वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए दिये जाते हैं विवादित बयान !

अक्सर समाचार पत्रों तथा जनसंवाद के साधनों के माध्यम से महत्वपूर्ण एवं संवैधानिक गरिमा से युक्त पदों पर विराजमान नेताओं से लेकर अधिकारियों तक के ऐसे बयान, टिप्पणियां, कटाक्ष और केवल एक दूसरे की आलोचना के लिए भाषण सुनकर सामान्य श्रोता या दर्शक की समझ में यह नहीं आता कि उनका बात का सिर कहां है और पैर कहां हैं। वह इनकी कही बात का मतलब ही निकालता रहता है और उसे अपने आप पर ही भ्रम होने लगता है कि कहीं उसकी समझ तो कम नहीं हो गई! जब उसे इन बातों में बेतुकापन नजर आता है तो वह सोचने लगता हे कि कहीं उससे उन्हें चुनने में गलती तो नहीं हो गई और उसने व्यक्ति या पार्टी के नाम पर एक ऐसे नेता को वोट देकर उस पद पर बिठा दिया जिस पर वह अपनी ऊल-जुलूल बयानबाजी के कारण बैठने का किंचितमात्र भी अधिकारी नहीं है। वोटर के पास उसका हल चूंकि पांच वर्ष से पहले नहीं आ सकता इसलिए उसे जैसे-तैसे झेलना ही पड़ेगा!  एक उदाहरण जो अभी हाल ही में देश की जनता ने देखा वह यह है कि त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने न जाने क्या सोचकर कह दिया कि एक भूतपूर्व विश्व सुन्दरी इस अलंकरण के कतई लायक नहीं थी क्योंकि वे उतनी सुन्दर नहीं है, उनका रंग सांवला है जो इन्हें इस विश्व सम्मान को पाने का अधिकारी नहीं बनाता। उन्होंने एक अन्य महिला का भी उल्लेख कर दिया जो विश्व सुन्दरी रह चुकी है।
अपमानित महिला ने इस प्रकरण को ज्यादा तूल नहीं दिया वरना होना तो यह चाहिए था कि या तो वे स्वयं अथवा उनकी ओर से कोई अन्य जागरूक नागरिक मुख्यमंत्री जी को अदालत में ले जाता और एक महिला के प्रति असम्मानजनक टिप्पणी करने के आरोप में उन पर मुकद्दमा दायर करता और मांग करता कि चाहे एक रूपया ही सही, उनके खिलाफ  अदालत द्वारा जुर्माना लगाया जाए।
इसी तरह का एक बयान एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने, जो अपने प्रदेश को अपनी मिल्कियत समझते रहें हैं, दुष्कर्म को लेकर कहा था कि ‘लड़कों से ऐसी गलतियां हो ही जाती हैं’, इसलिए उन्हें इसके लिए भारी सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। उनकी मंशा रही होगी कि लड़के हैं तो उन्हें वह सब करने का लाईसेंस दिया जाना चाहिए जो समाज के लिए एक घिनौना अपराध है।
सीधे-सीधे कहा जाए तो उन्होंने बच्चियों या युवतियों के साथ छेड़खानी से लेकर जबरदस्ती यौन संबंध स्थापित करने का पक्ष लेते हुए ऐसा बयान दिया जो एक नेता को कतई सुशोभित नहीं करता। उन्होंने अपने इस बयान से पोस्को कानून और दुष्कर्म को लेकर अन्य कानूनों को भी तोड़ा। उन पर भी किसी जागरूक नागरिक को मुकद्दमा चलाना चाहिए था और उन्हें सजा दिलवाई जानी चाहिए थी।
अभी पिछले दिनों एक नेता ने यह बयान दिया है कि समाज में यदि नैतिकता लानी है तो शिक्षा की प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था को लागू करना चाहिए और बच्चों को उसी तरह शिक्षित किया जाना चाहिए जैसा तब किया जाता था। भला बताईए, आज के टैक्नालॉजी प्रधान युग में इस तरह की शिक्षा प्रद्धति का क्या कोई  औचित्य ठहराया जा सकता है? आज इंटरनेट और संचार साधनों ने पूरी दुनिया को एक मोबाईल और कम्प्युटर जैसे छोटे-छोटे यंत्रों में सीमित कर दिया है और आप बच्चों को उस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से पढ़ाना चाहते हैं जिसका अता-पता भी कदाचित उन्हें नहीं होगा। हमने तो यही