क्या विकास की ओर अग्रसर है भारत ?

हमारा देश भारत, विश्व के मानचित्र पर उभरते सितारे की भांति चमक रहा है। नवीन तकनीक के पग से पग मिलाकर चलता हमारा देश विश्व में अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा रहा है। अपनी एक अमिट छाप छोड़ने की ओर अग्रसर है। मगर जैसे ही हम सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ ताज़ा खबरों की ओर रुख करते हैं तो पृष्ठों पर छपी सुर्खियां विकास का यह आवरण पीछे धकेल, वास्तविकता के कटु, भयानक सत्य से हमारा परिचय करवाती हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बनती जा रही अपराध, अपहरण, लूट-खसूट आदि की घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि क्या हमारा राष्ट्र वास्तव में प्रगति की ओर अग्रसर है? किसी भी राष्ट्र का विकास जन-सामान्य की विकास दर पर निर्भर होता है। नागरिकों का जीवन स्तर, उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, देश की विकास दर को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि हम वास्तविकता पर नज़र डालें तो मन में यह सवाल उठना भी लाज़िमी है कि यदि राष्ट्र वास्तव में विकास की ओर उन्मुख है तो आज का युवा वर्ग, शिक्षित होकर भी अपनी योग्यता व ज्ञान के अनुरूप नौकरी की तलाश में दर-ब-दर क्यों भटक रहा है? शहरों, गांवों, कस्बों में अपराधों में निरन्तर बढ़ोतरी क्यों होती जा रही है? न जाने कितने लोग अपने पेट की क्षुधा शांत करने के लिए व अपने परिवार का पालन करने हेतु, अपने प्रियजनों से दूर विदेशी धरती पर कदम रखने को बाध्य हो जाते हैं। बेरोज़गारी की मार से पीड़ित व्यक्ति अपराध जगत में प्रवेश करने से भी संकोच नहीं करता।
‘बेरोज़गारी’ का सबसे बड़ा कारण है निरन्तर बढ़ती जनसंख्या। जिस हिसाब से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उसके अनुसार नौकरियां नहीं हैं। हमारी शिक्षा-व्यवस्था भी कुछ ऐसी है कि शिक्षित तो अवश्य करती है मगर रोज़गार की गारंटी नहीं देती। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति को अधिक से अधिक रोज़गार के योग्य बनाए, उसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। शिक्षा तो बेरोज़गारी के विरुद्ध एक प्रकार का बीमा होना चाहिए। जहां शिक्षकों को नौकरी पाने के लिए धरने देने पड़ते हैं, प्रशासन की बर्बरता का शिकार होना पड़ता है, जहां ‘अन्नदाता’ कहे जाने वाले कृषक को ‘आत्महत्या’ जैसा नैराश्य भरा कदम उठाना पड़ता है, जहां शिक्षित व्यक्ति को उसकी योग्यता व ज्ञान के आधार पर रोज़गार मिलना सम्भव नहीं हो पाता, भला वह राष्ट्र कैसे महान हो सकता है? तकनीकी विकास के चलते देशी-विदेशी बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने कम लागत पर सस्ता माल उपलब्ध करवा कर लघु व कुटीर उद्योगों को निष्प्राण कर डाला। कारीगरों का स्थान बड़ी-बड़ी मशीनों ने ले लिया व कला व कौशल के धनी हाथ पाई-पाई को मोहताज हो गए। यद्यपि सरकारें योजनाएं बना रही हैं। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, मुद्रा लोन योजना, आवास योजना, जन-धन योजना आदि योजनाओं का लक्ष्य जन-सामान्य की विकास दर को बढ़ाना व जीवन स्तर को सुधारना ही है, फिर भी बेरोज़गारी के विकराल दानव के समक्ष ये ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही सिद्ध हो रही हैं।  इस समय का एक अत्यंत दु:खद उदाहरण हाल ही में देखने को मिला, जब भारत से रोज़गार की तलाश में पहुंचे 40 भारतीय कामगारों को इराक में आई.एस.आई.एस. के आतंकवादियों ने बंदी बनाकर रखा व बाद में उनकी बर्बरतापूर्वक हत्या की पुष्टि हुई। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि मारे गए 39 कामगारों में से 27 कामगार पंजाब प्रांत से संबंध रखते थे, जिसे कि देश के खुशहाल प्रांत का दर्जा हासिल है। वास्तव में देखा जाए तो यह घटना जहां एक ओर हमारे वास्तविक विकास की पोल खोलती है वहीं राजनीतिक व्यवस्था पर भी अनेक सवाल खड़े करती है।योजनाएं बनाने व लागू करने में बहुत अंतर होता है। विकास तभी सम्भव है जब योजनाएं सिर्फ कागज़ी कार्यवाही न बनकर, वास्तव में क्रियान्वित हों। जब तक देश का नागरिक रोज़गार का मोहताज रहेगा, दर-ब-दर, सही-गलत राह पर भटकता रहेगा तब तक हम कैसे कह सकते हैं कि ‘हमारे भी अच्छे दिन आ गए हैं’, हमारा देश विकास की ओर अग्रसर है?

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