उत्तर-पूर्व में भाजपा को कैसे मिली सफलता ?

विगत लगभग दो दशक से ऐसे विज्ञापन, पर्चे और अन्य प्रचार सामग्री देखने को मिल रही है, जिसमें यह प्रापेगंडा होता है कि इसाई समुदाय आम लोगों का तेजी से धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं। इस संबंधी दी जाने वाली उदाहरणें ज्यादातर उत्तर-पूर्वी राज्यों से संबंधित होती हैं। यह प्रापेगंडा भारत भर में इस्तेमाल किया जाता है, विशेष तौर पर चुनावों से पूर्व। यह प्रचार ही इसाइयों के खिलाफ नफरत का आधार बनता है और हमें ग्राहम स्वीवर्ट स्टेन जैसों के घिनौने कत्ल, कंधमाल जैसी बड़ी हिंसा और गिरिजाघरों पर हमले या अन्य छोटी-मोटी हिंसा जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। भारतीय जनता पार्टी  जैसी पार्टी, जो राम मंदिर, गऊ माता और हिन्दू राष्ट्रवाद की बात करती है, उन राज्यों में कैसे अपने लिए रास्ता बना सकती थी जहां इसाई धर्म वालों की बड़ी संख्या है, गऊ-मांस खाना जहां के लोगों के एक बड़े हिस्से की खाद्य आदतों में शामिल है और जहां कई ऐसे अलग-अलग कबीले और वर्ग हैं, इन वर्गों के हित दूसरों से टकराते हैं और यह वर्ग अपने राजनीतिक संगठन आदि बना कर अपने लिए अलग राज्य की भी मांग कर रहे हैं? ऐसे सभी राज्यों में चाहे प्रत्येक की स्थिति अलग-अलग है परन्तु इन राज्यों में भाजपा की रणनीति लगभग एक जैसी ही रही है। इसने लचकीला रवैय्या अपनाते, व्यापक स्रोतों का प्रयोग करके, समर्थ चुनाव मशीनरी का इस्तेमाल करके और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्त्ताओं के समर्थन द्वारा राज्य-दर-राज्य बहुत से राज्यों की सत्ता में हिस्सेदारी या सत्ता हासिल कर ली है। असम में इसने बंगलादेशी प्रवासियों और राज्य में मुसलमानों के भारी होते जाने की बात को मुद्दा बनाते हिन्दुओं को अल्प-संख्यक बन कर रह जाने का डरावा दिया। इसने बड़ी चालाकी से अलगाववादी संगठनों तक से भी गठबंधन कर लिए। ज्यादातर क्षेत्रीय संगठनों का कांग्रेस बारे यही मत था कि यह विकास के काम की तरफ ज़रूरी ध्यान नहीं देती। उधर भाजपा जहां एक तरफ तो अपने से अलग विचारधारा रखने वालों को ‘देश विरोधी’ करार देती रही, वहीं दूसरी तरफ इसने ऐसे संगठनों के साथ भी गठबंधन बनाने में कोई झिझक नहीं दिखाई जो अलग राज्य या यहां तक कि देश से अलग होने तक की मांग करते रहे हैं। त्रिपुरा में वामपंथी मोर्चे की सरकार अपने साफ-स्वच्छ रिकार्ड के बावजूद आरक्षण के मामले में अन्य पिछड़े वर्गों और कबायलियों की इच्छाएं पूरी करने में असफल रही। यह नौजवानों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने में भी बुरी तरह नाकाम रही, जिस कारण भाजपा को वायदे करने और विकास का भ्रम डालने का आधार मिल गया। यहां भाजपा ने मुख्य तौर पर दो ढंग-तरीकों पर नज़र रखी। इनमें से एक था विकास का वादा। जहां  पूरे देश में तो इसके विकास के दावों का पर्दाफाश हो चुका है और इन को सिर्फ वोटें बटोरने के जुमले ही माना जाने लगा है, वहीं उत्तर-पूर्व में भाजपा मोदी को विकास पुरुष के रूप में बेचने में सफल रही। नया वेतन आयोग लागू करने में माणिक सरकार की नाकामी से भी लोगों का बड़ा वर्ग नाखुश था। त्रिपुरा अभी चौथे वेतन आयोग पर ही फंसा हुआ है, जबकि शेष स्थानों पर सातवें वेतन आयोग की बातें चल रही हैं। दूसरी बात यह है कि त्रिपुरा में बंगाली हिन्दू वोटों को प्रभावित करने के लिए ‘हिन्दू रिफ्यूजी हैं और मुसलमान घुसपैठिये हैं’ वाला प्रचार भी इस्तेमाल किया गया। कबायली क्षेत्रों में संघ के कार्यकर्त्ता धार्मिक समारोह आदि आयोजित करके और स्कूल आदि खोल कर लम्बे समय से निरंतर काम कर रहे थे। उन्होंने भी माणिक सरकार के लिए नीचे से ऊपर लाने का