हम नाखुश तो हैं ही और इसकी वजहें भी हैं...!

20मार्च 2018 को दुनिया ने हैप्पीनेस डे (खुशी दिवस) मनाया। वास्तव में मुझे तो पता ही नहीं चला, जैसे बाकी दिन बीतते हैं वैसे ही 20 मार्च भी गुजर गया। क्यों? संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि हम इस पृथ्वी ग्रह पर सबसे नाखुश देशों में से एक हैं और दक्षिण एशिया में तो प्रसन्नता के मामले में हमारी स्थिति सबसे दयनीय है। संयुक्त राष्ट्र ने प्रसन्नता के पैमाने पर 155 देशों को परखा, हमारा स्थान 122वां आया, बस अफ्रीका के सबसे गरीब देश ही सूची में हम से नीचे थे। सूची के जारी होते ही भक्तों ने गुस्से भरी अंगड़ाई ली - आप प्रसन्नता को परिभाषित कैसे कर सकते हैं? छोटा सा सैंपल लेकर संयुक्त राष्ट्र इतना बड़ा निर्णय कैसे सुना सकता है? यह मोदी सरकार को बदनाम करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश है। कहीं से एक तीर चला- जब व्यापार करने के मामले में रैंकिंग में हल्का-सा सुधार आया था तो इसे सरकार की बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया गया था, कहीं अंतर्राष्ट्रीय साजिश नहीं थी। इसलिए न्याय का तकाजा है कि इस बात की समीक्षा की जाये कि अध्ययन के अनुसार हम इतने अप्रसन्न क्यों हैं? हां, अपनी फ सल का न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने व ऋण के बोझ में दबे किसान आंदोलन कर रहे हैं व आत्महत्या भी कर रहे हैं, महिलाएं घर में व बाहर असुरक्षित हैं, अपराध निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, भ्रष्टाचार की स्थिति यह है कि महाराष्ट्र में राज्य सरकार चूहों को मारने के लिए एक कम्पनी को लगभग सवा चार लाख रुपये का ठेका देती है और कम्पनी सात दिन में 3,19,400 चूहे मारने का दावा करती है लेकिन यह नहीं बताती कि उसने इतने मृत चूहों को कहां व कैसे ठिकाने लगाया...जाहिर है इस किस्म की अनगिनत बातें एक देश को अप्रसन्न करने के लिए अपर्याप्त हैं। लेकिन इनमें से कोई भी उन छह चीजों में शामिल नहीं है, जिनके आधार पर खुशी को मापा जाता है, जोकि यह हैं- प्रति व्यक्ति जीडीपी, स्वस्थ जीवनावधि, स्वतंत्रता, विश्वास, सामाजिक सहयोग व दया। यह सही पैमाना प्रतीत होता है, इसलिए आलोचकों को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। इनमें से प्रत्येक में हम किस पायदान पर खड़े हैं? प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में हमारी स्थिति बहुत चिंताजनक है। इस संदर्भ में हम 2017 में 200 देशों में से 126 वें स्थान पर थे, जो ‘संसार की सबसे तेज विकास कर रही अर्थव्यवस्था’ के लिए निंदनीय है। संयुक्त राष्ट्र एक कदम आगे बढ़कर कहता है कि लोगों को वास्तव में अप्रसन्न बेरोजगारी व निम्न स्तरीय जॉब करते हैं। अपने देश में बेरोजगारी निरंतर बढ़ती जा रही है और संस्कार व परम्परा की दुहाई देते हुए हमने हाल के वर्षों में कुछ ऐसे बेतुके कदम उठाये हैं कि अनेक क्षेत्रों में लोगों के जमे जमाये धंधे भी चौपट हो गये हैं, जिससे परेशानियों में वृद्धि ही हुई है। 
