पंजाब की आर्थिकता को मज़बूत करने के लिए साहस भरे कदमों की ज़रूरत

पंजाब का नया बजट पेश हो चुका है। परन्तु इसमें कुछ भी क्रांतिकारी नहीं। हालांकि पंजाब के वित्त मंत्री स. मनप्रीत सिंह बादल से यह उम्मीद की जाती थी कि वह पंजाब की आर्थिकता को कोई नया प्रोत्साहन देने के लिए कुछ नए साहस भरे कदम उठा सकते हैं। खास तौर पर सब्सिडियां कम करने की ओर उनका कोई रुझान होने की उम्मीद की जा रही थी। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह पंजाब की पूर्व अकाली-भाजपा सरकार द्वारा शुरू की गई लोक लुभावन योजनाओं के जाल से निकलने का हौसला नहीं कर सके। वैसे दोष सिर्फ वित्त मंत्री पर ही नहीं थोपा जा सकता, इसकी ज़िम्मेदारी सामूहिक तौर पर मंत्रिमंडल की है और मुख्य तौर पर राज्य के प्रमुख के तौर पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की है। हालत यह है कि पंजाब पर ऋण बढ़ कर एक लाख 95 हज़ार करोड़ रुपए हो गया है जो अगले वर्ष बढ़ कर 2 लाख 11 हज़ार 523 करोड़ रुपए हो जाएगा। इस तरह जब हर वर्ष 15-16 हज़ार करोड़ रुपए का ऋण बढ़ेगा तो पंजाब की आर्थिकता का भविष्य क्या होगा उसका तो सही अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। पंजाब का कुल 1 लाख 29 हज़ार 697 करोड़ रुपए का खर्च का बजट है, इसमें से अकेले बिजली के क्षेत्र में दी जाने वाली सबसिडी लगभग 12950 करोड़ रुपए बनती है। इसमें किसानों की मुफ्त बिजली 8950 करोड़ रुपए और उद्योगों को 5 रुपए प्रति यूनिट बिजली देने के लिए रखे जाने वाले 1440 करोड़ रुपए भी शामिल हैं। परन्तु जिस राज्य के कुल बजट खर्च का 10 प्रतिशत सिर्फ बिजली पर मुफ्त देना पड़े और अभी पता नहीं कितनी सब्सिडियां और ग्रांटे हैं, तो उस राज्य की हालत कैसे सुधर सकती है? 
सबसे बुरी बात है कि यह सारा भार मध्य वर्ग के लोगों पर डाला जा रहा है, जो पहले ही टैक्सों की मार के नीचे दबे हुए हैं। इन्कम टैक्स, जी.एस.टी. की बात तो छोड़े, प्रापर्टी टैक्स तथा नगर परिषदों के पता नहीं कौन-कौन से टैक्सों की मांग आम आदमी को पड़ रही है, परन्तु इन टैक्सों के बदले उसको विशेष सुविधा क्या मिलती है? यह कभी सोचा ही नहीं गया। अब 1500 करोड़ रुपए के नए टैक्स लगा दिए हैं। इनका भार भी ज्यादातर मध्यम वर्ग के लोगों पर ही पड़ना है। 30 हज़ार रुपए कमाने वाले व्यक्ति को 2400 रुपए वर्ष का नया टैक्स भरना पड़ेगा। ज़रा देखें 30 हज़ार रुपए कमाने वाले व्यक्ति को यदि वह इसमें से 11 हज़ार रुपए किसी छूट वाली योजना में जमा करवा देता है तो उसको लगभग 3100 रुपए इन्कम टैक्स भरना पड़ेगा जबकि पंजाब सरकार ने अप्रत्यक्ष तौर पर एक नया इन्कम टैक्स चाहे नाम कोई भी रखा है, 2400 रुपए का और लगा दिया है। इस तरह 30 हज़ार रुपए महीने की आय वाले व्यक्ति को लगभग 77 प्रतिशत ज्यादा इन्कम टैक्स देना पड़ेगा। राज्य की उन्नति के लिए टैक्स लगाने पर किसी को एतराज़ नहीं, परन्तु एक का गला दबा कर दूसरे को मुफ्त बांट देना किसी तरह भी जायज़ नहीं समझा जा सकता। फिर सारे का सारा भार शहरी मध्यम वर्ग पर डालते जाना कैसे जायज़ है। जबकि इस टैक्स के बदले में उसको कोई सामाजिक सुरक्षा या विशेष सुविधा भी नहीं मिलेगी? वास्तव में ज़रूरत तो है कि पंजाब की आर्थिकता को पटरी पर डालने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए जाने की। हमारी जानकारी के अनुसार एक कैबिनेट मंत्री ने इस बार बहुत ज़ोर लगाया कि शराब का कारोबार ठेकेदारों से लेकर पंजाब सरकार तमिलनाडु की तर्ज पर अपनी कार्पोरेशन बनाकर स्वयं सम्भाले और इस तरह लगभग 10 हज़ार करोड़ रुपए जो निजी शराब ठेकेदारों की जेब में जाते हैं, पंजाब सरकार कमाये और इससे कई हज़ार नौजवानों को नौकरियां भी दी जाएं। परन्तु मेले में चक्की राहे की कौन सुनता है? 
तमिलनाडु का अनुभव और पंजाब ?