काम किया क्योंकि माणिक सरकार की सरकार अवसर उपलब्ध कराने के मामले में कबायलियों की ज़रूरतें पूरी कर सकने में असफल रही थी। गऊ मांस के मुद्दे पर भाजपा ने खुलेआम दोहरी पहुंच को अपनाया कि गऊ मांस पर पाबंदी (जो देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में लागू की जा रही है) उत्तर-पूर्व में लागू नहीं की जाएगी। असल में संघ-भाजपा की ओर से उभारे जाने वाले बाकी बहुत से मुद्दों की तरह गऊ रक्षा की बात भी इसलिए समाज को बांटने का एक राजनीतिक औज़ार ही है और जब इसके साथ मत प्रभावित होने की नौबत आई तो पार्टी के मुद्दों ने नया रुख ढाल लिया जैसे इसने केरल और गोवा में इस मुद्दे पर किया था। इसाई मतों पर नज़र रखते श्री मोदी ने 46 नर्सों को आई.एस.आई.एस. से छुड़वाने और पादरी ऐलेक्स प्रेम कुमार को तालिबान की पकड़ से छुड़वाने की बातें बड़े ऊंचे स्वर में कीं। इस बारे अब कोई क्या कह सकता है? क्या उनको भारतीय होने के कारण छुड़वाया गया था या फिर किसी विशेष धर्म से संबंधित होने के कारण? जैसे कि श्री मोदी की राजनीति का स्वभाव ही है वह ऐसे मुद्दों का भी पूरे राजनीतिक ढंग से लाभ लेते हैं। एक ओर उनकी विचारधारा इसाइयों और मुसलमानों को विदेशी करार देती है लेकिन दूसरी तरफ चुनावी लाभों के लिए वह इन पहचानों का प्रयोग भी करती है। त्रिपुरा में कांग्रेस और टी.एम.सी. के विधायकों की बहु-संख्या पार्टी बदल कर भाजपा में शामिल हो गई। इस तरह उनके समर्थक वोटर भी भाजपा की तरफ चले गए। वास्तव में बंगलादेश विरोधी भावनाओं और विकास के भरमाने वाले वादों ने ही मुख्य तौर पर वहां भाजपा की नाव किनारे लगाई।मेघालय में स्थिति अलग थी। चाहे वहां कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आई और सरकार बनाने का मौका मिलने का पहला अधिकार भी उनका ही बनता था परन्तु हिन्दू राष्ट्रवादी राज्यपाल ने अलग सोच अपनाते दूसरी सबसे बड़ी पार्टी, जो भाजपा सहित लगभग प्रत्येक तरह की पार्टियों का गठबंधन था, को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। यहां चुनाव परिणामों से पूरी तरह ज़ाहिर था कि भाजपा लोगों का ़फतवा हासिल करने में असफल रही है। परन्तु यह क्षेत्रीय पार्टी से गठबंधन के कारण सत्ता में आ गई, जिसके कांग्रेस के साथ सुखद रिश्ते नहीं थे। भाजपा के व्यापक प्रभाव और धन की ताकत के प्रयोग ने भी अहम भूमिका निभाई।त्रिपुरा से वामपंथियों को बहुत-से सबक सीखने बनते हैं। नौजवानों, कबायलियों और अन्य पिछड़े वर्गों की ज़रूरतों पर पूरा उतरने वाली पहुंच अपनाई जाना बेहद ज़रूरी है। फिर उसके साथ-साथ वह भी बात है कि भाजपा सत्ता में आने के लिए कोई भी ज़ोर-आजमाइश करने से गुरेज़ नहीं कर रही, अगर इस अमल से निपटने की बात को नज़रअंदाज़ किया गया तो वामपंथियों और अन्य पार्टियों के वोट बैंक को गम्भीर  आघात लग जाएगा। कांग्रेस से गठबंधन न करने वाली पहुंच  (जिस को ‘करात लाइन’ के रूप में जाना जाता है) को अपनाया जाता रहा तो आने वाले समय में वामपंथी और हाशिये पर धकेले जाएंगे। यह पहुंच असल में संघ-भाजपा के गहरे एजेंडे और इसके प्रभावों से पूरी तरह अवगत ही नहीं है। यह इस खतरे को समझने में भी असमर्थ है कि भाजपा ने समय के साथ एक मज़बूत चुनाव मशीनरी खड़ी कर ली है और भाजपा मुद्दों को अपने हिसाब से इस्तेमाल करके इनसे लाभ हासिल करने में भी मुहारत हासिल कर चुकी है। 
लैनिन के बुत्तों और वामपंथी कार्यकर्त्ताओं पर हमलों के रूप में भाजपा/संघ की भड़काऊ राजनीति एक बार फिर ज़ाहिर हुई है। अगर देश की लोकतांत्रिक ताकतें इस चुनौती से निपटने में समर्थ न हो सकीं तो भविष्य क्या होगा, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।

(मंदिरा पब्पिकेशन्ज़)