पाकिस्तान को करना पड़ेगा एक और आर्थिक संकट का सामना

गत चार महीनों में पाकिस्तानी रुपए की दूसरी अघोषित मूल्य कटौती इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पाकिस्तान की आर्थिकता बहुत कठिन दौर से गुजर रही है। हैरानी की कोई बात नहीं कि आर्थिक पंडित भविष्यवाणी कर रहे हैं कि इस्लामाबाद को शीघ्र ही एक और ‘बेल आऊट पैकेज’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा फंड (आई.एम.एफ.) के पास गुहार लगानी पड़ेगी। पूर्व वित्त मंत्री हाफिज़ पाशा ने कुछ महीने पूर्व एक सैमीनार में बोलते हुए भविष्यवाणी की थी कि सितम्बर महीने तक सरकार के पास विदेशी मुद्रा खत्म हो जाएगी। उन्होंने यह भी कहा था कि आई.एम.एफ. के साथ एक और कठिन शर्तों वाले ‘बेलआऊट’ के लिए बातचीत करनी पड़ेगी। वित्तीय वर्ष 2018 के पहले आठ महीने (जुलाई से फरवरी) में चालू वित्तीय घाटा बढ़कर 12.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जबकि जून, 2017 में खत्म हुए वित्तीय वर्ष के अंत तक यह 10.82 अरब डॉलर था और वित्तीय वर्ष 2016 में यह सिर्फ 4.86 अरब डॉलर था। इस वित्तीय वर्ष के अंत तक यह घाटा 15.7 अरब डॉलर तक पहुंच जाने की सम्भावना है। इस घाटे ने और विदेशी मुद्रा के कम होते भण्डार ने सरकार को रुपए का मूल्य गिरने देने के लिए मजबूर कर दिया है। अतीत के विपरीत अब स्टेट बैंक इस स्थिति में नहीं है कि बाज़ार में अमरीकी डॉलर फैंक कर रुपए को बनावटी ढंग से स्थिर कर ले। इसलिए स्थिर तथा गतिशील पाकिस्तानी आर्थिकता की जो मिथ्य पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ तथा और उनके साथी वित्त मंत्री इसहाक डार द्वारा बनाई आर्थिक सिद्धांतों की खुराक से आम लोगों के सामने रचाई गई थी, वह अब पूरी तरह तहस-नहस हो चुकी है। वह दोनों तो अब सत्ता से बाहर हैं, परन्तु उनकी नीतियों के दुष्प्रभाव लम्बे समय तक पाकिस्तानी आर्थिकता को सताते रहेंगे। शरीफ और डार दोनों का साझा विचार था कि जो मज़र्ी हो जाए, डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपए की कीमत के मामले में कोई समझौता नहीं किया जायेगा। परिणाम यह हुआ कि निर्यात लॉबी द्वारा की गई चीख-पुकार का दोनों के कानों पर कोई असर नहीं हुआ। वित्त और वाणिज्य मंत्रालय तथा अलग-अलग संबंधित गुटों के बीच हुई सैकड़ों बैठकें भी डार का रुख बदलने में नाकाम रहीं। गत वर्ष शरीफ के निर्वासन से पहले रुपए की कीमत के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी। प्रसिद्ध बैंकरों, आर्थिक विशेषज्ञों तथा निर्यातकों ने बेहद जोर देकर कहा था कि चीन, भारत और बंगलादेश जैसे देश कपड़ा, वस्तुओं के व्यापार में पाकिस्तान के प्रतिस्पर्धी हैं। उन्होंने अपनी मुद्रा की कीमतें कम कर दी हैं, इसलिए इस तरह के माहौल में पाकिस्तान मुकाबला कैसे कर सकेगा? उच्च उत्पादन लागतों तथा रुपए की ऊंची कीमत के कारण निर्यातों में आई गिरावट के कारण शरीफ के चार वर्षों के कार्यकाल में हर वर्ष पांच अरब डॉलर का नुक्सान होता रहा। 120 कपड़ा मिलें (पाकिस्तान की हौजरी क्षमता का 33 प्रतिशत हिस्सा) बंद हो गईं। इस समय के दौरान इस क्षेत्र में 20 लाख नौकरियां भी खत्म हो गईं। ऐसी नुक्सान भरी नीतियों के कारण निर्यातों में स्थिरता आ जाना स्वाभाविक ही था। पाकिस्तान तेज़ी से आयातों पर आधारित आर्थिकता बनता जा रहा है। पाकिस्तान के पास अब जब दो महीनों के आयातों लायक विदेशी मुद्रा ही मुश्किल से बची है, तो शीघ्र ही स्रोतों की कमी का झटका झेलना पड़ सकता है। पाकिस्तान, चीन आर्थिक गलियारे से नि:संदेह 62 अरब डॉलर का दूरगामी लाभ होगा, परन्तु हाल के समय यह भी चालू वित्तीय घाटे को बढ़ाने में ही योगदान डाल रहा है। मानना पड़ेगा कि समूचे घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) की दर लगातार बढ़ती ही रही है, परन्तु इस वर्ष विकास दर 5.1 प्रतिशत रहने का ही अनुमान है, न कि 6 प्रतिशत जैसे कि पहले अनुमान लगाया गया था। इतिहास बताता है कि हमारे सत्ताधारी उच्च वर्ग का अभिमानी और खुद को सही ठहराये जाने वाला रवैया लगातार हमारी आर्थिक नीतियों को विपरीत रुख प्रदान करता रहा है। बड़े-बड़े दावों और ज़मीनी हकीकतों के बीच शुरू से ही बड़ी दरार रही है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि 1990 के दशक के शुरू में नवाज़ शरीफ जब पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे, तो मैं भी उनके साथ दावोस गया था। ज्यूरिच में एक मामूली सी हाज़िरी वाली कान्फ्रैंस में वित्त मंत्री सरताज़ अजीज़ ने बहुत उत्साह से दावा किया था कि पाकिस्तान एक उभर रहा आर्थिक शेर है, परन्तु अब तेज़ी से आगे बढ़ रहे दक्षिण एशियाई देशों के मुकाबले आजकल यह बात बुरी तरह खोखली साबित हो चुकी है। व्यंग्यात्मक बात यह भी है कि इसके बाद आई.एम.एफ. से कई ‘बेलआऊट पैकेज’ लेने के बाद भी समय-समय की पाकिस्तानी सरकारें अपनी तेज़ी से बढ़ रही आबादी की प्राथमिक ज़रूरतें पूरी करने में असफल रही हैं। समूचे घरेलू उत्पादन तथा करों के अनुपात की दर लगातार कम चली आ रही है, क्योंकि सरकारें उन लोगों पर टैक्स लगाने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सकी, जो टैक्स अदा कर सकते हैं, बस इस एक तथ्य से थोड़ी सी राहत मिलती है कि सारे अवसान के बावजूद उपभोक्ताओं का विश्वास उच्च स्तर पर है। कारों, मोटरसाइकिलों और विद्युत वस्तुओं जैसी उपभोक्तावादी वस्तुओं की मांग में बड़ा उछाल पाकिस्तान की आर्थिकता की कड़वी वास्तविकताओं को काफी सीमा तक छिपा लेता है। वास्तव में व्यवहारिक तौर पर दो पाकिस्तान एक साथ विचर रहे हैं, एक गरीब और वंचित लोगों का है जिनमें रोज़ाना ज़रूरतें भी मुश्किल से पूरी होती हैं और दूसरा उच्च वर्गों का है जो बहुत कम टैक्स देते हैं परन्तु बेहद ऐशो-आराम भरी ज़िंदगी व्यतीत करते हैं। देश के आर्थिक विकास के मामले में सेना भी एक बड़ा संबंधित गुट है। आतंकवाद से लड़ाई और दुश्मनों से देश की रक्षा के लिए इसको स्रोतों की ज़रूरत है। सैन्य प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा पहले आर्थिकता को चलाए जाने के ढंगों के बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की बैठकों आदि में निजी तौर पर अपनी असहमति जाहिर करते रहे हैं। परन्तु अब वह सार्वजनिक तौर पर भी इस कार्यशैली की आलोचना करने लगे हैं। हाल ही के दौरान पत्रकारों के साथ एक मुलाकात के दौरान उन्होंने स्पष्ट तौर पर पूर्व वित्त मंत्रियों की प्राथमिकताओं को गलत करार दिया। उन्होंने संविधान के 18वें संशोधन के प्रति भी असहमति प्रकट की कि इसके द्वारा संघ की कीमत पर राज्यों को ज़रूरत से अधिक स्रोत दिए जा रहे हैं। उनकी बात में एक नुक्ता हो सकता है, परन्तु एक वास्तविक संघीय राज्य में राज्यों के पास इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वह लोगों के कल्याण के लिए खर्च कर सकें। सैन्य प्रमुख ने क्षेत्र में शांति स्थापित करने की सेना की इच्छा का भी जिक्र किया। अफगानिस्तान के साथ समझौते के लिए निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से भारत वाले मोर्चे पर अभी भी तनाव बहुत ज्यादा है। ज़रूरत इस बात की है कि देश की नीतियां पूरी तरह सुरक्षा आधारित ही न हों, अपितु उनमें आर्थिक सरोकारों की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। गलत प्राथमिकताओं वाला दृष्टिकोण न तो भारत का कुछ संवार सकता है और न ही पाकिस्तान का। 

(मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)