क्या होगा मौजूदा वैश्वीकरण का भविष्य ?

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कुछ ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जोकि स्पष्ट रूप में यह संकेत दे रही हैं कि वैश्वीकरण का मौजूदा कार्पोरेट मॉडल अब ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चल सकेगा। इसको पहला झटका 2008 में विश्व स्तर पर आई आर्थिक मंदी ने दिया था। चाहे इस आर्थिक मंदी से कुछ सीमा तक दुनिया अब उभर चुकी है, परन्तु इसके प्रभाव विश्व की आर्थिकता पर अभी भी नज़र आ रहे हैं। कुछ महीने पूर्व ब्रिटेन के लोगों की ओर से जनगणना द्वारा यूरोपियन यूनियन से बाहर होने के किए गए फैसले ने भी दुनिया को यही संकेत दिए थे कि मौजूदा कार्पोरेट पक्षीय वैश्वीकरण से ब्रिटेन के निचले तथा मध्यवर्गीय लोगों के आर्थिक तथा सांस्कृतिक हितों को नुक्सान पहुंचा है और इसी कारण इन वर्गों ने ही ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से बाहर निकालने के पक्ष में जनादेश दिया है। इसके बाद अमरीका के राष्ट्रपति के पद के लिए हुए चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प का जीतना भी इसी बात का प्रगटावा था कि अमरीका के निचले तथा मध्यम वर्ग के लोग भी वैश्वीकरण की नीतियों से ऊब चुके हैं। यह उल्लेखनीय है कि डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी सारी चुनाव मुहिम के दौरान इस बात पर जोर दिया था कि वह नौकरियां देने के मामले में अमरीकियों को प्राथमिकता देंगे, प्रवासियों के बेतहाशा आगमन को नियंत्रित करेंगे तथा ऐसे व्यापारिक समझौतों को रद्द करेंगे, जिनसे अमरीकी व्यापार और हितों को नुक्सान पहुंचता है। उस समय वैश्वीकरण के अनेक समर्थक अर्थ-शास्त्रियों तथा राजनीतिक विश्लेषकों की राय थी कि डोनाल्ड ट्रम्प चाहे अमरीकियों के वोट हासिल करने के लिए यही नारेबाज़ी कर रहे हैं, परन्तु राष्ट्रपति बनने के बाद व्यवहारिक तौर पर वह ऐसा नहीं करेंगे। परन्तु अब जबकि राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प लगातार ऐसे फैसले ले रहे हैं जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी चुनाव मुहिम के दौरान किया था तो विश्व स्तर पर वैश्वीकरण के भविष्य को लेकर चर्चा तीखी हो गई है। डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रवासियों के आगमन को नियंत्रित करने के लिए लगातार कदम उठाये हैं, ताकि अमरीकियों को अधिक नौकरियां मुहैया की जा सकें। इसके अलावा अपने पड़ोसी देश मैक्सिको की सीमा पर गैर-कानूनी प्रवास रोकने के लिए दीवार बनाने का अपना प्रोजैक्ट भी उन्होंने पुन: तेज़ कर दिया है। इससे भी आगे जाकर एक बड़ा कदम उठाते हुए चीन और जापान के साथ अपना व्यापारिक घाटा कम करने के लिए और अमरीकी उद्योग तथा व्यापार को लाभ पहुंचाने के लिए उन्होंने चीन तथा जापान से आयात होने वाली बहुत सारी वस्तुओं पर टैक्स लगाने की भी घोषणा कर दी है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप चीन ने भी अमरीका से आने वाली कई प्रकार की वस्तुएं इस्तेमाल करने पर टैक्स लगाने की घोषणा की है। यदि अमरीका और चीन के बीच यह व्यापारिक युद्ध इसी तरह आगे बढ़ता गया तो इसका असर अन्य देशों पर भी पड़ेगा। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर घटी एक अन्य घटना, जिसके मौजूदा वैश्वीकरण पर और भी विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं, वह है रूस के पूर्व डबल एजेंट सरगेई स्क्रीपल और उनकी बेटी यूनिलिया स्क्रीपल को ब्रिटेन के सेल्ज़बरी शहर में ज़हर दिया जाना। ब्रिटेन में इसके लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया है और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप रूस के बहुत सारे कूटनीतिज्ञों को ब्रिटेन से बाहर निकलने के आदेश दे दिए गए हैं। इस मामले में ब्रिटेन का साथ देते हुए फ्रांस और अमरीका ने भी दर्जनों ही रूसी राजनयिकों को अपने देशों से बाहर जाने के लिए कह दिया है। अमरीका तथा ब्रिटेन की ओर से रूस पर बहुत सारे व्यापारिक प्रतिबंध लगाये जाने के भी संकेत दिए गए हैं। यदि रूस के अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ संबंध बिगड़ते हैं तो इससे भी वैश्वीकरण की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ेगा। एक तरह से दुनिया में पुन: शीत युद्ध शुरू हो सकता है। 
