चुनावों में प्रभावी साबित हो सकता है इनेलो-बसपा का गठबंधन


हरियाणा में इनेलो व बसपा के बीच हुए गठबंधन ने प्रदेश के राजनीतिक हलकों में हलचल पैदा कर दी है। इस गठबंधन का जहां दोनों दलों के कार्यकर्ताओं ने स्वागत किया है, वहीं विरोधियों ने गठबंधन को अवसरवादी करार देते हुए इसकी आलोचना की है। गठबंधन की घोषणा पिछले हफ़्ते इनेलो नेता और हरियाणा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अभय सिंह चौटाला और बसपा के हरियाणा सहित पांच राज्यों के प्रभारी व पूर्व मंत्री डा. मेघराज सिंह ने इनेलो प्रदेशाध्यक्ष अशोक अरोड़ा, पूर्व सीपीएस रामपाल माजरा व बसपा के प्रदेशाध्यक्ष प्रकाश भारती व बसपा नेता व पूर्व मंत्री अकरम खान सहित अनेक प्रमुख नेताओं की मौजूदगी में किया। इनेलो-बसपा नेताओं का दावा था कि चुनाव की घोषणा के वक्त सीटों का बंटवारा किया जायेगा। फिलहाल दोनों दल मिलकर प्रदेश सरकार के खिलाफ अभियान चलाएंगे ताकि प्रदेश को भाजपा सरकार से मुक्त किया जा सके।
इससे पहले 1998 के लोकसभा चुनावों के वक्त भी इनेलो व बसपा के बीच गठबंधन हुआ था और उस समय इस गठबंधन का दोनों दलों को काफी फायदा भी हुआ था। लेकिन गठबंधन ज्यादा देर तक चल नहीं पाया। उस समय इनेलो ने 7 सीटों पर और बसपा ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस गठबंधन को पांच सीटों पर जीत हासिल हुई थी और पहली बार बसपा ने अंबाला सीट जीतकर हरियाणा से लोकसभा में अपना खाता खोला था और अमन कुमार नागरा सांसद बने थे। इनेलो ने सिरसा, हिसार, कुरुक्षेत्र व सोनीपत की सीटें जीती थीं और रोहतक व भिवानी की सीटें मामूली अंतर से इनेलो प्रत्याशी हार गये थे। उस समय इनेलो-बसपा गठबंधन के सामने हविपा-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। उस समय प्रदेश में भी बंसी लाल के नेतृत्व वाली हविपा-भाजपा गठबंधन की सरकार थी, लेकिन दोनों दलों को मात्र एक-एक सीट हासिल हुई और तीन सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। इनेलो-बसपा गठबंधन को मिली जीत का असर यह हुआ कि लोकसभा चुनाव के कुछ समय बाद ही हरियाणा में हविपा-भाजपा गठबंधन टूट गया और प्रदेश में गठबंधन सरकार का भी पतन हो गया।
एक सीट वाली पार्टी बसपा
हरियाणा में पिछले 27 सालों से बसपा चुनाव लड़ती आई है और आज तक पार्टी का 6 में से 5 चुनावों में मात्र एक विधायक चुनाव जीतकर आता रहा है। पहली बार 1991 में नारायणगढ़ से बसपा प्रत्याशी सुरजीत कुमार धीमान विजयी हुए और बसपा का प्रदेश में खाता खुला था।
1996 में बसपा का कोई प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत पाया लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव में जगाधरी से बिशनलाल सैनी विधायक चुने गए। 2005 में छछरौली से अर्जुन सिंह बसपा विधायक बने और 2009 में जगाधरी से अकरम खान चुनाव जीतकर न सिर्फ विधायक बने, बल्कि डिप्टी स्पीकर भी रहे। 2014 के पिछले चुनाव में फरीदाबाद संसदीय क्षेत्र के पृथला विधानसभा हलके से टेक चंद शर्मा विधायक चुने गए। उल्लेखनीय बात यह रही कि बसपा के विधायकों की संख्या कभी बढ़कर दो नहीं हुई और जो भी बसपा विधायक चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचता रहा वह निर्दलीय विधायकों की तरह मौके की सरकार के साथ ही रहा।
बसपा का विशेष प्रभाव