सुना है कि गुरुकुल जंगलों में होते थे, किसी के साथ संपर्क करना सुगम नहीं था, विद्यार्थी भिक्षा मांगकर अपने और अपने गुरुओं के भोजन का प्रबंध करते थे और उन्हें अस्त्र-शस्त्र चलाने सिखाए जाते थे। इसी तरह गाय को लेकर देश में आन्दोलन से लेकर ताण्डव तक देखने को मिलता है, उसे क्या कहा जाए? एक बहुपयोगी पशु जिसका दूध अनेक बीमारियों का नाशक है, स्वास्थ्यवर्धक है, पौष्टिक है और जिसके शरीर का प्रत्येक अंग मानव कल्याण के काम आता है, उसे भी हमारे राजनीतिज्ञ विवाद का मोहरा बना देते हैं। उसकी सेवा या पालन-पोषण और ठीक से देखभाल करना तो दूर, कुछ असामाजिक और राजनीतिज्ञ तत्व अपनी रोटियां सेंकते हैं जिसकी मिसाल शायद पूरे विश्व में कहीं और न मिले। एक दूसरा दुधारू पशु भैंस है जिसका मांस निर्यात करने के मामले में हम दुनियाभर में पहले नम्बर पर हैं और जो विदेशी मुद्रा अर्जित करने का एक प्रमुख स्त्रोत है, उसकी रक्षा के नाम पर बूचड़खाने पर ताला लगवा दिया जाता है। राष्ट्रगान, वंदे मातरम और राष्ट्रीय ध्वज को लेकर घमासान और अपमान करने की घटनाएं जब तब सामने आती ही रहती हैं। हालांकि इस तरह की बेमतलब रुकावटों को रोकने के लिए कानून हैं लेकिन जिस देश मेें ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की कहावत पर ज्यादा अमल किया जाता है तो वहां किसी समझदारी की अपेक्षा करना ‘भैंस के आगे बीन बजाना’ ही है।
एक और उदाहरण है। अभी हाल ही में संस्कृति मंत्रालय ने एक औद्योगिक समूह के साथ करार किया कि एक निश्चित राशि का भुगतान कर और लाल किले में टिकटों की बिक्री का पैसा अपने पास न रखकर सरकार को ही मिलने की शर्त पर उसका कायाकल्प किया जाएगा। यह कार्य अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी समझकर सरकार के उस नियम का पालन करते हुए होगा जिसके अन्तर्गत किसी भी निजी या सरकारी संस्थान के लिए एक निश्चित राशि इस मद में खर्च किया जाना अनिवार्य है अन्यथा जुर्माना लगाने और अन्य कार्रवाई करने का प्रावधान है। अब विपक्षी दलों के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि सरकार ने लाल किले को बेच दिया और वह भी ऐसे व्यक्ति को जो उनके मुताबिक शायद इस देश का वासी ही नहीं है। यदि सरकार देश में अपने ही बनाए कानूनों के अन्तर्गत कोई करार करती है तो इससे राष्ट्रीय धरोहर को बेचा जाना कहां सिद्ध होता है? सरकार को तो अतिरिक्त पैसा भी मिला, लाल किले का रख-रखाव और सौन्दर्यकरण भी हो गया और उसमें सभी आधुनिक सुविधाओं का होना भी सुनिश्चित हो गया। अभी की हालत यह है कि लाल किले में जाने पर यही पता नहीं चलता कि पीने का पानी कहां मिलेगा या शौचालय कहां होगा? परन्तु हमारे राजनीतिज्ञों और दलों को तो सुर्खियों में बने रहने का बस एक बहाना चाहिए, अब इससे चाहे अपना नुकसान हो या जनता की भावनाओं को भड़काने से दंगे फसाद तक हो जाएं, उन्हें क्या फर्क पड़ता है?  
जनता का भटकाव
यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या यह अनियन्त्रित बयानबाजी जानबूझकर तो नहीं की जाती है ताकि लोगों का ध्यान बेरोजगारी, अनपढ़ता से लेकर घपलों और घोटालों तक न जाए और वे नेताओं के बयानों में ही उलझे रहें। इसे कतई नासमझी तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि सरकार में कोई ऊंचा पद या ओहदा पाने के लिए एक निश्चित मात्रा में समझदारी तो चाहिए ही होती है। तो फिर यह क्या है, कहीं यह मात्र जनता को जब तक हो सके, भटकाए रखने की साजिश तो नहीं है।