गौरतलब है कि हिन्दू बिजनस लाइन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2003-04 में तमिलनाडु की कुल टैक्स आय में से 14.30 प्रतिशत शराब से हुई आय का था और यह 2263 करोड़ रुपए था। जबकि इसी वर्ष पंजाब की कुल टैक्स आय में से शराब से हुई आमदनी का हिस्सा 23.68 प्रतिशत था जो 1500 करोड़ रुपए था। इसके मुकाबले ताज़ा रिपोर्टों के अनुसार तमिलनाडु ने 2016-17 में शराब से 26995 करोड़ रुपए टैक्स की वसूली की और पंजाब ने सिर्फ 4400 करोड़ ही कमाएं। वह भी तब जब तमिलनाडु ने इस वर्ष शराब की 3321 दुकानें कम कर दी थीं। यदि वह ऐसा न करता तो उसकी आय के आंकड़े और भी बड़े होते। ऐसा कैसे हुआ? वास्तव में तमिलनाडु ने 2002 में शराब का कारोबार पूरी तरह अपने हाथों में ले लिया था और एक पूरे सरकारी नियंत्रण वाली संस्था तमिलनाडु स्टेट मार्किटिंग कार्पोरेशन को सौंप दिया था। इस कारण एक अनुमान के अनुसार लगभग 40 हज़ार नौजवानों को सीधा रोज़गार मिला हुआ है और अप्रत्यक्ष रोज़गार वालों की संख्या कहीं अधिक है। इसलिए साफ है कि यदि पंजाब सरकार सिर्फ शराब का कारोबार ही पूरी तरह रिटेल दुकानों तक अपने हाथों में ले और हिसाब पूरी तरह ऑन लाइन कम्प्यूटराइज़ड कर दे तो वह ऋण तथा नए टैक्सों के जाल से निकल सकती है और लगभग  50 हज़ार युवाओं को सीधा रोज़गार भी दे सकती है।़खैर इसके अलावा रेत-बजरी तथा ट्रांसपोर्ट, खास तौर पर बसों के कारोबार का सरकारीकरण करके ही पंजाब की आर्थिकता को अपने पांवों पर खड़ा करने की तरफ कदम उठाए जा सकते हैं। हरियाणा का उदाहरण हमारे सामने है। वह वर्ष में लगभग 3 हज़ार करोड़ रुपए बसों से कमा रहा है। रेत-बजरी की माइनिंग के लिए उड़ीसा मॉडल पर विचार किया जा सकता है परन्तु इस सब कुछ के लिए बड़ी इच्छा शक्ति की ज़रूरत है ताकि पंजाब के हितों के सामने निजी और निजी दोस्तों के हितों के हानि-लाभ पर विचार न किया जाए।
अकाली-भाजपा सांसद भी ध्यान दें
इस बार पंजाब के कुछ कांग्रेसी और आम आदमी पार्टी द्वारा जीते कुछ सांसदों ने पंजाब की मांगों की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए एक नया ढंग अपनाया कि वह हर रोज़ पंजाब की मांगों की तख्तियां पकड़ कर संसद में महात्मा गांधी के बुत्त के आगे खड़े हो रहे हैं। परन्तु अकाली-भाजपा सांसद इससे दूर ही रहते हैं। हम समझते हैं कि यदि अकाली-भाजपा सांसद भी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर पंजाब की बड़ी मांगों को उभारने के लिए संसद-सत्र के बीच ऐसा करें तो यह सरकार का विरोध नहीं होगा सिर्फ राज्य की बेहतरी के लिए सभी पंजाबियों की एकजुटता को दर्शाएगा। बेशक इसके लिए सभी पार्टियों के पंजाबी सांसद एक बैठक करके न्यूनतम सहमति वाली मांगों पर विचार कर ले और पंजाब को साझे तौर पर कुछ लेकर देने के लिए प्रयास करें तो यह एक अच्छी शुरुआत होगी। 
सुखबीर-अमित शाह बैठक
अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच हुई बैठक चर्चा का विषय है। बताया गया है कि अकाली दल में स. सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में तीन मांगों पर ज्यादा ज़ोर दिया है। पहली, श्री दरबार साहिब के लंगर पर जी.एस.टी. माफ की जाए, दूसरी, 1984 के सिख कत्लेआम के मामलों की जांच में तेजी लाई जाए और तीसरी किसानों की फसलों के मूल्य स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार लागत मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक दिए जाएं। सिख और पंजाबी क्षेत्रों में इस बैठक को औपचारिकता मात्र ही माना जा रहा है। क्योंकि हमारी जानकारी के अनुसार इसके बाद भी केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेतली ने जी.एस.टी. माफ करने से साफ इन्कार कर दिया है जबकि स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करने से असमर्थता केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में पहले ही ज़ाहिर कर चुकी है। 33 वर्ष बीत जाने के बाद 1984 के मामलों में तेजी तो बस एक सपना है। इस समय हमारे सामने उदाहरण है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री राज्य के बड़े हितों के लिए केन्द्र में मौजूद अपने मंत्रियों तक को वापिस बुला कर आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग पर अड़े हुए हैं। इसको देखते हुए अकाली दल को भी चाहिए कि पहले वह आज के हालात पर पंजाब के बड़े हितों के लिए सोच-विचार करे और फिर कोई स्पष्ट स्टैंड ले। अकाली दल के लिए 2019 के आम चुनावों से पहले ही यह मौका है नहीं तो फिर पता नहीं कब मौका आएगा। 

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