फिर से राजनीति का केन्द्र बन सकता है आरक्षण

नब्बे के दशक की शुरुआत में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन का मुख्य निशाना अन्य पिछड़े वर्गों को दिये गये 27 ़फीसदी आरक्षण के विरोध में था। न उस समय और उसके बाद या पहले कभी इस देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संविधान द्वारा दिये गये आरक्षण के ख़िलाफ कभी कोई आंदोलन हुआ, लेकिन आरक्षण विरोधियों द्वारा अपनायी जाने वाली यह मर्यादा अब टूट गई है। दलितों के देश भर में हुए प्रदर्शन की प्रतिक्रिया में जिस तरह से द्विज जातियों ने सोशल मीडिया की मदद से देशव्यापी बंद करने की कोशिश की, उससे लगता है कि अब आरक्षण विरोधियों की गतिविधियां अपने हमले का दायरा व्यापक करते हुए सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करेंगी। ज़ाहिर है कि कोई राजनीतिक दल खुल कर इनका समर्थन नहीं करेगा, लेकिन उनकी कार्रवाइयों को पछन्न समर्थन कई तऱफ से मिलने वाला है। जल्दी ही आरक्षण एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में होगा और हो सकता है कि अगले चुनाव में इसी के इर्दगिर्द होने वाली राजनीति एक निर्णायक मुद्दे के रूप में सामने आए।   अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक कानून (एससी-एसटी एक्ट) पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी हिदायतें आरोपित के बाद हुए घटनाक्रम से तीन तरह के प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। पहला प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका का रवैया पूर्व-अछूत जातियों के विरोध में और द्विज जातियों के पक्ष में झुका हुआ है? दूसरा सवाल यह है कि दलितों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों का विरोध करने की हिंसक और आक्रामक शैली क्या उचित है? तीसरा प्रश्न है कि क्या इस प्रकरण के बाद 2014 और 2017 में मिले दलित वोट क्या उसकी झोली से निकल जाएंगे? करीब तेईस साल पहले राजस्थान में भंवरी देवी के साथ ऊंची जाति के लोगों द्वारा दुष्कर्म के मुकद्दमे के फैसले में अदालत ने आरोपियों को छोड़ते हुए कहा था कि वे यह दुष्कर्म कर ही नहीं सकते थे क्योंकि उससे उनकी जाति के अशुद्ध होने का खतरा था। इस फैसले के बाद से ही न्यायिक टीका-टिप्पणियों के जातिगत पहलुओं को बहुत ध्यान से देखा-परखा जाने लगा है। ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की है, और उनका यह भी दावा है कि उनकी हिदायतों से इन ़कानून का असर भी कम नहीं हुआ है। दरअसल, यही कहते हुए उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा दायर की गई पुनरीक्षण याचिका के बदले अपनी हिदायतें तुरंत वापिस लेने से इंकार कर दिया। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस कानून के दुरुपयोग की शिकायतें न केवल पारम्परिक द्विज जातियों की तऱफ से की जाती रही हैं, बल्कि हाल ही में मज़बूत हो चुकी पिछड़ी जातियों (जैसे मराठा, जाट, गुज्जर, कुर्मी, यादव और पटेल) की तऱफ से भी यह मसला उठा है। महाराष्ट्र में मराठाओं के मौन जुलूसों की मांगों में यह भी शामिल है। इसी कारण से इस कानून  से जुड़ी न्यायिक सक्रियता ने पूरे समाज को तकरीबन दो अघोषित किस्म के हिस्सों में बांट दिया है। न्यायपालिका पर जातिवादी होने का आरोप लगाने वाले पूछ रहे हैं कि सड़कों पर निकल कर आक्रामक विरोध करने वाले दलितों के खिल़ाफ कई जगहों पर पुलिस ने बल-प्रयोग का फैसला किया, पर इसी तरह का आक्रामक और हिंसक विरोध करने वाली राजपूतों की कर्णी सेना के ़िखल़ाफ कहीं कोई बल-प्रयोग नहीं किया गया था। इसी के उलट न्यायपालिका के समर्थकों द्वारा यह पूछा जा रहा है कि बिना जांच किये और बिना अंतरिम ज़मानत की सुविधा के केवल रपट के आधार पर की जाने वाली गिरफ्तारी क्या अपने आप में एक मुकद्दमे की हैसियत नहीं प्राप्त कर लेती। और, क्या इस तरह की गिऱफ्तारी कुल मिला कर आरोपी की प्रतिष्ठा को क्षति नहीं पहुंचा देगी, अगर वह बाद में मुकद्दमा जीत जाता है? इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट गिऱफ्तारी से पहले ज़मानत की संभावनाएं खोलना चाहता है, और एक निश्चित अवधि में जांच के बाद गिऱफ्तारी की हिदायत दे रहा है, तो इसमें क्या ़गलत है? 
