कृषि का संकट

एक बार फिर किसानों को दरपेश कठिनाइयों एवं उनकी समस्याओं को लेकर बात चली है। विगत तीन वर्षों में देश भर में लगभग 36,000 किसान एवं कृषि श्रमिक आत्महत्या करने के लिए विवश हुए हैं। किसान पिछले लम्बे समय से अपनी समस्याओं को लेकर किसी न किसी रूप में अपना रोष भी प्रकट करते रहे हैं। कुछ माह पूर्व तमिलनाडु से बड़ी संख्या में आए किसान कई दिनों तक दिल्ली में धरना लगाकर बैठे रहे थे। देश के अन्य भागों से भी किसान अक्सर दिल्ली में रोष प्रकट करने आते हैं। किसानों को लाभकारी मूल्य न मिलने के कारण उनकी आर्थिकता डगमगा गई है। किसान ऋण के जाल में फंस गए हैं। पंजाब सरकार ने किसानों को राहत देने के लिए ऋण माफ करने की घोषणा तो कर दी परन्तु स्वयं दुविधा में फंस गई। चुनावों में कांग्रेस ने किसानों के तमाम ऋण पर लकीर डालने की बात कही थी। इस संबंध में सरकार ने अनेक योजनाएं भी बनाईं। कुछ ज़िलों में छोटे किसानों के दो लाख तक के ऋण माफ भी किए हैं। आगामी समय में वह अन्य ज़िलों में भी ऐसी योजनाएं लागू करने जा रही है, परन्तु सरकार की ओर से किए जा रहे ये यत्न बड़े किसान वर्ग में संतुष्टि उत्पन्न नहीं कर सके अपितु अधिकतर स्थानों पर सरकार की ओर से की गई घोषणाओं के कारण किसान मुश्किल में फंस गए प्रतीत होने लगे हैं। ऋण माफी की घोषणाओं के दृष्टिगत बहुत से किसानों ने व्यवसायी बैंकों के ब्याज़ एवं ऋण न लौटाने की नीति अपनाई परन्तु अब अनेक स्थानों पर बैंकों की ओर से किसानों पर फौजदारी मुकद्दमे दर्ज करवाने शुरू कर दिए गए हैं, जिससे वे जहां अदालती झंझटों में फंसते दिखाई दे रहे हैं, वहीं सरकार के विरुद्ध भी अपनी तीव्र नाराज़गी का इज़हार कर रहे हैं। पिछले दिनों चंडीगढ़ में कुछ किसान संगठनों ने एक बड़े प्रदर्शन का आयोजन करके सरकार को जहां कर्जों पर पूरी तरह से लकीर मारने के अपने वायदे की याद दिलाई, वहीं यह भी मांग कि व्यवसायिक बैंकों एवं आढ़तियों से लिए गए पूरे ऋण को सरकार अदा करे। जिस प्रकार के आर्थिक संकट में से सरकार गुजर रही है, उसे देखते हुए ऐसा करना किसी भी प्रकार से सम्भव प्रतीत नहीं होता। उत्पन्न हुई इस स्थिति का हल क्या और कैसे निकाला जाए, इसका वर्तमान में किसी के पास कोई उत्तर नहीं है। ऐसी स्थिति के संदर्भ में कृषि के समूचे व्यवसाय के संबंध में बड़ी योजनाबंदी किए जाने की ज़रूरत प्रतीत होने लगी है। पिछले सालों में केन्द्र सरकारों की कृषि के प्रति जो नीतियां रही हैं, उनके कारण ही किसानों की समस्याएं इतनी बढ़ गई हैं। किसान संगठन हमेशा ही फसलों के खरीद मूल्यों में वृद्धि करने की मांग करते रहते हैं। इसीलिए वे डा. स्वामीनाथन आयोग की ओर से जारी की गई रिपोर्ट को लागू करने की मांग भी करते रहे हैं, जिसमें किसानों की सम्पूर्ण लागत पर 50 प्रतिशत लाभ देकर फसलों के मूल्य तय करने की बात कही गई थी। हम समझते हैं कि इसके साथ-साथ मंडियों के आधुनिकीकरण की भी बड़ी आवश्यकता है। सब्ज़ियों एवं फलों के उत्पादन के संबंध में दृढ़ योजनाएं जो क्रियात्मक रूप में किसानों के लिए सहायक हो सकें, बनाई जानी चाहिएं। खेती के लिए पानी की कमी ने भी बड़ी चिंता पैदा की है। इस संबंध में भी प्रत्येक स्थिति में नए ढंग-तरीके इजाद करके पानी की खपत को कम करना चाहिए। फसलों के बीमे की बात निरन्तर चलती रही है। इस संबंध में नीति अभी तक संतोषजनक ढंग से सम्पन्न नहीं की जा सकी। एक रिपोर्ट के अनुसार आगामी 30 वर्ष तक भारत में ग्रामीण क्षेत्र की आबादी तथा आर्थिकता भी सिकुड़ जायेगी। आज यदि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 14 प्रतिशत तक कम होने के बावजूद देश की आर्थिकता स्थिर रही है, तो इसका कारण कम से कम 50 प्रतिशत लोगों का कृषि पर निर्भर होना ही है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की रोटी-रोज़ी को बनाये रखने के लिए कृषि को बचाना बहुत आवश्यक होगा। इसके साथ-साथ कीटनाशक एवं खादों के संतुलित प्रयोग के संबंध में भी नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता होगी। देश में कृषि विभिन्नता के साथ-साथ कृषि उत्पादन को उद्योगों के साथ जोड़ना भी बहुत ज़रूरी होगा। इस सब कुछ के लिए यदि केन्द्र एवं राज्य सरकारों की ओर से कड़ी मेहनत एवं योजनाबंदी न की गई तो कृषि का व्यवसाय बहुत घाटे का धंधा हो जायेगा। इससे देश की खाद्यान्न सुरक्षा भी खतरे में पड़ जायेगी। यह देश के लिए एक बड़ी चिन्ता वाली बात हो सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द