विश्व पुस्तक दिवस पर विशेष : पुस्तकें पढ़ने का कम होता रुझान

बेहतर ज़िंदगी का रास्ता बेहतर पुस्तकों से होकर गुजरता है। पुस्तकें अब तक मनुष्य द्वारा रचित सबसे बड़ा चमत्कार है। पुस्तकें हम में सोचने, समझने की क्षमता पैदा करती हैं और इन्सानियत का पाठ पढ़ाकर एक अच्छा मनुष्य बनाने की भूमिका निभाती हैं। पुस्तकों का एक ऐसा विलक्षण संसार है, जिसने अपने दामन में समूचे इतिहास को और मानव जाति के सुलझे अनुभवों को संभाल कर रखा है। किसी विद्वान का कथन है कि दुनिया एक महान पुस्तक है, जिसमें वह लोग जो कभी घर से बाहर नहीं निकलते, सिर्फ एक पाठ ही पढ़ सकते हैं। तिलक जी कहते हैं कि मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा, क्योंकि इनमें वह शक्ति है, जहां वह होंगी वहां स्वयं ही स्वर्ग बन जायेगा। 
भारत ने आज़ादी के बाद पुस्तकों के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। आज भारत प्रकाशन के क्षेत्र में दस बड़े प्रकाशक देशों में शामिल है। भारत विश्व में एकमात्र ऐसा देश है, जहां लगभग 18,000 से अधिक प्रकाशकों द्वारा 34 भाषाओं में 1,00,000 से अधिक नई पुस्तकें हर वर्ष प्रकाशित की जाती हैं। पंजाबी दुनिया की 11वीं बड़ी भाषा है, जिसको बोलने वाले 14 करोड़ से अधिक लोग दुनिया के लगभग 150 देशों में बसते हैं। 
पुस्तक में पाठक को प्रभावित करने की क्षमता होनी चाहिए। यह तब ही हो सकता है, यदि पुस्तकों में जन-हित की बात की हो। जो पुस्तक पाठक के दिल को छूती है, उसके लिए हर कीमत चुकाने को पाठक तैयार रहता है। पुस्तक मेलों में यह आम देखा गया है कि स्तरीय पुस्तकों को पाठक ढूंढ-ढूंढ कर खरीदते हैं और ऐसी पुस्तकों के कई-कई संस्करण भी प्रकाशित होते हैं। स्तरीय पुस्तकों का धुआंधार प्रचार होना चाहिए, तब ही बड़ी संख्या में पाठकों को पुस्तकों के निकट लाया जा सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा पुस्तकें पढ़ने का रुझान पश्चिम बंगाल के लोगों में है, वहां पान की दुकानों पर भी पुस्तकें बिकती हैं। स्मरण रहे कि भारत में पुस्तक मेले लगाने की शुरुआत भी पश्चिम बंगाल से हुई थी। सबसे पहला पुस्तक मेला कोलकाता के कालेज स्ट्रीट में 1918 को लगाया गया था, जिसमें दुनिया के प्रसिद्ध साहित्यकार रबीन्द्रनाथ टैगोर सहित साहित्यिक हस्तियों ने हिस्सा लिया था। 
घरों में भी पुस्तकों के लिए जगह होनी चाहिए। खुशी की बात है कि पंजाबियों ने रहने के लिए बड़े-बड़े मकान बना लिए हैं और वह अन्य सुविधाओं से भी लबालब भरे हुए हैं परन्तु कई घरों में एक आधी अलमारी भी पुस्तकों के लिए नहीं है। फिजूल रस्मो-रिवाज़ों के लिए बड़े-बड़े आडम्बर किए जाते हैं, परन्तु एक पुस्तक पर पैसे खर्च करने के लिए सौ बार सोचा जाता है, जिससे कि यह बढ़िया जीवन जीने की दिशा मिलती है। वास्तव में पढ़ने की आदत घर से ही पैदा होती है। स्कूल जाकर पक्की होती है और जीवन भर फायदा देती है। 11 वर्ष से 16 वर्ष के बच्चों में अभिभावकों तथा अध्यापकों का प्रभाव ग्रहण करने की आयु होती है। बच्चों के प्राथमिक वर्षों में पुस्तकें पढ़ने की रुचि पैदा करने के लिए बाल साहित्य सभाएं या रीडर क्लब अहम भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में अध्यापक योग्य नेतृत्व कर सकते हैं। प्राथमिक चरण से ही बच्चों में अपनी मातृ-भाषा के प्रति रुचि विकसित हो सकती है। स्कूलों में छात्रों के लिए हर रोज़ एक घंटा पढ़ने के लिए आरक्षित रखना चाहिए। इस घंटे के दौरान वह अपनी मनमज़र्ी की पुस्तकें पढ़ सकते हैं। बच्चों की पुस्तकों की ओर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। बच्चों को खूबसूरत दिखने वाली ज्ञान भरपूर पुस्तकें मुहैय्या करवाई जाएं। भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों की शुरुआत ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई थी। आज़ादी के बाद डा. एस.आर. रंगाराजन ने पुस्तकालय स्थापित करने में अहम योगदान डाला था। 1948 में उन्होंने मद्रास पब्लिक लाइब्रेरी एक्ट पास करवाया और 1972 में केन्द्र सरकार ने राजा राम मोहन राय पुस्तकालय फाउंडेशन की स्थापना की, जिसके तहत कई राज्यों में पब्लिक लाइब्रेरी एक्ट पास होते हैं। धूल से भरी और अप्रचलित पुस्तकों के भंडार को लाइब्रेरी नहीं कहा जा सकता। अच्छी देखरेख वाली, दिलचस्प और संवेदनशील पुस्तकों से भरी हुई, कम्प्यूटर से लैस और बैठने के लिए खुले स्थान वाली ही लाइब्रेरी जिज्ञासु युवाओं को अपनी ओर खींच सकती है। बच्चों के जन्मदिन पर और विवाह-शादियों के अवसर पर पुस्तकें भेंट की जाएं। यदि पुस्तकें उत्तम, उपयोगी, संवेदनशील, दिलचस्प ज्ञान भरपूर, सरल और रोचक भाषा में दिलकश रूप में छापी जाएं और उनकी कीमत भी उचित रखी जाए तो दुनिया की ऐसी कोई शक्ति नहीं,  जो पुस्तकें पढ़ने के रुझान को विकसित होने से रोक सके। पावलो नेरूदा का कथन है कि आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, यदि आप करते नहीं कोई यात्रा, यदि आप पढ़ते नहीं कोई पुस्तक।

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