इस पूरी राजनीतिक-बहस के केंद्र में दरअसल वह दीवार है जो अनुसूचित जातियों और बाकी समाज के बीच खड़ी हुई है। हम सभी को तय करना है कि हम इस दीवार के इधर हैं या उधर। अगर हम दलितों की तऱफ हैं तो हमें कोर्ट का यह फैसला अनावश्यक लगेगा, और हम कहेंगे कि जहां कानून स्पष्ट रूप से बना हुआ है वहां किसी किस्म की हिदायतें देने की ज़रूरत ही क्या थी। परम्परा भी यही है कि अदालत वहां हिदायतें देती है जहां कानून नहीं होता या अस्पष्ट होता है। अदालत को कानून बनाने का तो अधिकार है नहीं। लेकिन, अगर हम ़गैर-दलितों की तऱफ हैं तो हमें लगेगा कि अदालत ने सामाजिक न्याय की ़खातिर बनाये गए एक कानून के अतिवाद को संयमित करने का कदम उठाया है। दरअसल, इस दीवार का मौजूद रहना भारतीय समाज की विफलता है। इस दीवार की जड़ में वह हिकारत का भाव है जिससे ़गैर-दलित समाज दलितों को देखता है। इससे कोई ़फर्क नहीं पड़ता कि कोई दलित पढ़-लिख गया है, या समृद्ध हो गया है। दलितों का जो मध्यवर्ग भी उभरा है, उसे अभी तक भारतीय समाज के मध्यवर्ग की मुख्य धारा में जगह नहीं मिली है। दलित मध्यवर्ग इस मुख्यधारा से अलग एक कोने में बैठा रहता है। जब तक स्थिति रहेगी, तब तक दीवार रहेगी और तब तक इस तरह की अप्रिय पक्षधरता की आवश्यकता हमें सताती रहेगी। 
जहां तक दलितों द्वारा विरोध प्रदर्शन करने की शैली का सवाल है- यहां एक दम नयी प्रवृत्ति के दर्शन किये जा सकते हैं। दलितों ने ठीक उसी तरह से आंदोलन किया है जिस तरह पिछले दिनों आरक्षण की मांग को लेकर जाटों और गुज्जरों ने आंदोलन किये थे : रास्ता रोकना, आगजनी करना, दुकानों पर हमला करना, मारपीट करना, पत्थरबाज़ी करना और रेल की पटरियां उखाड़ना। दलित युवक मुंह पर फेंटे बांधे और हाथ में डंडे लिए देखे जा सकते थे। यह दिखाता है कि दलितों का कम से कम एक हिस्सा जाटों-गुज्जरों-पटेलों की तरह ‘प्रभुत्वशाली जाति’ की मानसिकता से आक्रांत हो गया है। हालांकि समाज के धरातल पर उन्हें अभी तक प्रभुत्वशाली जाति की स्थायी हैसियत प्राप्त नहीं हुई है, पर उनकी यात्रा उसी दिशा में है। कुछ समाज-वैज्ञानिक शोध भी इसी तऱफ इशारा कर रहे हैं। अगर यह प्रवृत्ति मज़बूत हुई और इसकी दो-तीन अभिव्यक्तियां और दिखीं, तो व्यापक समाज में दलितों और ़गैर-दलितों के बीच ध्रुवीकरण और तीखा हो जाएगा। तीसरा प्रश्न वोटों की राजनीति से जुड़ा है। भारतीय जनता पार्टी इस समय कुछ हिली हुई है। उसे लग रहा है कि कहीं उस पर फिर से ब्राह्मण-बनिया पार्टी का ठप्पा तो लगने नहीं जा रहा है। इसी छवि को ़खत्म करने के लिए मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले चार साल से बहुत कोशिशें की हैं। लेकिन दूसरी तऱफ अगर विपक्ष अगर यह सोच रहा है कि वह इस प्रकरण को उठा कर भाजपा के दलित वोटों को तोड़ लेगा, तो मैं समझता हूं कि वह कुछ जल्दबाज़ी में है। गौ-रक्षकों द्वारा दलितों पर किये जाने वाले अत्याचारों (़खासकर ऊना की घटना) और रोहित वेमुला प्रकरण के बाद भी इसी तरह की ़खामख्याली पैदा हो गई थी कि अब भाजपा को दलितों का एक वोट भी नहीं मिलेगा। लेकिन भाजपा ने उत्तर प्रदेश में इस धारणा को गलत साबित किया। जब तक दलित समाज के भीतर आरक्षण और सत्ता की नज़दीकियों से मिलने वाले लाभों का सही बंटवारा नहीं होगा, तब तक भाजपा दलितों के बीच उभर आई प्रभुत्वशाली जातियों और छोटी दलित बिरादरियों के बीच के अंतर्विरोध का लाभ उठाती रहेगी। यह अंतर्विरोध अभी भी कायम है और इसका अंदाज़ा ओम प्रकाश राजभर के वक्तव्य से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने आम दलित रवैये से हटते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तऱफ झुके हुए आशयों का वक्तव्य दिया है। राजभर को ही केंद्र बना कर उत्तर प्रदेश में भाजपा ने ़गैर-जाटव दलित गोलबंदी की थी। हां, यह अलग बात है कि अगर भाजपा इस दलित विक्षोभ को नहीं संभाल पाई, और हालात इसी तरह से बिगड़ते चले गए तो संघ परिवार का दलित-प्रोजेक्ट के बिखरने की नौबत आ सकती है।