अप्रासंगिक होती जा रही हैं वामपंथी पार्टियां

10 वर्ष पूर्व 2008 में मुझे रोम में अ़फगानिस्तान युद्ध से संबंधित सम्मेलन में भाषण देने के लिए बुलाया गया। यह सम्मेलन यूरोपियन सोशलिस्ट पार्टी के विचार मंडल द्वारा करवाया गया था। इस मंच पर यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों की राष्ट्र स्तरीय सामाजिक-लोकतांत्रिक पार्टियां एकत्रित हुईं थीं। इटली की डैमोक्रेटिक पार्टी, जोकि पूर्व इटालियन वामपंथी पार्टी की उत्तराधिकारी है, इस सम्मेलन की मेज़बान थी। इटली के उस दौरे पर मैं दो अमूल्य यादों के साथ वापिस लौटा और उनको अपने दिमाग के सुरक्षित हिस्से में सम्भाल लिया। पहली सिसटाइन चैपल जाना और स्वयं का मंथन करना। लम्बे समय से चला आ रहा सपना पूरा हो गया था। दूसरी थी इटली के मेज़बानों द्वारा आयोजित किए गए रात के खाने समय हुई खूबसूरत बातचीत। यह सुनने के बाद कि मेरे पिता कामरेड रहे हैं और मैं भारतीय विदेश सेवा की सबसे संवेदनशील इकाई का प्रमुख हूं, जोकि पाकिस्तान के साथ संबंधित मुद्दों को देखती है, मेरे मेज़बान ने प्रशंसा करते हुए कहा कि इटली के वामपंथियों ने भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में मौजूद आज़ादी बारे हमेशा भारतीय कामरेडों से चर्चा की है, जहां सैकड़ों विचारों को बढ़ने-फूलने की आज़ादी दी जाती है। मेरे मेज़बान उस समय का निरीक्षण करने लगे जब शीत युद्ध के बाद वामपंथी पार्टियों के अस्तित्व को खतरा बना और सोवियत यूनियन का भंग होना कम्युनिज़्म की मौत के रूप में देखा जाने लगा। इटली की 70 वर्ष पुरानी वामपंथी  पार्टी ने 1991 में फैसला करते अपनी आगे की यात्रा को वामपंथी नीति से बदल कर लोकतंत्र में तबदील कर लिया और स्वयं को पुन: स्थापित किया।
यह बहुत ही दृढ़ फैसला था, क्योंकि इटली में 1987 में हुए चुनावों के समय वामपंथी पार्टी को 27 प्रतिशत मत मिले थे। फिर भी, लीडरशिप ने महसूस किया कि उनको इस दौर में यूरोपियन कम्युनिज़्म को बचाए रखने के लिए बदलना पड़ेगा। नई बनी दक्षिण पंथी डैमोक्रेटिक पार्टी ने 1996 में 21 प्रतिशत मतों के साथ अपनी सरकार बनाई। इस विजेता गठबंधन को ‘ओलिव ट्री’ के रूप में जाना जाने लगा।
मेरे मेज़बान ने दुख व्यक्त किया कि भारतीय वामपंथी पार्टी को भी ऐसे प्रयासों की ज़रूरत है जिससे वह समय की साक्षी बन सके। उन्होंने सुचेत करते हुए कहा कि स्वयं में बदलाव न लाना ़खतरनाक है, ़खास तौर पर जब सभी तरफ सभी कुछ राजनीतिक और सामाजिक स्तर बहुत तेजी से बदल रहा है। इस दोस्ताना बातचीत ने मेरे दिमाग को परेशान किया जब गत दिनों त्रिपुरा में वामपंथी सरकार का पतन हुआ। चाहे,  चुनाव के समय हुई हार वामपंथियों के लिए कोई नई नहीं थी। त्रिपुरा में वे पहले भी ऐसी हारों को देख चुके हैं। यह तो साफ तौर पर ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी का यह मानना है कि त्रिपुरा में हुई जीत ‘विचारों की जीत’  है केवल एक भ्रम ही है। इसका सीधा-सीधा सच तो यह है कि मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा शुरू किए गए पैसों के खुले प्रयोग का वामपंथी सामना नहीं कर सके और न ही उनके द्वारा वोटों के नज़रिये से बनाए गए गठबंधन का मुकाबला वामपंथियों से हो सका। पिछले कुछ समय से कहा जा रहा है कि वामपंथी पार्टियां अपने जनाधार को अन्य पार्टियों के हाथों से गंवा रही हैं जबकि वास्तविकता यह है कि देश लगातार बदलाव के दौर में से गुज़र रहा है और इस समय राजनीतिक पार्टियां खास तौर पर वामपंथी पार्टियों को ज़रूरत है कि वे स्वयं को बदलेें और पुन: जीवित हों। तुलनात्मक तौर पर भाजपा के सफल होने का कारण समाज की बढ़ती अकांक्षाओं के अनुसार स्वयं को ढालना है। परन्तु दूसरी तरफ वामपंथियों की सीमित सोच और एक ही विचारधारा को अपनाए रखना और विगत एक दशक में भारतीय समाज में आए बदलाव को समझना भी वामपंथी पार्टियों के अवसान का एक मुख्य कारण है। चाहे वह अपनी विचारधारा के प्रति दृढ़ और अनुशासित हैं परन्तु महत्त्वपूर्ण यह है कि वामपंथी पार्टियां अपना अस्तित्व खो रही हैं। उनकी विचारधारा पर अंगुली उठाई जा रही है। चाहे वामपंथी पार्टियां अपने सिद्धांतों पर लोगों के लिए संघर्षशील होना का दावा करती हैं परन्तु समाज की उम्मीदों और ज़रूरतों के अनुसार ये प्रासंगिक नहीं रहीं। त्रिपुरा चुनावों के परिणामों में एक बात जो उम्मीदों और ज़रूरतों से अधिक उभर कर सामने आई, वह थी एक छोटा-सा शब्द रोज़गार। त्रिपुरा में वामपंथी सरकार और इसके मुख्यमंत्री की लोगों के प्रति ज़िम्मेवारी, पारदर्शिता और मान-सम्मान को काफी सराहा जाता रहा था। चिंता की बात यह है कि बेरोज़गारी की गम्भीर स्थिति के पक्ष से त्रिपुरा का नाम लिस्ट में ऊपर ही आता है। (मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)