राजनीति में उभरता अवसान

भारतीय जनता पार्टी की स्थापना का 38वां अधिवेशन जहां कई मायनों में उल्लेखनीय कहा जा सकता है, वहीं इस अवसर पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के भाषण ने देश की राजनीति में एक साथ कई विवाद खड़े कर दिए हैं। अमित शाह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में कसीदे काढ़ते हुए, उनकी लोकप्रियता को बाढ़ की संज्ञा दी, परन्तु इसके साथ ही देश के विपक्षी दलों के नेताओं को निशाने पर लेते हुए उनके बारे में कुछ ऐसे सम्बोधन शब्द बोल गये जो देश की राजनीति में शुरू हुए पतन की पराकाष्ठा को भी दर्शाते हैं। देश के विपक्षी दलों के नेताओं ने उनके इस बयान की अपने-अपने ढंग से निंदा तो की है, परन्तु नि:संदेह अमित शाह का यह बयान बड़ी देर और बड़ी दूर तक अपनी आहट को महसूस कराता रहेगा। अमित शाह ने विपक्षी दलों एवं उनके नेताओं की तुलना कुत्ते, बिल्ली, सांप और नेवले तक से कर दी।अमित शाह का यह बयान इसलिए भी सहन हो गया कि देश में लोकतंत्र है, और लोकतंत्र में लिखने, बोलने का सभी को अधिकार होता है, परन्तु किसी भी लोकतंत्र की सफलता के लिए एक सुदृढ़ सरकार के मुकाबले में एक सशक्त विपक्ष का होना भी उतना ही लाज़िमी होता है। एक मजबूत विपक्ष के बिना कोई भी सरकार तानाशाह जैसी बन कर रह जायेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले लोकसभा चुनावों को प्रचण्ड बहुमत हासिल कर लेने के बाद कुछ भाजपा नेताओं के सिर पर सत्ता का नशा सवार हो गया। उसकी नीतियों में साम्प्रदायिकता और उद्दंडता का प्रदर्शन अधिकाधिक रूप में दिखाई देने लगा, और उसके नेताओं के भाषणों एवं क्रिया-कलापों में यह साफ-साफ झलकने  भी लगा। बिहार और प. बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं की साम्प्रदायिक उद्दंडता और उत्तर प्रदेश में भाजपा की शीर्ष सत्ता पर विराजमान नेताओं के भाषणों से देश की भावी दशा एवं दिशा की आहट को साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। भाजपा के 38वें स्थापना दिवस पर आयोजित अधिवेशन में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भाषण को इसी क्रम की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
लोकतंत्र की एक सर्वाधिक बड़ी विशेषता राजनीतिक सहनशीलता में होती है। यह विशेषता किसी भी अन्य शासन प्रणाली में नहीं होती, परन्तु भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा शासन में इस विशेषता का बड़ी तेज़ी से ह्रास हुआ है। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी, अडवानी और मुरली मनोहर जोशी के काल की शालीनता और शिष्टता नि:संदेह मौजूदा दौर की राजनीति में कहीं भी दिखाई नहीं देती। यह भी प्रतीत होता है कि लोकसभा में वर्ष 1984 की दो सीटों से शुरू होकर 2014 में 282 सीटों तक पहुंची भाजपा की सीटों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गई, भाजपा नेताओं में घमंड की मिकदार भी उसी अनुपात से बढ़ती चली गई। पार्टी के मौजूदा नेतृत्व के अधिकतर नेताओं में तो जैसे यह बात अधिक मुखर होकर दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पिछले पांच-सात वर्षों में बेशक चक्रवृद्धि ब्याज़ की तरह बढ़ी है, परन्तु इसके नेता इस प्रक्रिया में सम्भवत: यह भूल गये कि वर्ष 1984 में भारतीय जनता पार्टी नाम मिलने के बाद से अब तक राजनीतिक उतार-चढ़ाव के अनेक दौर हो गुजरे हैं। लोकतंत्र में सत्ता की कवायद हमेशा परिवर्तित होती रहती है, परन्तु इस प्रकार के भाषण और इनमें प्रयुक्त शब्द राजनीतिक परम्परा बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि दोनों ओर से ऐसे शब्दों को प्रयुक्त किया जाने लगे, तो नि:संदेह ऐसी स्थिति में आने वाली बाढ़ उस बाढ़ से अधिक बड़ी हो जायेगी, जिसका ज़िक्र अमित शाह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के तौर पर किया है।
हम समझते हैं कि नि:संदेह इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग राजनीतिक स्वच्छता और स्वस्थता के धरातल पर किसी भी सूरत में उचित नहीं है। देश में पहले ही दो गठबंधन मौजूद हैं—कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात् संप्रग और भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन राजग। भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में एकाकी तौर पर मिली 282 सीटों के बिना, विगत दो-तीन दशकों से देश में गठबंधन की राजनीति ही हो रही है। ऐसे में यदि देश में तीसरा गठबंधन तैयार होता है, तो यह उनका लोकतांत्रिक हक है। इस प्रस्तावित मोर्चा अथवा पूर्व के राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना सांप, बिच्छू अथवा कुत्ते-नेवला से करने वाला भाषण जहां अमित शाह जैसे नेताओं की मानसिकता को दर्शाता है, वहीं इससे यह भी प्रकट होता है कि यदि इस प्रकार की प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रही, तो भविष्य की राजनीति के परिदृश्य का आंकलन कर पाना कोई अधिक कठिन नहीं होगा। यहां फिर हम दोहराना चाहेंगे कि लोकतंत्र की सफलता के लिए जहां एक मजबूत सरकार का होना ज़रूरी है, वहीं एक सशक्त विपक्ष का होना भी उतना ही लाज़िमी है। लोकतंत्र में विरोध भी ज़रूरी होता है, लेकिन यह विरोध केवल विरोध के धरातल पर नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार सत्ता पक्ष को भी विरोधी दलों की हस्ती को साथ लेकर चलना चाहिए। देश के दोनों पक्ष इस एक आवश्यक तथ्य को जितना शीघ्र अपनायेंगे, उनता ही इस देश की एकता, अखंडता और विकास पथ पर अग्रसर होने के हित में अच्छा होगा।