हरियाणा के यमुनानगर अंबाला, पंचकूला, कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत, सोनीपत, फरीदाबाद व पलवल जिलों में बसपा का विशेष प्रभाव देखा जाता है। जीटी रोड के साथ लगते यह ज्यादातर जिले उत्तर प्रदेश से सटे हुए हैं और यूपी में मायावती की चार बार सरकार बनने और दोनों राज्यों की सीमाएं आपस में लगने के कारण इन जिलों में बसपा का विशेष प्रभाव देखा जाता है। वैसे तो प्रदेश के सभी हलकों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा इनेलो व बसपा का प्रभाव है लेकिन दोनों दलों के इकट्ठे होने से यह प्रभाव और भी ज्यादा हो जाता है। वैसे भी इनेलो और बसपा के वोट आपस में ट्रांसफर होने वाले वोट माने जाते हैं और 1998 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन दस की दस लोकसभा सीटों पर अपना प्रभाव दिखा चुका है। इस गठबंधन का फायदा दोनों ही दल देख रहे हैं। इनेलो विधानसभा के पिछले तीन चुनाव हार चुकी है और करीब 13 सालों से भी ज्यादा समय ये सत्ता से बाहर है। दूसरी तरफ बसपा सिर्फ एक बार इनेलो के साथ गठबंधन करके लोकसभा की एक सीट जीत चुकी है और अकेले चुनाव लड़कर कभी भी एक सीट से आगे नहीं बढ़ पाई।
बसपा का 2009 के चुनावों के लिए कुलदीप बिश्नोई की पार्टी हजकां के साथ गठबंधन भी हुआ था लेकिन चुनाव से ऐन पहले गठबंधन टूट गया। अब भी इनेलो-बसपा के विरोधी यही प्रचार कर रहे हैं कि गठबंधन हो तो गया है लेकिन चुनाव तक गठबंधन कायम रह पायेगा या नहीं, इसकी क्या गारंटी है? वैसे अगर गठबंधन रहता है तो निश्चित तौर पर प्रदेश में यह एक बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है। गठबंधन की घोषणा के साथ ही कांग्रेस व सत्ताधारी भाजपा के खेमों में हलचल देखने को मिल रही है। चुनाव क्योंकि नजदीक आ रहे हैं इसलिए सभी की नजरें प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों और अगले चुनाव पर लगी हुई हैं और इनेलो-भाजपा गठबंधन को प्रदेश की राजनीति में एक बड़ी घटना के तौर पर देखा जा रहा है। इस बार आम आदमी पार्टी भी प्रदेश की सभी लोकसभा व विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है। ‘आप’ का हरियाणा में क्या प्रभाव रहेगा यह भी चुनाव में देखने वाला होगा। इस बार इनेलो-भाजपा में गठबंधन के कोई आसार नहीं रहे और कांग्रेस की तरह भाजपा भी अकेले ही चुनाव मैदान में उतरने की तैयारियों में है।
अकेली बसपा का वोट प्रतिशत
हरियाणा में बसपा विधानसभा व लोकसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़कर औसतन 6-7 प्रतिशत वोट हासिल करती रही है लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने प्रदेश में अकेले चुनाव लड़कर करीब पौने 16 प्रतिशत वोट हासिल करके सभी राजनीतिक दलों व चुनावी पंडितों को चौंका दिया था। उस समय मान सिंह मनहेड़ा बसपा के हरियाणा प्रभारी थे और उन्होंने न सिर्फ पार्टी खड़ी करने के लिए जी तोड़ कोशिश की, बल्कि लोकसभा चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनका अपना खुद का भी अच्छा खासा प्रभाव और वोट बैंक था। उसके बाद उनमें से ज्यादातर प्रत्याशी बसपा छोड़ गए। इस बार बसपा न सिर्फ एक के आंकड़े को पीछे छोड़ना चाहती है, बल्कि सत्ता में भी अपनी हिस्सेदारी कायम करने को उत्सुक है। दूसरी तरफ लगातार तीन चुनाव हारने के बाद हाथी पर सवार होकर इनेलो भी सत्ता में वापसी के प्रयासों में लगी हुई है। अगले चुनाव तक गठबंधन का क्या भविष्य होगा और अगर गठबंधन कायम रहता है तो चुनाव में क्या स्थिति रहेगी यह तो अगले चुनाव के वक्त ही साफ हो पायेगा, लेकिन एक बात साफ है कि इनेलो-भाजपा में गठबंधन होते ही अन्य दलों में काफी हलचल नज़र आ रही है।
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