असम में गैर-कानूनी प्रवास  विवाद को हल करने के लिए हो रहे हैं सही प्रयास

राज्य और केन्द्र सरकारों ने गत चार दशकों से वोट बैंक की राजनीति के लिए बंगलादेश से हो रही ़गैर-कानूनी घुसपैठ के मुद्दे को राजनीति के ़खतरनाक खेल से जोड़ दिया है। हालांकि 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने असम में 1951 में नैशनल रजिस्टर्ड ऑफ सिटीज़न्स (एन.आर.सी.) द्वारा दिए गए आदेश पर पुन: ध्यान देने के लिए कहा था। इसका मुख्य उद्देश्य असम में बसते भारतीयों की पुष्टि करना था, ताकि ़गैर-कानूनी तौर पर रह रहे व्यक्तियों का पता लगाया जा सके और उनके नाम असम की चुनाव सूची से हटाए जा सकें।  जांच-पड़ताल की प्रक्रिया की सच्चाई के बारे में संदेह जताए जा चुके हैं, क्योंकि सूची में नाम दर्ज करने की प्रक्रिया में कुछ अनियमितताएं हैं। वहीं एक गलत एजेंडा होने का दोष भी लगाया जा रहा है कि प्रवास का मुद्दा सिर्फ राजनीतिक है ताकि क्षेत्रीय वोटों को लामबद्ध किया जा सके। अप्रत्यक्ष तौर पर यह दर्शाया जा रहा है कि एन.आर.सी. की पड़ताल एक व्यर्थ प्रक्रिया है या फिर खास तौर पर असम में कोई ़गैर-कानूनी बंगलादेश प्रवासी नहीं हैं। 1984 में, सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई, जिसमें असम की 1979 की मतदाता सूची तथा 1983 के विधानसभा चुनावों को चुनौती दी गई थी। भारत के चुनाव आयोग ने 1971 की मतदाता सूची को आधार बना कर इसकी जांच-पड़ताल शुरू की। 1.5 करोड़ मतदाताओं की जांच की गई और यह सामने आया कि 1971 की मतदाता सूची के 35 लाख नामों के बारे में कुछ भी पता नहीं चला। चाहे कुछ सवाल खड़े होने के बाद इसकी संख्या घट कर 10 लाख रह गई परन्तु यह साबित हो गया कि कुछ क्षेत्रों में ़गैर-कानूनी प्रवासियों की राज्य में भरमार हुई है। 1971 के बाद, खास तौर पर 1981 के बाद असम की चुनाव सूची तथा जनसंख्या की जनगणना में सामने आया कि मतदाताओं तथा जनसंख्या में बेहिसाब वृद्धि हुई। महत्त्वपूर्ण यह है कि यह वृद्धि बंगलादेश की सीमा के साथ लगते ज़िलों में दर्ज की गई। परन्तु जनसंख्या माहिर और विश्लेषक इसको किसी भी तरह की सीमा पार की घुसपैठ नहीं मानते थे। 1971 के बाद असम की धार्मिक और भाषायी पहचान में बदलाव आना शुरू हुआ। मुस्लिम आबादी लगातार बढ़ती चली गई। 1971 में 24 प्रतिशत से बढ़ कर 1991 में 31 प्रतिशत हो गई। जबकि 2011 में यह 34.7 प्रतिशत हो गई। अंकों के हिसाब से 1951 से लेकर 1971 के बीच मुस्लिम आबादी में 16 लाख की वृद्धि हुई और 1971 से 1991 के बीच 27.81 लाख और 1991 में से 2001 तक 18.61 लाख और 2001 से लेकर 2011 के बीच 26 लाख की वृद्धि हुई। भारत में यह सबसे ज्यादा तेज़ी से हुई वृद्धि है। भाषा का आधार पर बंगाली भाषा बोलने वाली आबादी में असाधारण वृद्धि हुई जो 1971 में 19 प्रतिशत से बढ़ 2001 तक आते-आते 30 प्रतिशत हो गई। चाहे असमी और नेपाली भाषा बोलने वालों की संख्या कम हुई है परन्तु हिन्दी भाषायी तथा अन्यों की आबादी में थोड़ी-सी वृद्धि दर्ज की गई। असम के धार्मिक और भाषायी क्षेत्र में यह बदलाव सबसे अधिक भारत-बंगलादेश की सीमा के साथ लगते ज़िलों में देखने को मिला। माहिरों का मानना है कि इसका मुख्य कारण बंगलादेश से हो रहा ़गैर-कानूनी प्रवास है। 1996 में बंगलादेश की जनगणना में सामने आया कि देश में से 80 लाख लोग गुमशुदा हैं या फिर उनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। 2013 में संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक तथा सामाजिक मामलों के विभाग ने रिपोर्ट पेश की जिसके अनुसार 32 लाख बंगलादेशी भारत में प्रवास कर चुके हैं। ढाका के प्रसिद्ध अर्थ-शास्त्री और प्रशासनिक माहिर के अनुसार 1964 से 2012 के बीच धार्मिक अत्याचार के डर से पूर्वी पाकिस्तान अब (बंगलादेश) से लगभग 1.10 करोड़ हिन्दुओं ने प्रवास किया था। उनका लक्ष्य अधिक आबादी वाले पश्चिम बंगाल के स्थान पर कम आबादी वाले उत्तर पश्चिमी राज्य थे। 1983 में बनाए गए एक्ट ‘इललीगल माइग्रेंट्स डेटरमीनेशन’ ने भी प्रवास को उत्साहित किया था। 1946 का विदेशी एक्ट, जोकि भारत में लागू है, के अनुसार नागारिकता का प्रमाण दिखाने की ज़िम्मेदारी स्वयं प्रवासी की है जबकि आई.एम.डी.टी. एक्ट, जो सिर्फ असम राज्य में ही लागू है, के अनुसार सबूत पेश करने की ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता की है। इससे ़गैर-कानूनी प्रवासियों के बारे में पता लगाना मुश्किल हो गया, क्योंकि ़गैर-कानूनी प्रवासी नकली दस्तावेज़ों की सहायता से अपनी नागरिकता साबित करते आ रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2005 में इस एक्ट को समाप्त कर दिया गया। असम में भारतीय नागरिकों की नागरिकता को प्रमाणित करने वाली संस्था नैशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीज़न्स (एन.आर.सी.) को लोगों द्वारा बहुत ज्यादा सहयोग दिया गया है। कुल 68.27 लाख परिवारों द्वारा 3.29 करोड़ याचिकाएं दाखिल की जा चुकी हैं। यह एक बहुत ही बड़ा और मुश्किल कार्य है। खास तौर पर जब बड़ी संख्या में दस्तावेज़ नकली होने की सम्भावना हो। अब तक 48 लाख जाली दस्तावेज़ों की पुष्टि की जा चुकी है। जिस मुद्दे को विदेशी एक्ट, 1946 के तहत सही राजनयिक पहलकदमियों से हल कर लेना चाहिए था, उसको राजनीति ने  अपनी उपयोगिता के लिए विवादास्पद बना दिया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश, जिसके तहत एन.आर.सी. को अपनी रिपोर्ट के लिए 30 जून, 2018 तक का समय दिया गया है। इसका भाषा, सामाजिक, धार्मिक, या नस्ली जुड़ावों से ऊपर उठ कर सचेत नागरिकों द्वारा इसका स्वागत किया गया है। दशकों पुराने विवाद को समाप्त किया जा सके। खास बात यह है कि 1951 में जब पहली बार एन.आर.सी. बनाया गया था, उस समय अविभाजित असम में 80 लाख भारतीय नागरिक ही थे। (मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)