दो गज़ जमीं भी न मिली कूचे यार में

मेहरबान, आपने मुझे पूछा है कि आप इस बेलौस दुनिया में जहां एक आदमी की कीमत किसी अमीर के घर से निकले कूड़े-कबाड़ से अधिक नहीं, हंसने की धृष्टता कैसे कर सकते हैं? क्या आपको पांच साल पहले घटे निर्भया कांड के बाद ऐसे ही कांडों के प्रतिरोध के लिए बने सख्त कानूनों की मिट्टी उड़ती नज़र नहीं आई। इसके बाद न जाने कितने असहाय लोगों के कैंडल मार्च निकल गये, लेकिन राजनीति के गलियारों में भटकी रूहें वापिस नहीं लौटीं।
ग्यारह महीने तक भद्रजनों की रेप से पीड़ित अव्यस्क लड़की दोषियों को उचित दण्ड देने की मांग करती रही, लेकिन दण्ड तो उसके बाप को मिला, जिसको माननीयों ने अपने कैदघरों के सीखचों के पीछे पीट-पीट कर मार डाला। लेकिन राजनीति ने इसे वोट बैंक की अदावत का नाम दिया। उधर एक मासूम लड़की का शरीर कई दिन तक इन्सानी दरिन्दे नोचते रहे, मर गई तो उसे दफनाने के लिए दो गज़ ज़मीन किसी ने न दी। फिर इस अमानवीय दुष्कर्म को इलाके के आर्थिक संकट के समाधान से गड्डमड्ड कर दिया गया। विज्ञ पुरुष इसमें से विदेशी हाथ तलाशने लगे। मरी हुई बेटी की लाश को अपने कन्धों पर उठा उसकी जमात का, हुजूम का कारवां वह इलाका छोड़ कर चला गया, तो कोई शर्मिन्दा न हुआ। सब ने यही कहा कि मौसम बदल गया है। मौसम बदलने पर वे लोग हमेशा यहां से चले जाया करते हैं।
इन निर्मम टिप्पणियों के व वगूलों में किसी ने नहीं पहचाना कि उनके हाथों में एक मासूम लाश भी थी, जिसे उस बस्ती में कहीं दफन करने की इजाज़त नहीं मिली थी। दुष्यन्त तो अब रहे नहीं, होते तो इस प्रस्थान करते हुए कारवां को देख कर कह देते, ‘यहां दरख्तों, के साये में धूप लगती है, चलो यहां से उम्र भर के लिए।’ लेकिन यहां तो हर सायेदार दरख्त के नीचे धूप है। आदमी कहां-कहां से चला जाये उम्र भर के लिए। 
गम्भीर चेहरे जिन्हें हमेशा खच्चरों की तरह उदास रहने का मिज़ाज मिला है, मुझसे खीझ कर पूछते हैं ‘आपको शर्म नहीं आती, आप हर विडम्बना पर हंसने का संदेश देते हैं।’ क्या जवाब दूं, आपने विसंगतियों की इस बरसात में हमेसा मेरी मुस्कराहट देखी है, लेकिन वे आंसू नहीं देखे जो इन आंखों से बह-बह कर बरसाती पानी में मिलते रहे। सही है यह बात कभी चार्ली चैप्लिन ने कही थी, आज मैं भी कहता हूं। आकाश में घुमड़ते बादलों को देख कर कहता हूं। इतने बादल गरज-गरज कर कहते रहे दुख के दिन बीते रे भय्या अब सुख पायो रे,‘रंग जीवन में नया लायोरे।’ 
यह रंग अच्छे दिनों का वायदा था। हम उनका भाषण सुन मंत्रमुग्ध से इनकी तलाश में चले थे। इसकी तलाश में नामहीन लोग कतारों में खड़े थे, अच्छे दिन तो नहीं मिले। उनमें खड़े होने की नियति हमारे साथ हो ली। यह कतार आधार कार्ड में संशोधन करवाने वालों की है। संशोधन करवाओगे तो मरने की इजाज़त मिलेगी, नहीं तो इसके बिना दाह कर्म तो हो जायेगा, लेकिन मरने का प्रमाण-पत्र नहीं मिलेगा।
आपने पूछा क्या करना है प्रमाण-पत्र लेकर? जब इस दुनियाए फानी से कूच ही कर गये तो अपने पीछे अपनी मौत का प्रमाण-पत्र छोड़कर गये या नहीं, इससे क्या अन्तर पड़ता है?
अरे साब पड़ता है, क्यों नहीं पड़ता? उम्र भर खटने के बाद जो कुल्ली तुमने इस झोपड़पट्टी में बनाई है, मरने का प्रमाण-पत्र मिलेगा, तो तुम्हारे वारिस उस पर काबिज़ होंगे। प्रमाण पत्र नहीं मिला, तो भू-माफिया की गिद्ध आंखें उस पर लगी हैं। उनकी झपट में चला गया, तो गरीबों की कुल्लियों को भूमि सात करके माल प्लाज़ा बनते देर ही कितनी लगती है।
तभी एक जानकार ने बताया तुम्हारी सहचर चल बसे तो उसकी पैन्शन उगाहने के लिए भी तो तुम्हें मृत्यु प्रमाण-पत्र चाहिए। बिन पानी सब सून तो सुना था, और अब बिना आधार कार्ड कैसी उगाही?
नहीं यारों ने तो एक और रास्ता निकाल लिया। आधार कार्ड नहीं, मृत्यु प्रमाण-पत्र नहीं, तो जीवन संगी की लाश फ्रिज में रखो और उसे जिन्दा बता उसकी पैंशन उगाहते रहो। अगर पड़ोसी से तुम्हारी खुशहाली न देखी जाये, तो उसकी शिकायत पर अपने फ्रिज पर छापे का इंतज़ार करो। जी हां, सही फरमाया आपने यह बात हंसने की नहीं रोने की है। लेकिन यहां तो लोग हंसते हंसते कब रोने लगते हैं, कुछ पता नहीं चलता। 
जैसे अच्छे दिन आने की घोषणाओं की बरसात में भीगता आदमी हंसता है कि रोता है कुछ पता नहीं चलता। या कि गुज्जरों का डेरा जब अपनी बेटी की लाश उठा कर निर्जन पहाड़ों में लौट गया, तो आपने कहा मौसम बदलने 
पर गये हैं। अब इस बात पर हम हंसे कि रोयें?