भारतीय बैंकों का असाध्य रोग बनते—निष्क्रिय खाते

भारत के विनिमय की नई दुनिया का आधार स्तम्भ है ‘अनुसूचित बैंकिंग’। यह बैंकिंग नियमित साख मंडियों में रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति और उसके दिशा-निर्देश से संचालित होती है। भारतीय बैंकिंग में इंदिरा गांधी का काल ऐतिहासिक काल है, क्योंकि इसी काल में धनपतियों, व्यावसायिक घरानों अथवा राजा-महाराजाओं द्वारा चलाये गये निजी बैंकों के पक्षपाती रवैये के कारण कुछ बड़े बैंकों के फेल होने अथवा आम जनता का रुपया डूबने के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चौदह बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इसके साथ ही रिज़र्व बैंक ने अपने कृषि प्रखण्ड को भी सक्रिय किया और विशेष निर्देश दिये कि सभी वाणिज्यिक बैंक अपनी ग्रामीण सभाओं को सक्रिय करें और ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों को सहज दरों पर कृषि ऋण उपलब्ध करवायें। इसके साथ ही सहकारिता की भावना को प्रोत्साहित करते हुए सहकारी साख समितियों से लेकर सहकारी बैंकों के समानान्तर ढांचे का विकास किया जाये। उद्देश्य यह था कि इन गांवों-कस्बों से या कृषि क्षेत्र में महाजनी क्षेत्र की अराजक ऋण व्यवस्था का वर्चस्व समाप्त हो सके। लेकिन भारतीय बैकिंग को नियमित और नियंत्रित करने के चार दशक के प्रयत्नों के बाद हम देखते हैं कि आज भी कृषि क्षेत्र और छोटे उद्यमी और व्यावसायिक वर्ग में अनियमित साख और महाजनी सभ्यता का बोलबाला है जो अपनी शोषक ब्याज दरों से देश के किसान या मध्यवर्ग व्यवसाय पर बोझ बने हुए हैं। कृषि क्षेत्र की तो यह हालत है कि आज भी आम किसान और छोटे व्यवसायी की कज़र् ज़रूरतों का दो-तिहाई भाग महाजन, कच्चे-पक्के आढ़तिये, दलाल और धनी किसान पूरा करते हैं। इनके उत्पीड़क ऋण बोझ से जहां छोटी किसानी और लघु एवं कुटीर उद्योगों का आर्थिक ढांचा चरमरा गया, वहां कज़र्ों और निर्धनता से संत्रस्त इस निम्न मध्य वर्ग में आर्थिक कुण्ठा के कारण आत्महत्या की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है। इस समय स्थिति यह है कि देश की युवा पीढ़ी अपने कृषि अथवा पुश्तैनी कुटीर उद्योगों से चिपकी नहीं रहना चाहती। इस समय खेतीबाड़ी की हालत यह है कि इस पर निर्भर रहने वाली आबादी का प्रतिशत दो तिहाई से कम होकर 49 प्रतिशत  रह गया है और इससे मिलने वाली आय सकल घरेलू आय में पचास से कम होकर उन्नीस प्रतिशत रह गई है। इसका बड़ा कारण यह है कि देश की खेतीबाड़ी और लघु एवं कुटीर उद्योग वित्त एवं आधुनिक बोझ की कमी के कारण इक्कीसवीं सदी के वैश्विक व्यवसायीकरण के तकाजों पर पूरा नहीं उतर सके। इन तकाज़ों पर पूरा न उतर पाने का बड़ा ज़िम्मेदार भारतीय बैंकों का दायित्व की कसौटी पर पूरा न उतरना है। आज रिज़र्व बैंक का कृषि ऋण प्रभाग अपंग और सहकारी बैंक पिछड़े हुए नज़र आते हैं। भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकिंग और नियमित साख मंडियों को पेपरलैस और डिजिटल बना सुगम साख का एक नया युग पैदा कर देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन राष्ट्रीयकृत और बड़े बैंकों में ऋण विस्तार प्रतियोगिता में ऐसी अन्ध दौड़ लगी कि आज एन.पी.ए. मृत अथवा निष्क्रिय खातों की मौत का संदेश की कृपा से लगभग हर बड़ा बैंक बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों का सामना कर रहा है। आम जमाकर्ताओं और ऋण चाहने वालों का विश्वास इस तरह की बैंकिंग से उठ रहा है। सभी बड़े बैंक पिछले वर्ष की तुलना में घाटा दिखा रहे हैं।
बैंकिंग के वर्तमान स्वरूप की कमर टूटती नज़र आ रही है। बड़े उद्यमी क्षेत्रों से अब तो यह मांग भी उठने लगी है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों का गैर-राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। भारतीय बैंकिंग फिर निजी क्षेत्र के हवाले कर दी जाए। ज़रूरत अपना घर-सम्भालने की है, लेकिन इसे जड़ मूल से उखाड़ फैंकने और निजीकरण की ओर लौट जाने का यह सुझाव प्रगतिशीलता के प्रतिमान पर पूरा नहीं उतरता और भारत में पूंजीवाद के बढ़ते हुए वर्चस्व को बताता है, जिसके कारण आज भारत के एक प्रतिशत अमीर 73 प्रतिशत सम्पदा पर कब्ज़ा जमाकर बैठ गये हैं और देश की गरीबी रेखा से जीती हुई चालीस करोड़ आबादी को दो जून रोटी भी मय्यसर नहीं होती। इस आर्थिक अव्यवस्था का कारण निरन्तर बढ़ता हुआ एन.पी.ए. या निष्क्रिय खातों का बोझ है। इसके ज़िम्मेदार आई.पी.एल. के ललित मोदी, विजय माल्या, नीरव मोदी और चौकसी ही नहीं, हज़ारों ऐसे छंदम पूंजीपति हैं, जो इन बैंकों का करोड़ों रुपया हथिया कर अनुपलब्ध हो गये या देश से भगौड़े हो गये। आर.बी.आई. की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल बैंकों में से सत्तर प्रतिशत सरकारी थे। इन पर एन.पी.ए. अथवा मृत ऋण का बोझ 7.34 लाख करोड़ और निजी बैंकों पर 1.03 लाख करोड़ था। स्थिति इतनी भयावह हो रही है कि 2012 में अगर सरकारी बैंकों की कुल सम्पदा का 18 प्रतिशत एन.पी.ए. था, तो 2017 में यह इन बैंकों की कुल सम्पदा का 76 प्रतिशत और कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद के अनुसार 82 प्रतिशत हो गया। लेकिन इसका समाधान सरकारी बैंकों को निजी बना देने, अथवा नियमित साख मण्डी को पूंजीपति हाथों में देने में नहीं है, बल्कि भारतीय बैंकिंग के कील कांटे दुरुस्त करने में है। आज सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि कैसे सटीक और सशक्त उपायों के साथ यह मरा हुआ धन वापस लाया जाये, और मौजूदा ऋण खातों को मरने न दिया जाए।