इज्ज़त का जनाजा

वैसे तो जब से इस गृहस्थी की गाड़ी का स्टीयरिंग संभाला है, तभी से उधार अपनी ज़िंदगी की हकीकत बन गया है लेकिन उधार मांगने वालों ने जब मेरे दरवाज़े की कुंडी कुछ ज्यादा जोर से खटकानी शुरू कर दी तो मैडम मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गयीं, ‘क्यों जी! अब क्या अपनी बेइज्ज़ती करवा के ही दम लोगे? जब बाल बच्चों को पालने की कूवत नहीं थी तो क्यों की शादी और क्यों पैदा किये इतने बच्चे?’ पहली बार मैडम के मुंह से जब ये शब्द सुने तो पता लगा कि इस नाचीज की ज़िंदगी में इज्ज़त नाम की भी कोई चीज़ है। वैसे अभी तक तो अपुन की यही मान्यता रही कि यह इज्ज़त नाम की चीज कुछ खास किस्म के लोगों के पास ही होती है। मैंने कहा-मैडम, जब अपने पास इज्ज़त नाम की कोई चीज़ है ही नहीं तो क्या इज्ज़त और क्या बेइज्ज़ती? ज्यादा से ज्यादा कर्जा मांगने वाला थोड़ा भला-बुरा कह देगा या चार गाली दे देगा। इतने से अपना क्या बिगड़ जायेगा? तो क्या मैं इतने समय से एक बेइज्ज़त आदमी के साथ रह रही हूं।
और नहीं तो क्या? जब खुदा ने ही हम पुरुषों के साथ इज्ज़त बांटते वक्त पक्षपात किया है तो इसमें मेरी क्या गलती है? क्या कहा! तुम्हें ऊपर वाले ने बेइज्ज़त पैदा किया है? तो क्या मैं झूठ कह रहा हूं? उसने सारी इज्ज़त तो तुम औरतों के खाते में डाल दी, आदमी के लिये तो उसने इज्ज़त का एक कतरा भी नहीं बख्शा। क्या वाहियात बात करते हो? अपनी नाकामी का ठीकरा उस ऊपर वाले के सिर क्यों फोड़ते हो? यह क्यों नहीं कहते कि अपनी काहिली छिपाने की खातिर तुमने खुद को इज्ज़त प्रूफ बना लिया है।
नहीं मैडम! यह मेरे विचार नहीं बल्कि सारे जमाने के ख्यालात हैं।  एक आम आदमी की क्या इज्ज़त है। घर से निकले तो चौराहे पर कोई सिपाही चार गाली देकर उसकी जेब से सौ का नोट निकलवा सकता है। गली मोहल्ले का कोई भी गुंडा गिरेबान पकड़कर दो हाथ रसीद कर सकता है। आफिस में जाये तो चपरासी की दुत्कार और किसी तरह अन्दर पहुंच गया तो अफसर की फटकार ही उसे नसीब होती है। कोई भी नेता उसे सपनों का महल दिखाकर वोट हासिल करके रफूचक्कर हो जाता है और पांच साल उसकी कमाई पर खुद ऐश करता है और उसे उसके हाल पर छोड़ देता है। उसे कभी गैस की किल्लत, तो कभी डीजल या पेट्रोल की किल्लत होती है। कभी खाद का संकट तो कभी बीज का संकट झेलना पड़ता है ऐसे में एक आम आदमी के लिये इज्ज़त की कल्पना ही बेकार है। फिर यह इज्ज़त का जनाजा कुछ खास लोगों का ही निकलता है जैसे कोई नेता करोड़ों के घपले करके इज्ज़त का बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लेता है। एक दिन सी.बी.आई. उसके कारनामों का काला चिट्ठा पब्लिक के सामने पेश करती है तो लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि अमुक नेता की इज्ज़त का जनाजा उठ गया। उनका यह भ्रम उस समय दूर हो जाता है जब कोर्ट इसे बाइज्ज़त बरी कर देता है। इसी तरह जैसे कोई बड़ा आदमी अपने घर की बेटी पर तरह-तरह की पाबंदी लगाता है कि वह घर से नहीं निकलेगी या किसी से मेलजोल नहीं बढ़ाएगी लेकिन जब यह लड़की किसी सड़क छाप मजनूं के साथ फुर्र हो जाती है तो लोग कहते हैं कि फलाना आदमी की इज्ज़त मिट्टी में मिल गयी। ऐसे हादसे उन्हीं के साथ होते हैं जो इज्ज़त को लेकर कुछ ज्यादा ही जागरूक होते हैं। मेरे जैसे साधारण लोग तो पहले से ही खुद को इज्ज़त से बरी मान लेते हैं। अब जब हमारे पास जो चीज़ है ही नहीं तो किसका जनाजा निकलेगा? और क्या चीज़ मिट्टी में मिलेगी? हमें तो ईश्वर ने ही बेइज्ज़त पैदा किया है तो इस दुनिया से क्या गिला करें? इसलिए इस इज्ज़त या बेइज्ज़ती के चक्कर में हमारा उलझना बेकार है। (अदिति)