कटघरों में जीते आरोप


हमें तो मालूम भी नहीं कि महाभियोग क्या होता है, लगाया कैसे जाता है? मासूम ने हमें पूछा। वह मासूम अली थे या मासूम कुमार, हम नहीं जानते? लेकिन आज के ज़माने में जब नौसरबाज़ आपके हाथों की उंगलियां गिनते हुए एक उंगली निकाल कर ले जायें, कोई मासूम कैसे रह सकता है, हम नहीं मानते। लेकिन यह जनाब मासूम हैं तभी तो हमसे जन-अभियोग के बारे में पूछ रहे हैं।
शायद सुन लिया है कि राज्यसभा के पचास और लोकसभा के सौ सांसद भारतीय लोकतंत्र के अभी तक स्वच्छ स्तम्भ न्यायपालिका के मुखिया पर जन अभियोग लगा उसे लोकतांत्रिक अदालत में घसीटना चाहते हैं। लीजिये, राजनीतिकरण के इस ज़माने में क्या अब यह स्तम्भ भी साबुत नहीं बचेगा? यहां या सरकार की हामी भरो और प्रतिबद्ध कहलाओ या धारा से उलटी बात कहकर क्रांतिकारी सोच का मुखौटा धारण करो? साहिब छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर कटना तो खरबूजे ने ही है। जनता आज भी यह मानने के लिए तैयार नहीं। न्यायपालिका को लेकर एक चमकीली छवि उसके मन में बसी है, यहां दूध का दूध और पानी का पानी होता है। कानून की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है, लेकिन वह बोलती सही है। कानून के राज में देर है, पर अन्धेर नहीं। लीजिये, जुमलेबाज़ों के राज में रहते हैं न। हर बात पर जुमले उछल कर सामने आ जाते हैं, आड़े-तिरछे नृत्य करते हुए जुमले चिल्लाते हैं। ‘राजनीति में विजयश्री का सवाल है बाबा।’
अपने बड़े-बूढ़ों से सुना था उनके समय में सार्वजनिक स्थानों पर अलग घड़े पड़े रहते थे। ‘हिन्दू पानी, मुसलमान पानी।’ आज इस पानी की रंगत बदल गई, एक सत्ता के प्रासाद-सा पानी और दूसरा सत्ता के विपक्ष-सा गुलगपाड़ा। किसी ओर से जांच लो कटता तो बेचारा खरबूजा ही है। छुरी चाहे कुर्सी वाले के हाथ हो या कुर्सी छीनने की कोशिश में लगे महानुभाव के पास। कुछ भी अघटनीय घट जाये। मासूम बच्चियों से दुष्कर्म हो जाये, तो पहले पता करो कि हिन्दू दुष्कर्म है या मुस्लिम दुष्कर्म? आजकल क्या धर्म के कटघरों में बंट कर इन्सानियत कम शर्मसार होती है?
जनता के खून-पसीने की कमाई भद्रजन घपला घोटाला करके चल दिये, तो आरोपी को दण्ड से बचाने के लिए ठण्डा बस्ता खोल लो, लेकिन फिलहाल ‘मेरी कमीज़ से तेरी कमीज़ अधिक मैली’ का फार्मूला अपना कर अपने घपले को कम गंदला घोषित कर लो। मंतव्य खरबूजे की तरह कटती जनता के लिए स्पष्ट है कि जब इससे पहले इतने बड़े-बड़े घपले झेल चुके हो, तो हमारे बन्धु बान्धवों ने छोटा-सा यह घपला कर लिया, तो क्या प्रलय आ गई? महापुरुष बाइज्जत रिहा हो जायेंगे, फिर क्रांति तोरण द्वार सजायेंगे।
खरबूजे से कटे-फटे लोग क्रांति के इस महामंडन को देखकर चकित नहीं होते, केवल चमत्कृत होकर क्रांति के इन नये मसीहाओं का करतल ध्वनि से स्वागत करते हैं। अरे क्रांति हो गई। देखते नहीं हो एक राज्य की धर्मप्राण सरकार ने पांच उग्र हो रहे साधु संन्यायियों को राज्यमंत्री का संदेश दे दिया। अब वह सत्ता की मीनार पर बैठकर ध्यानस्थ मुद्रा में शांति संदेश बांट रहे हैं। हर स्थापित मूल्य को तर्क से श्रद्धा की कसौटी पर खण्डित कर दो। भूख से कहीं ज़रूरी है आध्यात्मिक शांति।  इहलोक से ज़रूरी है परलोक की चिन्ता।
इस चिन्ता में से जन अभियोग के तेवर मिटा दो मिटा दो इन तेवरों के वजूद को, जैसे तुमने अविश्वास प्रस्ताव के प्रयास का वजूद गुलगुपाड़े से मिटाया। इसके साथ ही अगर संसद का सत्र भी बिना चर्चा बह गया, तो अपनी-अपनी आत्मशुद्धि के लिए उपवास प्रति उपवास कर लो। राजनीतिकरण के इस पायजामे में आत्मपरिष्कार पर भी क्यों न राजनीति हो जाये।
अवश्य। राजनीति ही तो वह चोर गली है, जिससे हर आरोपी मुक्ति पा जाता है। ये जनअभियोग लगाने वाले और झेलने वाले भी मुक्ति पा जायेंगे? नहीं मुक्ति पायेगा तो अंतिम सांस गिनता हुआ वह मासूम अली नही, न हीं मासूम कुमार। अजी छोड़िये नाम में क्या रखा है? आप उसके भूखे पेट की पीठ से सटी आंतड़ियों की सुध लीजिये। स्वच्छ भारत के नारों के बीच उसका और भी अस्वच्छ होता जीवन देखिये। ‘सब को घर सब को छत’ का संदेश देने वाले तो हमारे वोट बटोर इन चोर गलियों से सत्ता के प्रासादों की ओर चले गये। आप कहते हैं नाम में क्या रखा है? शैक्सपीयर साहब आप गलत थे, नाम में ही तो सब कुछ रखा है। इसी से तो अच्छे दिनों पर जाति और धर्म के पैबन्द लगते हैं।
अब तो हमने अपने बच्चों के स्कूली ब्यौरों से लेकर जनगणना तक में यह सब कटघरे उजागर करने शुरू कर दिये। जनता को पता तो चले अपना कौन है, पराया कौन? किसने कहा था रोटी का रंग एक ही होता है। जब पिछले बरसों में पानी अलग घड़ों में बंट सकता था, तो आज क्या रोटी के अलग टिफिन नहीं सजाये जा सकते? बल्कि आज से हमारा यह टिफिन भी अलग कर दो भय्या!