संघ कार्यकर्ताओं की शैली  है अनुशासन

पिछले समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक डा. मोहन भागवत ने एक सम्बोधन में कहा था—‘आर.एस.एस. तीन दिन में अपने स्वयंसेवकों को सैनिक के रूप में खड़ा कर सकता है, जबकि सेना को एक नागिरक को सानिक बनाने में 6 माह लगते हैं।’ इस वक्तव्य के प्रकाशित होते ही कांग्रेस के तारनहार नव-नियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष  राहुल गांधी ने मोहन भागवत और आर.एस.एस. के विरुद्ध यह आरोप लगाते हुए अभियान छेड़ दिया कि मोहन भागवत ने सेना को तैयार होने में 6 माह की बात कहकर सेना का अपमान किया है। यह अभियान आर.एस.एस. प्रवक्ता के इस स्पष्टीकरण के बावजूद चला कि सेना को तैयारी में नहीं, एक नागरिक को सैनिक बनाने में 6 माह लगते हैं। यानि सैनिक बनने हेतु कम से कम 6 माह की ट्रेनिंग ज़रूरी होती है। वास्तव में कांग्रेस और उस जैसे कथित धर्म-निरपेक्ष दल पूर्वाग्रह के कारण आर.एस.एस. के विरुद्ध आरोपबाज़ी करते आ रहे हैं। पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने तो स्वतंत्रता के तुरंत बाद आर.एस.एस. के विरुद्ध अभियान तक छेड़ दिया था। यहां विचार का असल मुद्दा यह है कि क्या आर.एस.एस. अपने स्वयंसेवकों को सैनिक प्रशिक्षण देता है? संक्षेप में इसका तुरंत उत्तर तो यही है कि आर.एस.एस. अपनी स्थापना के दिन से ही देशभक्त, राष्ट्र समर्पित, अनुशासित और सैनकीय प्रवृत्ति के जुझारू स्वयंसेवक तैयार करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है। 
इस तथ्य की पृष्ठभूमि को समझने के लिए आर.एस.एस. के संस्थापक डा. हेडगेवार द्वारा परतंत्रता के कारणों बारे किए गए गहन-विचार मंथन को जानना ज़रूरी है, जो बचपन से ही क्रांतिकारी मानसिकता के थे। कलकत्ता में डाक्टरी की पढ़ाई के दौरान वह नामी क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए थे। 26 वर्षीय डा. हेडगेवार जब 1915 में नागपुर लौटे तो वह कांग्रेस से जुड़ गए और जल्दी ही विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस के सचिव बन गए। 1920 के नागपुर में कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार उन्होंने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य अपनाने का प्रस्ताव रखा जो स्वीकार नहीं किया गया। उनके विचार मंथन का निचोड़ था कि कुछ कारणों से लोगों में राष्ट्रीय भावना कमज़ोर पड़ी, समाज में एकता क्षीण हुई, जातियों, अन्य समूहों, राजाओं ने अपने हितों की वरीयता दी और आपस में टकराते रहे, जिससे वे विदेशी आक्रमणकारियों के सामने परास्त हुए और देश परतन्त्र हो गया। संघ की शाखाओं में जहां अपने राष्ट्र की प्राचीनता और महानता बारे गौरव का एहसास कराया जाता है, वहीं शारीरिक क्रीड़ाएं होती हैं। यहां तक कि धीरे-धीरे सैनिकीय गणवेश में परेड आदि का भी अभ्यास शुरू किया गया। उल्लेखनीय है कि आर.एस.एस. की स्थापना 1925 के विजयदशमी के दिन हुई थी और उस दिन से प्रति वर्ष यह उत्सव शस्त्रपूजन के रूप में मनाया जाता है। आर.एस.एस. की सारी गतिविधियों से अंग्रेज़ सरकार आशंकित और भयभीत थी। इसी कारण उसने 1938 में आर.एस.एस. द्वारा सैनिक गणवेश के इस्तेमाल और परेड पर पाबंदी लगा दी मगर उसकी चिन्ता बनी रही, जिसका पता उसे प्राप्त खुफिया रिपोर्टों से चलता है जो राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित है। इसी परिप्रेक्ष में मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में स्वयं सेवकों की सैनकीय दक्षता बारे तथ्य को ही उजागर किया था। जैसी उन्होंने 1962 में चीन के आमक्रण के समय राजधानी दिल्ली में यातायात व्यवस्था को बनाए रखने हेतु दिखाई थी। आर.एस.एस. के घोर विरोधी रहे पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने इसी से प्रभावित होकर आर.एस.एस. की गणवेशधारी टोली को 1963 की गणतंत्र परेड में शामिल होने का अनूठा और अद्वितीय गौरव प्रदान किया था।