं। यदि वे वास्तव में भूख हड़ताल पर बैठ गये, तो व्यापारियों का आंदोलन और भी तेज हो सकता है और तब केन्द्र सरकार पर अध्यादेश लाने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत उन्हीं दुकानों को बंद किया जा रहा है, जो दिल्ली विकास प्राधिकरण के मास्टर प्लान के खिलाफ  बने भवनों में चल रही हैं। ऐसी दुकानों की संख्या का 5 लाख होना यह बताता है कि दिल्ली में भारी पैमाने पर कानून का उल्लंघन हो रहा है। आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई?  दुकानदार कह रहे हैं कि दिल्ली नगर निगम को वे सारे टैक्स दे रहे हैं और आवासी इकाइयों को व्यावसायिक इकाइयों में तब्दील करने को कन्वर्जन चार्ज भी दे चुके हैं और कन्वर्जन टैक्स भी देते रहे हैं, फि र उनके प्रतिष्ठानों को अवैध कैसे माना जा सकता? उनका सवाल भी अपनी जगह सही है, लेकिन इसका मतलब यह है कि नगर निगम उन इकाइयों से भी टैक्स लेता है, तो अवैध रूप से चल रहे हैं। यह स्थिति निश्चय ही भयावह है। (संवाद)