यदि गत कई दशकों से दुनिया में चलते आ रहे मौजूदा वैश्वीकरण के अमल के प्रभावों को देखा और समझा जाए तो यह बात उभर कर सामने आती है कि इससे अलग-अलग देशों की बड़ी औद्योगिक तथा व्यापारिक कम्पनियों से संबंधित मुट्ठी भर लोगों को ही इसका लाभ पहुंचा है। अलग-अलग देशों के निचले तथा मध्यवर्गीय लोगों को आर्थिक विकास के इस मॉडल से भारी नुक्सान हुआ है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं और रोज़गार के अवसर ऐसे वर्गों के लिए कम हुए हैं। कुछ सप्ताह पूर्व ही प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी एक्सफेम की भारत के बारे में रिपोर्ट आई थी। उसने स्पष्ट तौर पर यह कहा था कि 2017-18 के दौरान एक प्रतिशत अमीर भारतीयों की धन-दौलत में 73 प्रतिशत वृद्धि हुई है, जबकि 67 प्रतिशत अन्य भारतीयों की धन-दौलत में सिर्फ एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्थिति के बारे में उसने कहा है कि इसी समय के दौरान दुनिया के एक प्रतिशत अमीर लोगों की धन-दौलत में 82 प्रतिशत वृद्धि हुई है, जबकि दुनिया के अन्य 370 करोड़ लोगों की धन-दौलत में नाममात्र ही वृद्धि हुई है। दुनिया में बढ़ रही इस असमानता के लिए विशेष तौर पर वैश्वीकरण के मौजूदा कार्पोरेट पक्षीय विकास माडल को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। अमरीका, ब्रिटेन के अलावा दुनिया के अन्य भी बहुत सारे देशों से यह संकेत मिल रहे हैं कि लोगों के बड़े वर्गों में वैश्वीकरण के खिलाफ असंतोष पैदा हो रहा है और इसी कारण फ्रांस, इटली तथा जर्मन जैसे देशों में भी लोगों का झुकाव उन राजनीतिक पार्टियों की ओर बढ़ने लगा है, जो वैश्वीकरण का विरोध करते हुए आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में अपने लोगों के हितों को प्राथमिकता देने का दम भर रही हैं। खासतौर पर विश्व स्तर पर किसानों तथा अन्य मेहनतकश लोगों, छोटे उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को भारी नुक्सान पहुंचा है। यदि 1991 के बाद भारत में शुरू हुई वैश्वीकरण की प्रक्रिया को देखा जाए तो यहां भी यह स्पष्ट नज़र आता है कि छोटे उद्योगपतियों, व्यापारियों तथा किसानों को इन नीतियों ने भारी नुक्सान पहुंचाया है। भारत में हर रोज़ 45 के लगभग किसान और खेत मज़दूर आत्महत्याएं करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। श्रमिक वर्गों तथा युवाओं को देश में अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा, इस कारण यह वैध-अवैध ढंग से विदेशों को जाने को प्राथमिकता दे रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार छोटे से पंजाब से ही हर साल 4 लाख के लगभग युवक शिक्षा हासिल करने के बहाने आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा आदि देशों को जा रहे हैं। परन्तु आने वाले समय में भारतीय लोगों का यह रास्ता भी रुकने के संदेह पैदा हो सकते हैं, क्योंकि कनाडा को छोड़कर अन्य देशों ने इस संबंधी अपनी नीतियां कड़ी करनी शुरू कर दी हैं।
इस समूची चर्चा के संदर्भ में यह बात उभर कर सामने आती है कि अब हर देश को अपने-अपने लोगों के हितों के अनुसार अपने-अपने विकास माडल विकसित करने पड़ेंगे। अपने लोगों के लिए रोज़ी-रोटी का प्रबंध स्वयं करना पड़ेगा। औद्योगिक तथा व्यापारिक नीतियां भी ऐसी बनानी पड़ेंगी, जो अपने लोगों के हितों के लिए लाभदायक हों। यह सही है कि आधुनिक संचार साधनों और तकनीक के विकास से विश्व स्तर पर अलग-अलग देश तथा अलग-अलग देशों के लोग आपस में जुड़े रहेंगे। अपनी-अपनी ज़रूरतों के अनुसार एक-दूसरे देश के साथ लेन-देन भी करेंगे परन्तु गत कुछ दशकों में जिस तरह का असंतुलित कार्पोरेट पक्षीय वैश्वीकरण औद्योगिक देशों की सरकारों द्वारा अपनी बड़ी कम्पनियों के साथ मिलकर समूची दुनिया पर थोपा जा रहा है, वह शायद आने वाले समय में चल नहीं सकेगा। दुनिया में अधिकतर संतुलित वैश्वीकरण ही चल सकेगा। धौंसवादी वैश्वीकरण के दिन अब जाते नज़र आ रहे हैं।