क्या हैं विपक्षी दलों के लिए कर्नाटक चुनावों के संकेत  ?

कर्नाटक में भाजपा जीती (भले ही उसे पूर्ण बहुमत न मिला हो), और कांग्रेस हारी-इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए। लेकिन, राजनीतिक विश्लेषकों की निगाह से यह हकीकत भी नहीं बची रह सकती कि कांग्रेस की पराजय में उसकी राष्ट्रीय राजनीति की आहटें सुनाई दे रही हैं। जनता दल (सेकुलर) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना पाते हैं या नहीं, अथवा सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा सदन के पटल पर बहुमत साबित कर पाती है या नहीं, इन सवालों का जवाब जल्दी ही मिल जाएगा। लेकिन कर्नाटक की तऱफ से उस राजनीति की रूप-रेखा दिखने लगी है जो 2019 के चुनाव में खेली जाएगी। अगर कांग्रेस और कुमारस्वामी का गठजोड़ बना रहा तो एक मोटी गणना के अनुसार इस प्रदेश की 28 लोकसभा सीटों में से भाजपा केवल छह ही जीत पाएगी यानि पिछली बार की 17 सीटों में से उसकी 11 सीटें कम हो जाएँगी। यह बिल्कुल उत्तर प्रदेश जैसा नज़ारा है, जहाँ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठजोड़ भाजपा की चालीस से पचास सीटें कम कर सकता है। यानी कर्नाटक की राजनीति का संदेश यह है कि 2019 की लड़ाई क्षेत्रीय स्तर पर किये गए भाजपा-विरोधी गठजोड़ों के ज़रिये लड़ी जाने वाली है। उत्तर से दक्षिण तक यही होना है। कांग्रेस को भी इसी के मुताबिक अपनी कमर कसनी होगी, और भाजपा को भी इसकी काट तलाशनी होगी। 
कर्नाटक चुनाव की मतगणना के दौरान दो बजे के बाद एक ऐसा घटनाक्रम शुरू हुआ जिसने कांग्रेस की पराजय में से बेस़ाख्ता कुछ इस प्रकार की परिस्थिति निकाल ली जिससे विपक्ष की राष्ट्रीय राजनीति को नये तरह का पानी मिलना दिखाई देने लगा। देखते-देखते घंटे भर में भाजपा की बढ़त 121 से घट कर 105 पर आ गई और कांग्रेस आलाकमान ने एक विकट रणनीतिक दाँव लगाते हुए जनता दल (सेकुलर) को मुख्यमंत्री पद देने का प्रस्ताव कर दिया। इस प्रस्ताव को जद (स) के नेता कुमारास्वामी द्वारा स्वीकार किये जाते ही, बाजी एक तरह से पलट गई। इससे जो हालात बने, वे विकट और विचित्र थे। सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को ही सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने की प्रबल संभावनाओं के बावजूद सारे देश की क्षेत्रीय ताकतों के बीच संदेश चला गया कि कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए अपनी वरिष्ठता को छोड़ने के लिए भी तैयार हो सकती है। हर सूरत में दूरगामी दृष्टि से यह कदम उठा कर कांग्रेस ने भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की अपनी पहलकदमी को एक नयी रंगत दे दी। इससे पहले हालत यह थी कि सभी समीक्षक जीती हुई बाजी हारने के लिए कांग्रेस की लानत-मलामत कर रहे थे, और हारी हुई बाजी जीतने के लिए मोदी और अमित शाह की शान में कसीदे पढ़े जा रहे थे। भाजपा ने इस चुनाव में रणनीतिक कौशल कुछ ऐसा ही प्रदर्शित किया था कि उसकी प्रशंसा होना स्वाभाविक था। रणनीतिक पहलकदमियों के नज़रिये से देखें तो चुनाव मुहिम की शुरुआत से ही कांग्रेस भाजपा से आगे लग रही थी। उसके पास प्रदेश के 17 ़फीसदी लिंगायतों की पहले से चली आ रही भाजपा समर्थक एकता को तोड़ने का प्रभावी ़फार्मूला था। इसीलिए कांग्रेस द्वारा शिवलिंग धारण करने वाले इस शक्तिशाली समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का दाँव खेला भी गया था। इसी के साथ कांग्रेस के पास कन्नड़ अस्मिता का औज़ार था जिसके अनुसार कन्नड़ भाषा को हिंदी के ऊपर प्राथमिकता देने और प्रांत के अलग झंडे की माँग उठाई गई थी। ऊपर से मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की लोकलुभावन भाग्य योजनाएँ और