लेकिन यह केवल अर्थव्यवस्था की ही कहानी नहीं है। मसलन, पिछले दो दशक में चीन ने प्रति व्यक्ति जीडीपी में जबरदस्त विकास किया है, लेकिन प्रसन्नता सूचकांक पर उसकी स्थिति में जरा भी सुधार नहीं आया है। मेरे पिता जी कहते हैं कि पैसा बहुत कुछ है, लेकिन सब कुछ नहीं है। इसका अर्थ यह है कि गैर ज़रूरी से प्रतीत होने वाले मुद्दे जैसे विश्वास, स्वतंत्रता व दया का भी बराबरी का महत्व है। भ्रष्टाचार में डूबे भारतीय समाज में आपसी विश्वास का अभाव है। व्यक्ति अपनी समस्या को लेकर पुलिस में जाता हुआ डरता है कि बिना पैसे के रिपोर्ट दर्ज नहीं होगी या दूसरी पार्टी से पैसा लेकर उसके खिलाफ  ही कार्यवाही हो सकती है। यही हाल बिजली, अस्पताल, नगरपालिका व अन्य सरकारी विभागों का है। नतीजतन नागरिकों व राज्य के बीच सम्पर्क, जाहिर है नौकरशाहों, नेताओं, कानून व्यवस्था लागू करने वालों व कर अधिकारियों के जरिये, अक्सर लेन-देन वाला है। इन समीकरणों में से किसी का भी आधार विश्वास नहीं है। कागज पर घोषित रूप से हम (दुनिया का सबसे बड़ा) लोकतंत्र हैं, लेकिन आजादी आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से जो ‘स्वर्ण वर्ग’ है केवल उसे ही प्राप्त है। अपने जीवन के विकल्पों को चुनने में अल्पसंख्यकों, चाहे वह धार्मिक हों या लैंगिक, के लिए बहुत सीमित स्वतंत्रता है। क्या कोई कसम खाकर कह सकता है कि पिछड़ी जातियां या गरीब आज वास्तव में स्वतंत्र हैं? एकमात्र राहत या बचाव का खाना वोट का अधिकार है, जिससे कार्यकाल पूरा होते ही अधिकतर सरकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, जो लोगों की अप्रसन्नता की ही अभिव्यक्ति है कि सरकारें उन्हें स्वतंत्र, आरामदायक व सुरक्षित जीवन देने में नाकाम रहीं। हालांकि अति धार्मिक होने के बावजूद हम में दया व उदारता का अभाव है, कुछ अपवाद अवश्य हैं, लेकिन परोपकार में हमारा रिकॉर्ड लिखने लायक नहीं है। हम अपने घरेलू सहायकों के साथ तक तो अच्छा व्यवहार करते नहीं, तो दूसरों की क्या मदद करेंगे। हमारा स्वभाव जमाखोरी का है, इसलिए अपने पैसे को जरूरतमंदों के साथ शेयर करने से बचते हैं। अत: आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विकसित देश सामाजिक समर्थन के पैमाने पर हमसे बहुत आगे हैं। सामाजिक सुरक्षा के विचार के अभाव में जब चुनौतीपूर्ण आर्थिक स्थितियां आती हैं जैसी नोटबंदी के दौरान आयीं या इस समय किसानों के सामने हैं, तो हम अपने को बिल्कुल बेसहारा महसूस करते हैं और यह हमारे अप्रसन्न होने का मुख्य कारण है। पिछले एक दशक के दौरान हमारी औसत आयु 62 वर्ष से बढ़कर 67 वर्ष अवश्य हुई है, लेकिन अन्य विकासशील देशों (75 वर्ष) की तुलना में यह बहुत कम है। अच्छा स्वास्थ्य लम्बे जीवन की जमानत होता है, लेकिन हम न सिर्फ   बीमारियों से जूझ रहे हैं बल्कि अच्छे उपचार व केयर के लिए भी तरस रहे हैं। ऐसे में चेहरे पर मुस्कान कहां से आयेगी? अगर आप गुजारे लायक पर्याप्त पैसा नहीं कमा रहे हैं, आपके पास अपनी पसंद का जॉब नहीं है, आपको अपने स्वास्थ्य की चिंता है, राज्य या साथियों पर विश्वास नहीं है, ज़रूरत के समय एकदम बेसहारा हैं, अपनी मर्जी से न खा सकते हैं, न पहन सकते हैं और न बोल सकते हैं, तो आप खुश कैसे रह सकते हैं? इसलिए संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की आलोचना करने की बजाय बेहतर है कि हम अपने अंदर झांकें और सुधार लायें। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर