हिरासती अत्याचार के विरुद्ध प्रभावी कानून की ज़रूरत

इस लेख द्वारा मैं आपका ध्यान इस तरफ दिलाना चाहता हूं कि संविधान में मानवीय जीवन के मान-सम्मान की जो गारंटी दी गई है, उसको और ज्यादा ठोस बनाने के लिए हिरासती अत्याचार के विरुद्ध कानून बनाये जाने की बहुत ज्यादा ज़रूरत है। इस विषय ने गत कई दशकों के दौरान राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया है। हम मानवाधिकारों के प्रति अपनी वचनबद्धता तथा कानून के शासन पर बहुत गर्व करते हैं, फिर भी हम हिरासती अत्याचार के विरुद्ध कोई प्रभावशाली कानून बनाने में सक्षम नहीं हुए। हालांकि मेरी ही अध्यक्षता में राज्यसभा की सिलेक्ट कमेटी ने 2010 में इस उद्देश्य की सिफारिश की थी और मानवाधिकार आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी। अक्तूबर 2017 में कानून आयोग ने अपनी 273वीं रिपोर्ट में एक बार फिर इसी सिफारिश को दोहराया था। सिलेक्ट कमेटी में अलग-अलग पार्टियों से संबंधित 13 सांसद शामिल थे, जिन्होंने हिरासती अत्याचार विरोधी कानून बनाने के लिए एक मसौदा तैयार करने के बारे में लम्बी-चौड़ी चर्चा की थी। केन्द्र सरकार अलग-अलग राज्य सरकारों के संबंधित मंत्रालयों के साथ-साथ कई विशेषज्ञों के विचार लिए गए थे। ऐसी 80 प्रस्तुतियों तथा ज्ञापनों के साथ-साथ कुछ देशों में मौजूदा अत्याचार विरोधी कानूनों का भी अध्ययन किया गया था। गहन विचार-विमर्श तथा सुनवाइयों के बाद कमेटी ने ‘अत्याचार रोको बिल 2010’ का सुझाव दिया था। इस मसौदे को संयुक्त राष्ट्र की अत्याचार विरोधी कन्वैंशन का अनुसरण माना गया था। 
2016 में एक जनहित याचिका दायर होने के बाद सरकार द्वारा पेश किया गया पक्ष कानून आयोग की अक्तूबर 2017 वाली सिफारिश के रूप में सामने आया था। 22 नवम्बर, 2017 को अपनी अंतिम सुनवाई के समय सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल द्वारा दिए गए इस विश्वास कि सरकार हिरासती अत्याचार के विरुद्ध बनने वाले समूचे कानून की वकालत करने वाली कानून आयोग की अक्तूबर, 2017 वाली रिपोर्ट पर गम्भीरता से विचार कर रही है, इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका का निपटारा कर दिया था और अब यह सरकार के ज़िम्मे है कि वह इस संबंधी कानून बनाए। ‘एक नागरिक और पूर्व सांसद के तौर पर मैं मानव मान-सम्मान को इसके समूचे पहलुओं के लिहाज़ से मज़बूत करने के लिए वचनबद्ध हूं। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं कि सिलेक्ट कमेटी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा कानून आयोग के प्रस्तावों की पुष्टि की जाए ताकि कम से कम गणतंत्र के 69वें वर्ष में भारतीय राष्ट्र हिरासती अत्याचार के विरुद्ध कानून बना सके और यह सुनिश्चित बनाया जाए कि हिरासत में भी देश के नागरिक अपने मानवीय सम्मान से वंचित न हों। लगभग हर रोज़ होने वाली हिरासती घटनाएं यह दर्शाती है कि लाचार लोगों पर पुलिस हिरासत में अत्याचार जैसे घिनौने अपराध ज्यों के त्यों जारी हैं। कुछ उदाहरण तो ऐसे हैं, जो शरीर को झकझोर देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐलान किया है कि अत्याचार संविधान की धारा 21 का उल्लंघन है। यह धारा कहती है, ‘... जब भी मानवीय सम्मान को ठेस पहुंचती है तो सभ्यता गिरावट की दिशा में एक कदम और पीछे चली जाती है, ऐसे समय मानवता का झण्डा हर समय आधा झुका रहना चाहिए...।’ इसके बावजूद हिरासती अत्याचार मानवीय मान-सम्मान के संवैधानिक वायदे का मुंह चिढ़ाते हैं।’यह उल्लेख करना यहां बहुत उपयुक्त होगा कि सरकार ने बार-बार अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ऐलान किया है कि वह अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वैंशन की पुष्टि का रास्ता आसान बनाना चाहती है। नि:संदेह भारत में 1997 में ही इस कन्वैंशन पर हस्ताक्षर कर दिए थे परन्तु देश में इस संबंधी कोई उपयुक्त कानून न होने के कारण हम इस कन्वैंशन के न्यूनतम मापदंडों पर भी खरे उतरने के योग्य नहीं हुए। गत कई वर्षों के दौरान संयुक्त राष्ट्र द्वारा समय-समय पर की जाने वाली समीक्षा बैठकों में यह देखा गया है कि हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को दिए बचनों पर 20 वर्षों के बाद भी खरे नहीं उतर सके। 161 देश इस कन्वैंशन की पुष्टि कर चुके हैं, वहीं भारत अभी भी उन मुट्ठी भर देशों में शामिल है, जो इसकी पुष्टि नहीं कर सके, जैसे कि अंगोला, बहामास, ब्रूनेई, कोमोरस, जाम्बिया, हेती, पलाओ तथा सूडान। यह तथ्य स्वयं बहुत कुछ बयान करता है। 
आप मेरे साथ सहमत होंगे कि हिरासती अत्याचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र की कन्वैंशन की पुष्टि करने में भारत की नाकामी ने भी मानवाधिकारों तथा कानून के शासन की स्थापना के प्रति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हमारी वचनबद्धता पर उंगली उठाने का अवसर दिया है। इस मुद्दे पर लापरवाही ने हमें मानवीय सरोकारों के पक्ष से वंचित कर दिया और भारत के विरुद्ध गम्भीर अपराधों को अंजाम देने वाले किम डेवी तथा अबू सलेम जैसे अपराधियों ने भारतीय जांच प्रक्रिया को भटकाने का रास्ता ढूंढ लिया। उन्होंने यह भी दोष लगाया कि हिरासत में उन पर अत्याचार होने का खतरा है। कानूनविदों और विद्वानों ने दृढ़ता से ऐसे कानून का पक्ष लिया है, जो हिरासती अत्याचार के विरुद्ध सुरक्षा दे। जब हम यह देखते हैं कि हमारी सभ्यता के मूल्यों के अनुसार मानवीय मान-सम्मान हमारे संविधान का एक बुनियादी स्तम्भ है, जिसकी पवित्रता सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और भारत के कानून आयोग के साथ-साथ संसद की सिलेक्ट कमेटी ने भी बार-बार सुनिश्चित बनाई है, तो ऐसा करना और भी ज़रूरी हो जाता है। भारत के लोग यह उम्मीद रखते हैं कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार और संसद में उनके प्रतिनिधि लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करेंगे। वास्तव में मानवीय सम्मान ही मानवाधिकारों में शिखर पर होता है और यह एकमात्र राजनीतिक, नैतिक कल्पना है, जिसको अधिकारों के इस युग में सभी तरफ से मान्यता मिली हुई है। हमारे संविधान में ‘आत्म-सम्मान और सभी का सम्मान’ दो ऐसी बातें हैं, जिन पर कोई सौदेबाज़ी नहीं की जा सकती। हिरासती अत्याचार के विरुद्ध आज़ाद और मुकम्मल कानून के पक्ष में सचमुच ही बहुत ज़ोरदार दलीलें मौजूद हैं। 

—पूर्व केन्द्रीय मंत्री