परीक्षाओं में नकल रोकना ज़रूरी

हर वर्ष वार्षिक परीक्षाओं में नकल की चर्चा बहुत रहती है। एस.एस.सी. परीक्षाओं के घोटालों की धूल तो दिल्ली की सड़कों पर उड़ रही है। हजारों युवक-युवतियां अपने भविष्य की चिंता में तड़प रहे हैं। अब जयपुर राजस्थान में कांस्टेबल भर्ती की परीक्षा में नकल घोटाले की चर्चा जोर-शोर से शुरू हो गई है। किसी समय नकल करना और ट्यूशन के सहारे पढ़ना बहुत बुरा माना जाता था। आम माता-पिता बड़ी शान से कहते थे कि उनके बच्चे बिना ट्यूशन के अच्छे अंक प्राप्त करते हैं और नकल से तो दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। समय के साथ-साथ जैसे ही नैतिक मूल्यों का हृस होता गया तो शिक्षा जगत भी इसी में फंस गया। सच यह है कि शिक्षा में धार्मिक और नैतिक शिक्षा का अभाव ही विद्यार्थियों को अपने देश और समाज के जीवन मूल्यों से दूर ले जाता है। आज पूरे देश में नकल की बीमारी बुरी तरह फैल गई है। फिर भी अभी तक इस रोग से निपटने के लिए न तो कोई विशेष नीति बनी और न ही कोई ऐसा कानून बना जिसके अंतर्गत नकल करने वालों को दंडित किया जा सके। नकल का यह रोग भारत के उत्तरी राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में सबसे ज्यादा है। पंजाब भी अब पीछे नहीं रहा। यद्यपि दक्षिण भारत में भी नकल की चर्चा यदा-कदा होती ही रहती है। सामूहिक नकल की चर्चा तो रहती ही है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्य प्रदेश का व्यापमं घोटाला बना, जिसमें मैडिकल प्रवेश परीक्षा के 634 छात्राओं को हाईकोर्ट ने सामूहिक नकल का दोषी ठहराते हुए इनके दाखिले को रद्द कर दिया था। बिहार ने तो कमाल ही कर दिया। जो दो छात्र परीक्षा में राज्यभर में प्रथम आए उनकी जब पोल खुली तो यह पता चला कि वे उन विषयों के संबंध में कुछ भी नहीं जानते, जिनके अंक लेकर वे राज्य में प्रथम स्थान पर रहे। खूब चर्चा हुई। ये छात्र जेल भी गए और उस विद्यालय के मुखी भी सज़ा के भागी बने। इस वर्ष परीक्षा में नकल रोकने के लिए देश के बहुत से प्रांतों में कुछ प्रभावी कदम उठाए गए। बिहार राज्य में यह आदेश दिया गया कि परीक्षार्थी परीक्षा के लिए जूते और जुराबें पहनकर न आएं, क्योंकि जूतों में नकल के लिए पर्चियां छिपाई जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जो निश्चयात्मक सख्ती दिखाई उसका परिणाम यह मिला कि दस लाख से ज्यादा विद्यार्थी परीक्षा छोड़ गए। पंजाब सरकार के शिक्षा सचिव कृष्ण कुमार के दृढ निश्चय ने पंजाब की स्कूली परीक्षाओं से नकल नियंत्रित करने के लिए ठोस प्रयास किए। सभी विद्यार्थियों के परीक्षा केंद्र दूसरे स्कूलों में बनाए गए। अब उनके अपने अध्यापक परीक्षा में निरीक्षक नहीं बनेंगे, ऐसा फैसला लिया गया। इस कदम से प्रारंभ में बहुत हो-हल्ला मचा। अधिकतर विरोध उन अध्यापकों और स्कूलाें ने किया, जिन्होंने नकल के सहारे परीक्षा उत्तीर्ण करवाने के लिए मोटी रकम बच्चों के अभिभावकों से ली थी। सिफारिश करने करवाने वाले भी पहले दो-चार दिन हरकत में आए और उसके पश्चात् विवश होकर खामोश हो गए। मैडिकल, इंजीनियरिंग आदि के लिए प्रवेश परीक्षाओं में तो बच्चों ने तकनीक का भी सहारा लिया था।  