अतिशय लोभ ही हानि और दुख का है कारण 

एक पुरानी घटना है। किसी व्यक्ति ने अपने यहां एक भोज का आयोजन किया। पहले ऐसे अवसरों पर लोग आस-पड़ोस से बर्तन मांग कर काम चलाते थे। किसी के घर बड़ा पतीला होता था तो किसी के घर बड़ी टंकी। उस आदमी ने भी पड़ोसियों से बर्तन इकट्ठे किये और मित्रों को दावत दी। अगले दिन सबके बर्तन भी लौटा दिये और साथ ही सभी बड़े बर्तनों के साथ उन्हीं बर्तनों जैसा एक छोटा बर्तन भी  भिजवा दिया। उसने कहा कि रात को तुम्हारे बर्तनों ने बच्चे दे दिये हैं सो ये बच्चे भी तुम्हारे ही हुए। पड़ोसी खुश। हर बर्तन के साथ मुफ्त में एक छोटा बर्तन भी मिल गया। पतीले के साथ लोटा तो कड़छी के साथ चम्मच। कुछ दिनों बाद वह व्यक्ति अपने यहां दावत के बहाने फिर पड़ोसियों के घर गया और बर्तन उधार देने के लिए कहा। पड़ोसियों ने खुशी-खुशी अपने सारे बर्तन उसे उधार दे दिये। कइयों ने तो अपने घर के सारे बर्तन उनके हवाले कर दिये। बड़े-बड़े ही नहीं, छोटे-छोटे बर्तन भी लोग खुद उसके घर पहुंचा आए। उसने सब बर्तनों को एक कमरे में रखवा दिया। कुछ दिनों बाद जब लोग अपने-अपने बर्तन वापस लेने उसके घर पहुंचे तो उसने वह कमरा जिसमें सारे बर्तन रखवाए थे, खोलकर दिखाते हुए कहा कि रात को सारे बर्तन बच्चे देते समय भगवान को प्यारे हो गए। सभी एक रात में ही चल बसे। अब मैं कहां से लौटाऊं तुम्हें वे बर्तन।
लोग रो-पीट कर रह गए। अब उसकी बात झुठलाएं भी तो कैसे क्योंकि पहली बार जब उसने बर्तनों के साथ उनके पैदा हुए बच्चे भी दिये थे तो किसी ने उसका विरोध नहीं किया था। लालच के वशीभूत होकर एक असंभव बात को नकार नहीं पाए थे। लोभ का यही परिणाम होता है। मोटे ब्याज के लालच में मूलधन से भी हाथ धो बैठते हैं। लालचवश पहले तो गलत या अस्वाभाविक बात का विरोध नहीं कर पाते परन्तु जब भारी नुक्सान हो जाता है, तब विरोध करना संभव नहीं होता क्योंकि हम स्वयं उपहास के पात्र बन जाते हैं। लोभ के दुष्चक्र में फंसकर डूब न जाएं, इसके लिए अत्यंत सावधान रहने की ज़रूरत है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम सामान्य बुद्धि का प्रयोग करते हुए गलत चीज का शुरू से ही विरोध करें और उससे दूर रहें। यदि हम छोटे-मोटे लालच में नहीं पड़ेंगे तो सदा के लिए बड़े धोखों और नुक्सान से बचे रहेंगे। लोभवृत्ति ही नहीं अपितु मुफ्त लाभवृत्ति, आत्मप्रशंसा तथा खुशामद कराने की आदत, अहंकार तथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाना ऐसी आदतें हैं, जो एक दिन हमारे पतन का कारण बनती हैं। अतिशय लोभ की प्रवृत्ति से बच कर ही हम इन दुर्गणों से बचे रहकर सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।