लुप्त होती हिमालय की जल-धाराएं 

हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जल-धाराएं सूखने की कगार पर हैं। इनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों की जल-धाराएं भी शामिल हैं। इन और हिमालय से निकलने वाली तमाम नदियों की अविरलता इन्हीं जल-धाराओं से प्रवाहमान रहती हैं। इन जल-धाराओं की स्थिति इस हाल में आ गई है कि अब इनमें केवल बरसाती मौसम में पानी आता है। यह जानकारी नीति आयोग के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा जल-सरंक्षण के लिए तैयार की गई एक रिपोर्ट में सामने आई है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय के अलग-अलग क्षेत्रों से पचास लाख से भी अधिक जल-धाराएं निकलती हैं। इनमें से करीब 30 लाख केवल भारतीय हिमालय क्षेत्र से ही निकलती हैं। हिमालय की इन धाराओं में हिमखंडों के पिघलने, हिमनदों का जल-स्तर बढ़ने और मौसम में होने वाले बदलावों से पानी बना रहता है। किंतु यह हाल इसलिए हुआ, क्योंकि हम हिमालय में नदियों के मूल स्रोतों को औद्योगिक हित साधने के लिए हम निचोड़ने में लगे हैं। इन धाराओं को निचोड़ने का काम बहुराष्ट्रीय कंपनियां बड़ी मात्रा में कर रही हैं। यदि इन धाराओं के अस्तित्व को पुनर्जीवित करने के ठोस उपाय सामने नहीं आते हैं तो गंगा और ब्रह्मपुत्र ही नहीं, हिमालय से निकलने वाली उत्तर से लेकर पूर्वोत्तर भारत की अनेक नदियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।   इन जल-धाराओं के सुकड़ने के कारणों में जलवायु परिवर्तन के कारण घटते हिमखंड, पानी की बढ़ती मांग, पेड़ कटने की वजह से पहाड़ी भूमि में हो रहे बदलाव, धरती की अंदरूनी प्लेट्स का धिसकना और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए हिमालय में मौजूद नदियों और जल-धाराओं का दोहन करना प्रमुख वजहें हैं। अकेले उत्तराखंड में गंगा की विभिन्न धाराओं पर 1 लाख 30 हज़ार करोड़ की जलविद्युत परियोजनाएं बनाई जाना प्रस्तावित हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो देहरादून की एक चुनावी सभा में कहा भी था, ‘कि हिमालय की नदियों में इतनी शक्ति है, कि वे सारे देश की ऊर्जा संबंधी जरूरतों की पूर्ति कर सकती हैं। यदि बेहतर तकनीक के साथ नदियों का दोहन कर लिया जाए तो पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पूरे पहाड़ी क्षेत्र के काम आ सकती है। मोदी के इस कथन के साथ जहां पर्यावरणविदों की चिंताएं बढ़ गईं थीं, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बांछें खिल गई थीं। क्योंकि अंतत: मोदी गंगा के साथ वही करेंगे जो उन्होंने गुजरात में नर्मदा के साथ किया है। यही वजह है कि अब गंगा की सहायक नदी भागीरथी पर निर्माणाधीन लोहारी-नागपाला परियोजना को फि र से शुरू करने की हलचल बढ़ गई है। दरअसल 2010 में जब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री थे, तब वे बांधों के लिए गठित मंत्री समूह समिति के अध्यक्ष भी थे। तब उन्होंने इस परियोजना को बंद करने का निर्णय ले लिया था। इसे बंद कराने में पर्यावरणविद् जीडी अग्रवाल और गोविंदाचार्य की मुख्य भूमिका थी। इसी क्रम में बंद पड़ी पाला-मनेरी परियोजना की भी शुरुआत करने की पहल हो रही है। इन परियोजनाओं के लिए पहाड़ों का सीना चीरकर अनेक सुरंगें बनाई जा रही थीं। इन सुरंगों को पूरी तरह मिट्टी से भरकर बंद करने के आदेश प्रणव मुखर्जी ने दिए थे, किंतु ऐसा न करके इनके मुहानों पर या तो दरवाजे लगा दिए गए, या फि र मिट्टी के ढेर लगा दिए गए। जबकि इन सुरंगों के निर्माण के संबंध में रक्षा विभाग ने भी आपत्तियां जताईं थीं। इन सुरंगों के बन जाने के कारण ही विष्णु प्रयाग और गणेश प्रयाग में पूरी तरह जल सूख गया है। जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जो विस्फोट किए गए, उनसे जहां हिमखंडों से ढकीं चट्टानें टूटीं, वहीं ग्लेशियर भी टूटे, उनकी मोटाई भी घटी और ये अपने मूल स्थानों से भी खिसकने लग गए। राष्ट्रीय नदी गंगा के उद्गम स्थल गोमुख के आकार में भी बदलाव देखा गया। हिमालय भू-विज्ञान संस्थान की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी के पानी का मुख्य स्रोत गंगोत्री हिमखंड तेजी से पीछे खिसक रहा है। पीछे खिसकने की यह दर उत्तराखंड के अन्य ग्लेशियरों की तुलना में दोगुनी है। अन्य ग्लेशियर जहां वार्षिक औसतन 10 मीटर की दर से पीछे खिसक रहे हैं, वहीं गंगोत्री हिमखंड की दर 22 मीटर है। इस राज्य में कुल 968 हिमखंड हैं और सभी पीछे धिसक रहे हैं। केदारनाथ त्रासदी का कारण भी गंगोत्री डुकरानी, चौरावाड़ी और दूनागिरी ग्लेशियर बने थे। ये हिमखंड पीछे खिसकने के साथ पतले भी होते जा रहे हैं। इनकी सतह 32 से 80 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही है। हिमनद विशेषज्ञ डा. डीपी डोभाल के अनुसार हिमनद पीछे खिसकने की रफ्तार जितनी अधिक होगी, इनकी मोटाई भी उसी रफ्तार से घट जाएगी। यदि इन जल-धाराओं के सरंक्षण के उपाय समय रहते नहीं किए गए तो 12 राज्यों के पांच करोड़ लोग प्रभावित होंगे। इन राज्यों में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा शामिल हैं। यहां के लोगों को पीने के पानी से लेकर रोजमर्रा की जरूरतों का पानी भी इन्हीं जल-धाराओं से मिलता है। पहाड़ों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर जो खेती होती है, उनमें सिंचाई का स्रोत भी यही धराएं होती हैं। सूखती जल-धाराएं, समाज में बढ़ती जटिलताएं और उसके समक्ष भविष्य में आने वाले पर्यावरणीय बदलाव एक चेतावनी है। हकीकत तो यह है कि ग्रामीणों की बजाय विकसित और जटिल होता समाज पर्यावरण को अधिक क्षति पहुंचा रहा है। इस जटिलता के पीछे वह कथित विकास है, जिसके तहत औद्योगिक गतिविधियों को बेलगाम बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही बढ़ता शहरीकरण और पहाड़ों को पर्यटन के लिए आधुनिक ढंग से विकसित किया जाना भी है। यह विडंबना ही है कि जो मनुष्य प्रकृति का सबसे अधिक विनाश कर रहा है, वही उसे बचाने के लिए सर्वाधिक प्रयास भी कर रहा है। सरकार और समाज के सामने विरोधाभासी पहलू यह है कि उसे ऊर्जा भी चाहिए और नदी एवं पहाड़ भी, उसे वनों से आच्छादित धरती भी चाहिए और उस पर उछल-कूद करते वन्य प्राणी भी चाहिएं। इनके साथ वे खदानें भी चाहिएं, जो मनुष्य जीवन को सुख और सुविधा से जोड़ने के साथ भोगी भी बनाती हैं। गोया, प्रकृति और विकास के बीच बढ़ते इस द्वंद्व से समन्वय बिठाने के सार्थक उपाय नहीं होंगे तो पर्यावरणीय क्षतियां रुकने वाली नहीं हैं। इन पर अंकुश लगे, ऐसा फि लहाल सरकारी स्तर पर दिख नहीं रहा है। जिस नीति आयोग ने इन जल-धाराओं के सूखने की रिपोर्ट दी है, वह भी तत्काल जल-सरंक्षण के ऐसे कोई उपाय नहीं सुझा रहा है, जिससे धाराओं की अविरलता बनी रहे। आयोग का सुझाव है कि इस समस्या से निपटने के लिए पहले तीन चरणों में एक योजना तैयार की जाएगी। इसमें पहली योजना लघु होगी जिसके तहत जल-धाराओं की समीक्षा होगी। दूसरी मध्यम योजना होगी, जिसके अंतर्गत इनके प्रबंधन की रूपरेखा बनाई जाएगी। तीसरी योजना दीर्घकालिक होगी जिसके तहत जो रूपरेखा बनेगी, उसे मौके पर क्रियान्वित किया जाएगा और परिणाम भी निकलें ऐसे उपाय किए जाएंगे। साफ  है, निकट भविष्य में केवल कागजी खानापूर्ति की जा रही है। जबकि तत्काल धाराओं के सरंक्षण के लिए औद्योगिक एवं पर्यटन संबंधी उपायों पर अंकुश लगाने की जरूरत थी ?  

        
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