भारत को चीन क्यों दे रहा है चुनौती ?

एक फिल्म थी डाक्टर कोटनीस की अमर कहानी जिसमें विश्व युद्ध में जापान द्वारा चीन का बुरा हाल कर दिया गया और भारत के डाक्टरों में जिनमें डाक्टर कोटनीस भी एक थे, ने चीन के ज़ख्मी एवं बीमार लोगों के लिए अपने प्राण तक दांव पर लगा दिए। वहीं कृत्घन चीन सन् 1962 की जंग में भारत की पराजय को आज पुन: याद करा रहा है। इतिहास साक्षी है कि पचास के दशक में भारत के साथ चीन की शांति संधि हुई थी जिस पर विश्वास करके भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चाऊ-एन.लाई को भारत का भरोसेमंद साथी समझ लिया। इस पर भारत में हिन्दी चीनी भाई-भाई के नारे भी गूंज उठे। हम शांति के प्रतीक कबूतर उड़ाते रहे और चीनी लीडर हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा करते रहे और फिर वर्ष 1962 का वहमनहूस दिन  भी आ गया जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। हमारी सेना इसके लिए तैयार नहीं थी। फिल्म ‘हकीकत’ में उस समय के हिन्दी-चीनी संघर्ष को दिखाया गया। देश में चीन के विरुद्ध एक ज्वाला भड़की जिस पर साम्यवादी विचारों से प्रेरित हमारे देश के कवियों ने अपने शब्दों से चीन के इस कुकृत्य के खिलाफ उठ खड़े होने का विचार किया। इन कवियों में जां निसार अख्तर जो जावेद अख्तर के पिता थे, ने लिखा था। ‘आवाज़ दो हम एक हैं’ और साहिर लुधियानवी ने भी एक गीत लिखा ‘वतन की आबरू खतरे में है होशियार हो जाओ।’ दूसरी तरफ पंडित जवाहर लाल नेहरू को यह चीनी धोखा परेशान कर गया और मई वर्ष 1964 में पंडित जी का देहावसान हो गया। भारत ने एक बात सीख ली कि मित्रता में मलाल नहीं रहना चाहिए। वर्ष 1962 से लेकर वर्ष 1977 तक अर्थात पूरे 15 वर्ष भारत का चीन से रिश्ता न के बराबर रहा। वर्ष 1978 में तत्कालीन विदेश मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन से एक बार पुन: संबंध सुधारने का प्रयास किया और उन्होंने चीन की यात्रा की। जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तब रूस से हमारी गहरी मित्रता थी क्योंकि हमने शीत युद्ध के उस दौर में निर्गुर संगठन बनाने वालों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारतीय नेताओं ने रुस से चीन के हमले के बारे में सहायता करने को कहा तो रुस ने बड़े सरल स्वभाव से उत्तर दे दिया कि भारत उनका मित्र है और चीन उनका भाई। इसलिए वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया। ज्योति बासू और हरिकिशन सुरजीत चीन के समर्थन में उतरे तो जगजीत सिंह आनंद, सतपाल डांग जैसे लोग रूस की ओर झुके रहे। माओवाद का जन्म भी भारत में तभी से हुआ।
4 जून, 1989 का वह दिन आज भी इतिहास में खून के आंसू रोता अनुभव होता है जब चीन की निर्दयी सरकार ने तिनमिन चौक में लोकतंत्र की मांग करते छात्रों पर टैंक चढ़ा दिया और बहुत से निहत्थे छात्रों को मौत के घाट उतार दिया। पूरा विश्व जानता है अफीमची लोगों का वो देश जहां हज़ारों वर्षों तक चुटियाधारी विद्वानों ने ज्ञान के रहस्यों पर पहरा दिया जहां कामरेड व्यवस्था बनाए रखने के लिए कन्फ्यूशियस के दर्शन शास्त्र का हवाला दिया जाता रहा। उसी चीन की विस्तार नीति ने भारत में चीन के विरुद्ध नए सिरे से घृणा की। फसल उगानी आरम्भ कर दी है। जिस चीन से वर्ष 1962 में भारत ने अपमान सहा था, उसी चीन को भारतीय बाज़ार पर छा जाने का पूरा अधिकार कैसे मिला और क्यों मिला? यह प्रश्न अब फिर जन-साधारण में खड़ा हो गया। यह भी हकीकत है कि आज तक चीन और भारत की विवादित सीमाओं पर कभी कोई गोली नहीं चली परन्तु चीन के दिल में दलाईलामा को दिया गया आश्रय खटकता रहता है। तिब्बत जिसे वह अपने साथ मिलाने में सफल हो गया अब वह अरुणाचल प्रदेश, भूटान और सिक्किम पर गिद्ध दृष्टि रख रहा है। हम यहां इतिहास के काले पृष्ठों को पुन: पाठकों के सामने नहीं रखना चाहते। परन्तु चीन याद रखे कि अब भारत 2018 का है जो अपनी सीमा  की रक्षा करने में सक्षम है। हम जानते हैं कि अभी यह मामला ठंडा पड़ने वाला नहीं। उसके पीछे कई ऐसी बाते हैं जो चीन को एक पल चैन नहीं लेने देती, जैसे भारत का तेज़ी से बढ़ता आर्थिक तंत्र, अमरीका और अन्य यूरोपियन देशों से मित्रता और पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर गिलगित आदि से ब्लोचिस्तान तक सड़क का निर्माण जिस पर भारत ने सख्त एतराज़ किया था। जापान से भारत की बढ़ती मित्रता भी चीन को फूटी आंख नहीं सुहाती। भारत का यह कहना कि जैश-ए-मोहम्मद के लीडर मौलाना अज़हर मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया जाए परन्तु चीन पाकिस्तान से दोस्ती निभाने में भारत को समर्थन नहीं देता। आज चीन भारत को पुन: चुनौती दे रहा है। वह भूल गया कि जंग हथियारों से नहीं हौसलों से लड़ी जाती है। एक-एक भारतीय सैनिक ने तेरह-तेरह चीनी सैनिक  मारे थे। यह तो इतिहास में दर्ज है। चीनी नेताओं ने भी पढ़ा होगा। धमकी देने से आज का भारत दबने वाला नहीं, यह बात चीन को अच्छे से समझ लेनी चाहिए।