प्रकृति की चेतावनियों को कब तक अनदेखा करेंगे हम ?

देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों में पिछले कुछ दिनों के भीतर कुदरत ने अपना जो कहर बरपाया है, वह कुदरत के साथ बड़े पैमाने पर हो रही मानवीय छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है। कुदरत के कहर से हो रही भारी तबाही का आलम यह है कि प्रचण्ड धूल भरी आंधियों, बेमौसम बर्फबारी, ओलावृष्टि, बादलों का फ टना, भारी बारिश और आसमान से गिरती बिजली ने न केवल सैंकड़ों जिंदगियां लील ली हैं बल्कि हज़ारों लोग घायल हुए हैं, हजारों मकान बुरी तरह ध्वस्त हुए हैं और हज़ारों मवेशी मारे गए हैं, अरबों रुपये की सम्पत्ति और फ सलें तबाह हुई हैं। 
बद्रीनाथ-केदारनाथ में बेमौसम बर्फ बारी ने हर किसी को हैरत में डाल दिया है, हिमाचल के शिमला, मनाली, रोहतांग सहित कई इलाके सफेद चादर से ढक गए, जम्मू-कश्मीर में बेमौसम बर्फबारी से कई इलाके एकाएक सर्दी की चपेट में आने से मुसीबतें बढ़ गईं। संभवत: देश के इतिहास में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर चेतावनियां जारी हो रही हैं। 9 मई को सायंकाल देश के कई हिस्सों में आए भूकम्प के झटकों ने हर किसी को भयभीत कर डाला है। दूसरी ओर अमरीका की विख्यात अतंरिक्ष अनुसंधान संस्था ‘नासा’ द्वारा सौर तूफान पृथ्वी के करीब पहुंचने की पुष्टि की गई है। हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य के पृष्ठ भाग में होने वाले परिवर्तन के कारण इस तरह के सौर तूफान प्राय: 100-200 वर्षों में आते रहे हैं लेकिन इस बार इसे लेकर भयावह स्थिति की आशंका इसलिए जताई जा रही है कि अगर अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों को सौर तूफान और कॉस्मिक किरणों का झटका लगा तो इन उपग्रहों पर निर्भर मोबाइल, इंटरनेट, दूरसंचार, जीपीएस सरीखे तमाम अत्याधुनिक नेटवर्क ठप्प हो जाएंगे।जहां तक फि लहाल देश में प्रकृति की विनाशलीला की बात है तो अगर हम अतीत में झांककर देखें तो देश में इससे पहले भी कई बड़े तूफान आए हैं, दिल्ली में ही 1974 में आए टोरनाडो तूफान के दौरान तूफानी हवाओं ने डीटीसी बस को भी उड़ा दिया था। उसके बाद भी देश में कई बार बड़े आंधी-तूफान आए हैं। 1990 और 1996 में आंध्र प्रदेश में आया भयानक तूफान हो या 1998 में गुजरात का विनाशकारी तूफान अथवा 1999 में उड़ीसा में आया प्रचण्ड चक्रवात, जिनमें हजारों लोग काल के ग्रास बन गए और गांव के गांव मरघट में तबदील हो गए थे किन्तु इस बार इतने व्यापक दायरे में मौसम का आकस्मिक बदलाव पहली बार देखा गया है। वर्षा ऋतु में आसमान में बादलों का नामो-निशान तक नजर नहीं आता, वहीं वसंत ऋतु में बादल झमाझम बरसने लगते हैं, सर्दियों में मौसम एकाएक गर्म हो उठता है और गर्मियों में अचानक पारा लुढ़क जाता है। अचानक ज्यादा बारिश होना या एकाएक ज्यादा सर्दी या गर्मी पड़ना और फि र तूफान आना, पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन के ये भयावह खतरे बार-बार सामने आ रहे हैं और मौसम वैज्ञानिक अब स्वीकारने भी लगे हैं कि इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में और भी जल्दी-जल्दी विकराल रूप में सामने आ सकती हैं। कोई भी बड़ी प्राकृतिक आपदा आने के पश्चात् प्राय: यही कहा-सुना जाता है कि ये आपदाएं अचानक आती हैं किन्तु यह सच नहीं है, बल्कि प्रकृति अचानक कुछ नहीं करती और बार-बार इसके संकेत, चेतावनी तथा संभलने का अवसर देती रहती है लेकिन हम आदतन किसी बड़े खतरे के सामने आने तक उन्हें नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। अगर पिछली दो सदियों में आए कुछ बड़े विनाशकारी तूफानों की बात करें तो 25 नवम्बर 1839 को आंध्र प्रदेश के कोरिंगा में आए चक्रवाती तूफान ने तीन लाख लोगों की बलि ली थी और 25 हजार जहाज उस तूफान में बर्बाद हो गए थे। 1 नवम्बर, 1876 को बैकरगंज तूफान में करीब दो लाख लोग मारे गए थे, वियतनाम में 1881 में आए हैपोंग तूफान ने तीन लाख लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। 8 नवम्बर 1970 को बंगाल की खाड़ी से शुरू हुए भोला साइक्लोन नामक तूफान ने पूर्वी पाकिस्तान में कहर बरपाते हुए पांच लाख लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया था। 24 दिसम्बर 2004 को हिन्द महासागर में आए सुनामी तूफान ने दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के तटवर्ती इलाकों में कहर बरपाया था, जिसका असर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पुडुचेरी में भी देखा गया था। इस तूफान में डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण पिछले तीन दशकों से जिस प्रकार मौसम चक्र तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज हुआ है, उसके बावजूद अगर हम नहीं संभलना चाहते तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2016 की दुनियाभर के शहरों का विश्लेषण करने के बाद सामने आई रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों में से 14 अकेले भारत में ही हैं। कोई माने या न माने पर सच यही है कि मनुष्य प्रकृति की गोद में एक शिशु के समान है किन्तु विड़म्बना यह है कि वह स्वयं को प्रकृति का स्वामी समझने की भूल कर बैठा है और मानवीय गतिविधियों के चलते प्रकृति के बुरी तरह से दोहन का नतीजा बार-बार प्रकृति के प्रचण्ड प्रकोप के रूप में हमारे सामने आता रहा है।सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फि र सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवरेज ट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। भले ही सरकारी तौर पर कितने ही व्यापक स्तर पर स्वच्छता अभियान का प्रचार-प्रसार किया जाता रहा हो किन्तु हकीकत यह है कि हम आज भी अपने आसपास के वातावरण को साफ -सुथरा बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते। 
आज भी हमें अपने घर या दुकान का कूड़ा-कचरा सड़कों पर फैंकने में खुशी मिलती है। सड़कों पर या जहां भी हम खड़े हैं, वहीं खड़े-खड़े थूकते रहने की लोगों की आदत में कोई बदलाव नहीं आया है। उत्तर प्रदेश में पीलीभीत में तूफान मानवीय गलतियों की ही वजह से एक साथ कई गांवों पर कहर बनकर टूटा। दरअसल वहां कई किसानों ने अपने खेतों को अगली फ सलों के लिए खाली करने हेतु पराली में आग लगाई थी और जैसे ही तूफानी आंधी ने दस्तक दी तो पराली से निकली आग आसपास के दर्जन भर गांवों पर तबाही बनकर बरसी। बड़ी आपदाएं आने के बाद सरकारों द्वारा मुआवज़े के सहारे पीड़ितों के आंसू पोंछने की कोशिशें की जाती हैं किन्तु ऐसी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं हो पाती कि ऐसी आपदाओं के समय जान-माल के नुकसान की संभावना न्यूनतम रहे। देश के कई राज्यों में बरपे तूफान के कहर से पहले राजस्थान में जान-माल की व्यापक हानि हुई, जिसका एक प्रमुख कारण रहा कि तूफान आने की जानकारी राज्य के मौसम विभाग को कई घंटे पहले हो जाने के बावजूद विभाग द्वारा इसे लेकर जिला प्रशासन और आपदा प्रबंधन विभाग को अलर्ट करने के बजाय इसकी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डालकर पल्ला झाड़ लिया गया। पिछले माह जब मौसम विभाग द्वारा भविष्यवाणी की गई कि इस साल जून से सितम्बर के बीच सौ फीसदी बारिश होगी और देश में सूखे की कहीं कोई संभावना नहीं है, तब हर कोई खुशी से उछल रहा था, लेकिन किसी ने यह जानने-देखने की जरूरत महसूस नहीं की कि इस प्रकार की भविष्यवाणियों या पूर्वानुमानों का पूर्व में क्या हश्र होता रहा है? गत वर्ष भी सामान्य बारिश के पूर्वानुमान लगाए गए थे किन्तु देश के 640 जिलों में से महज 40 फीसदी में ही सामान्य बारिश हुई थी, करीब 40 फीसदी जिले सूखे की चपेट में रहे जबकि 15 फीसदी जिलों में भयानक बाढ़ की स्थिति बन गई थी। आंधी-तूफान को लेकर तो मौसम विभाग का कहना भी है कि इसकी सटीक भविष्यवाणी संभव नहीं है और इसे समय पर सभी लोगों तक पहुंचाना बहुत मुश्किल है। वैसे प्रकृति हमें बार-बार अपना रौद्र रूप दिखाकर चेतावनी देती रही है कि यदि हमने प्रकृति के साथ अंधाधुंध खिलवाड़ बंद नहीं किया तो उसके कितने घातक परिणाम होंगे लेकिन विडम्बना ही है कि प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखने के बावजूद हम हर बार प्रकृति की इन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित करते रहे हैं।

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