अपने देश का समाचार है कि मैडिकल प्रवेश परीक्षा में नकल करते जो 44 छात्र पकड़े गए उनमें से अधिकतर छात्रों ने माइक्रो ब्लू-टुथ और मोबाइल सिम कार्ड का इस्तेमाल किया था। पिछले कई सालों में ऐसे छात्रों को पकड़ा गया है जो माइक्रोफोन, कैमरे वाले बटन और इयर फोन का सहारा लेकर नकल कर रहे थे। प्रश्न पत्र को स्केन करने वाली कलम की मदद से भी अब नकल की जा रही है। प्रश्न यह है कि बड़े स्तर पर स्कूलों में नकल की बुराई फैल चुकी है। कुछ वर्ष पहले शिक्षा अधिकार कानून के अंतर्गत यह आदेश दे दिया गया कि आठवीं तक किसी भी विद्यार्थी को किसी भी श्रेणी में अनुत्तीर्ण नहीं किया जाएगा। उसे अगली श्रेणी में प्रोन्नत किया ही जाएगा। विद्यार्थी स्कूल में नहीं आएं तो भी अध्यापक उन्हें डांट नहीं सकते। पाठ पढें़ या न पढें़ यह सब विद्यार्थियों की इच्छा पर छोड़ दिया गया। जब दसवीं की परीक्षा बोर्ड द्वारा ली जाती तब अधिकतर छात्र आवश्यक योग्यता से बहुत पीछे रह जाते थे। विद्यार्थी असफल हो जाएं तो उसका दंड अध्यापकों को भोगना पड़ता है। इस दंड से बचने के लिए भी बहुत से अध्यापक नकल करवाने में सहयोगी बने। सवाल यह है कि नकल को रोका कैसे जाए? नकल रोकना राष्ट्रहित में है। बैसाखियों के सहारे चलने वाले और शॉर्टकट से परीक्षाओं में सफलता पाने वाले जीवन में किसी भी प्रतियोगिता का सामना नहीं कर सकते।  बड़ी डिग्रियां हाथ में लेकर भी वे योग्यता से रहित होते हैं। भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी बच्चे निश्चित समय स्कूल में आएं, शिक्षा पाएं और उनकी आर्थिक कमियां सरकार पूरी करे। हालत तो यह है कि यूनिफॉर्म देने की सरकारी घोषणा पूरा वर्ष लटकती रहती है और वर्ष के अंत में आधे-अधूरे फंड जारी करके छात्रों के साथ मजाक किया जाता है। दोपहर का भोजन बहुत बढ़िया योजना है, लेकिन योजना जितनी बढ़िया, खाना अधिकतर उतना ही घटिया मिलता है। ऐसे बहुत बच्चे देखें जो स्कूल का वह खाना पसंद नहीं करते। वे बच्चे भी स्कूलों में हैं जो मिड-डे-मील पसंद तो नहीं करते लेकिन गरीबी और भूख की मजबूरी में खाते हैं। पूरे देश के स्कूलों में लाखों अध्यापकों की कमी है और पंजाब में ठेके की भर्ती करके थोड़ा वेतन देकर जो क्रूर मजाक अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के साथ किया जा रहा है उसके साथ तो कभी भी नकल और रिश्वत का रोग समाप्त किया ही नहीं जा सकता। हर राज्य की अपनी शिक्षा नीति होनी चाहिए। सत्ता और सरकार बदलने के बाद भी नीति तो वही रहनी चाहिए। वैसे तो कुछ विषयों और भाषा को छोड़कर पूरे देश में एक शिक्षा नीति हो जिससे देश एक निश्चित दिशा में आगे बढ़े। क्या सरकार बता सकती है कि विकसित देशों में शिक्षा पर कितना धन खर्च किया जाता है? समर्थ लोग अपने बच्चों को सरकारी शिक्षा की छाया से दूर रखते हैं। उनके बच्चों को जो शिक्षा और जैसा सर्वांगीण विकास मिलता है उसकी तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे कल्पना नहीं कर सकते। होना यह चाहिए कि गरीबी-अमीरी के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में समाज को न बांटा जाए, अपितु उस शिक्षा पद्धति को हम अपनाएं जहां श्रीकृष्ण और सुदामा एक जैसी शिक्षा पाते थे। आज दरिद्र नारायण के स्कूल अलग हैं और लक्ष्मी नारायण के लिए शिक्षा संस्थान अलग बनाए गए हैं। उन करोड़ों बच्चों का तो कोई नाम ही नहीं लेता जो कभी स्कूल की दहलीज पार ही नहीं कर पाए और सूर्य की पहली किरण से पहले वे ईंट के भट््ठों में, बीड़ी के कारखानों में, चाय की दुकानों में काम करते अथवा कूड़े के ढेर से अपने तथा परिवार के लिए रोटी चुनते हैं। शिक्षा शास्त्री और राजनेता बताएं कि शिक्षा और रोटी से वंचित ये बच्चे तथा युवा कैसे देश का भविष्य बन पाएंगे जिनका अपना ही कोई वर्तमान नहीं।