रेगिस्तान में दम तोड़ती मृग-मरीचिका


हम बहुत दिन से इस चिन्ता में थे कि यह देश तरक्की क्यों नहीं कर रहा? नेता जी ने जब कहा ‘आराम हराम है’ तो इस देश के लोगों ने सुन लिया ‘काम हराम है’। अब यहां एक नई कार्य संस्कृति का विकास हो रहा है, जहां हर नेता करोड़पति है और उसके बाद उसकी गद्दी का उम्मीदवार अरबपति। लेकिन वे लोग काम क्या करते हैं? इसकी खबर हमें आज तक न हो सकी। पेशा पूछो तो कहते हैं ‘जन सेवा’। जनता भी ऐसे सेवक तलाश करती है जो उनका हर गलत काम सही करवाए। क्योंकि सही काम तो अपने आप हो जाते हैं। वहां फाइल रुक जाए तो अधिक से अधिक उसके नीचे चांदी के पहिये लगा दो।
मज़ा तो नेतागिरी का तब है, जब आपके साये तले माफिया तंत्र पले। आपकी निग हबानी गैंगस्टर करें। नौजवान पीढ़ी नशों की दलदल में फंस गयी, रेत-बजरी अवैध रूप से खोद-खोद कर बेचने के काम में लगी। एक खुदाई की मन्जूरी लो दस खोदो। बड़े नेता जी अपने उड़न खटोले से तुम्हारी कारस्तानी देख लें, तो ऐसे अवैध कामों को जड़मूल से उखाड़ फैंकने के भावुक भाषण फरमा दो, तस्करी की इस अवैध खेल में अपने प्यादे फज़र्ी बनाकर पकड़वा दो।
फिर इस देश में राम राज्य आ  गया, इस कल्पना से गद्गद् हो जाओ। अच्छे दिनों ने कितनी मात्रा तय कर ली। कभी उसे ‘उदित होता हुआ भारत’, कभी ‘चमकता भारत’। फिर ‘अच्छे दिन आयेंगे, सब जन रोटी खायेंगे’ के सपनीले नारों के साथ देश के नये प्रधान सेवक कुछ वर्ष पहले राजपाट संभाला। देश  इन वर्षों में नारों की बैसाखियों से विजयगान गाते मद्धम सुर से सप्तम पर पहुंच गया। ‘मेक इन इंडिया’ के अलाप में ‘मेड इन इंडिया’ का सुर लगा और देश के छोटे उत्पादक धनपति देशों की बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों की अंधाधुंध आयात की मार खा अपना काम-धाम छोड़ उनके डीलर बन गये।
प्रधान सेवक देश-देश गये वहां सबका मन मोह आये। अब देशी हथेलियों में विदेशों से आयातित कागज़ के फूल हैं और अपने देश के गुलाब जो कभी इसके कस्बों और छोटे शहरों की क्यारियों में गुलाब से खिलकर लघु और कुटीर उद्योग पनपाते थे, अब पस्त होकर अतीत बन गये। देश के कृषक समाज को कभी दूसरी हरित क्रान्ति के पंख देने का वायदा था, लेकिन इस पंख कटी उड़ान को खेती की खड़गभुजा कहलाने वाले राज्यों ने स्वीकार नहीं किया। उत्तर पूर्वी राज्यों में भी इसका क्रांति विमान न उतर सका।  वहां अच्छे दिन आयेगा, उनके टूटे मलबा हो रहे घरों में, उम्मीद जिन्दा है। इसलिए यह उम्मीद ही तो बार-बार उनके वोट बनती है। ई.वी.एम. मशीनों पर महामना उनके हक में अंगूठा दबता है। इस अंगूठे पर मंगल टीका कब लगेगा? देश बरसों से उसी जगह रुका क्यों है? यहां प्रगति का एक कदम आगे बढ़ता है तो उसे भ्रष्टाचार, वंशवाद, महंगाई और पतित मूल्यों की अजगर फांस क्यों घेर लेती है?  एक कदम आगे की नियति दो कदम पीछे में क्यों परिणत हो जाती है? देश के खेत फसलों के रूप में हर वर्ष भरपूर सोना उगलते हैं, लेकिन देश की भूखी-प्यासी, बेकार और कज़र्दार जनता भुखमरी के सूचकांक में और भी नीचे क्यों सरक जाती है? बार-बार यह प्रश्न उलझ जाते हैं, लेकिन विजयी नेताओं की शोभायात्राओं के कोलाहल में इनके उत्तर डूब जाते हैं। सत्ता की कुर्सियों पर प्रधान सेवकों के चेहरे बदल जाते हैं, लेकिन उस धरती पर सपनों के नखलिस्तान खड़े करने का अंदाज़ वही रहता है। नखलिस्तान की तलाश में भटकते हुए कस्तूरी मृग अपनी कस्तूरी सी मरीचिका में भटक जाते हैं। उनके लिए भोर का कोई सपना आज भी मध्य रात्रि में देखे गये किसी डरावने सपने के मानिन्द है और तुम कहते हो उजली भोर के सपने हमेशा सच होते हैं? जा रे जमाना। फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ उपन्यास भर में यही बुदबुदाता रहा बावन दास और अपनी जान से गया। हम भी सत्तर बरस की इस आज़ादी का सुबहा देने वाली सड़क पर चलते रहे और आज परिवर्तन के नाम पर मूर्तियां तोड़ने पर आमादा हो गये? एक  बूढ़ा फकीर मंजरी बजाता है, और देश के कोने-कोने में ज़िंदगी से रूठते बावन दासों को मनाता है। लेकिन वे मानते नहीं, उसके लिए उलझे प्रश्नों के सलीब खड़े हो जाते हैं। दम तोड़ता बावनदास पूछता है ‘मूर्ति ही तोड़नी थी तो उन लोगों की तोड़ते जो धर्म और जाति के नाम पर वोटों का धंधा कर सत्ता हथियाते हैं?
नशा उन्मूलन रैलियों में भाषण झाड़ने के बाद नशा माफिया की पीठ सहलाते हैं? शुचिता का राग अलापते हुए अनैतिकता के बेसुरे स्वर उठाते हैं। लेकिन बावनदास की इस असमय रागिनी को कौन सुने? उसका दम तोड़ना ही बेहतर, क्योंकि अभी खबर मिली है कि देश में अरबपतियों का नम्बर बढ़ने की संख्या एशिया में सबसे तेज़ हो गई है।