इंदिरा कैंटीन जैसे कार्यक्रम बहुत कामयाब थे। कहा जाता था कि भाजपा के कार्यकर्ता भी खाना खाने के लिए इंदिरा कैंटीन के सस्ते भोजन का लाभ उठाते हैं। कांग्रेस की इस सरकार के ़िखल़ाफ जनता का कोई स्पष्ट रोष भी नहीं दिख रहा था। एक अति-पिछड़ी कुरुबा जाति के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में अनुसूचित जातियाँ, पिछड़े वर्ग और मुसलमान एकजुट लग रहे थे। कर्नाटक एक समृद्ध प्रांत है। मीडिया में पहले से चर्चा थी कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का राजनीतिक खर्चपानी सिद्धारमैया की सरकार ही चला रही है। ज़ाहिर है कि ऐसी कर्नाटक कांग्रेस के पास चुनाव लड़ने के लिए भाजपा जितने तो नहीं लेकिन पर्याप्त संसाधन रहे होंगे। भाजपा की रणनीति के कारण ऐसे तमाम अनुकूल हालात होने के बावजूद यह पार्टी स़ाफ तौर से चुनाव हारते हुए दिख रही थी। इसका कारण था भाजपा की कामयाब दुहैरी रणनीति। उसने सुनिश्चित किया था कि पुराने मैसूर के वोक्कलिंगा वोट जनता दल (सेकुलर) को ही मिलें, और उसके अपने लिंगायत वोटों में कांग्रेस अल्पसंख्यक दर्जा देने का प्रलोभन दे कर दरार न डाल सके। इसके लिए भाजपा ने जद (से) के साथ एक अघोषित गठजोड़ सा कर लिया, और वोक्कलिंगा इलाके में अपने कम से कम बीस ‘डमी प्रत्याशी’ खड़े किये। इसके जवाब में देवगौड़ा परिवार ने सुनिश्चित किया कि भाजपा के कुछ उम्मीदवारों को वोक्कलिंगा वोट मिल जाएँ। चुनाव के दौरान कांग्रेस के पास इस रणनीति का कोई जवाब नहीं निकला। लेकिन कुमारास्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव रख कर कांग्रेस ने भाजपा के इस अघोषित सहयोगी को न केवल अपनी ओर खींच लिया, बल्कि वयोवृद्ध देवगौड़ा द्वारा अपने बहुजन समाज पार्टी जैसे सहयोगी दलों (जिनके साथ उन्होंने गठजोड़ करके चुनाव लड़ा था) को दिये गये आश्वासन की लाज रखने का मौका दिया। दरअसल देवगौड़ा ने मायावती को भरोसा दिया था कि वे चुनाव के बाद अपने बेटे कुमारास्वामी को भाजपा के साथ मिल कर सरकार नहीं बनाने देंगे। अब स्थिति यह है कि कांग्रेस अचानक कुमारास्वामी के साथ सहयोग कर रही बसपा और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सहयोगी बन गई है, और कर्नाटक की पराजय में भाजपा के ़िखल़ाफ राष्ट्रीय मोर्चे की रूप-रेखा दिखने लगी है। 
इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि कांग्रेस की डगर आसान हो गई है। दरअसल, कांग्रेस को हर प्रदेश में अपनी राष्ट्रीय हैसियत और साथ-साथ में अपनी क्षेत्रीय हैसियत का इस्तेमाल करते हुए ऐसे ही भाजपा विरोधी मोर्चों को खड़ा करना पड़ेगा। जिन चार राज्यों (राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिज़ोरम) में अब चुनाव होंगे, वहाँ कांग्रेस भाजपा की मुख्य विपक्षी पार्टी है। इसलिए उसे वहाँ किसी गठजोड़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन महाराष्ट्र समेत अन्य कई प्रांतों में उसे यह भूमिका निभानी पड़ सकती है। तमाम प्रतिकूलताओं के बीच कांग्रेस के सामने एक अनुकूल स्थिति यह है कि क्षेत्रीय शक्तियों के साथ जो गठजोड़ बनाने में उसे विधानसभा चुनावों में दिक्कत आ सकती थी, वही गठजोड़ लोकसभा चुनाव में उसके लिए आसान हो सकता है। उत्तर प्रदेश का उदाहरण उसके सामने है। चूँकि 2019 में अखिलेश और मायावती की मुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षाएँ दाँव पर नहीं हैं, इसलिए लोकसभा के लिए इन दोनों पार्टियों में आसानी से गठजोड़ हुआ जा रहा है। कांग्रेस जानती है कि इसी स्थिति का लाभ उसे महाराष्ट्र और झारखंड जैसे प्रांतों में ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल जैसे प्रांतों में भी मिल सकता है। कर्नाटक का प्रयोग एक तरह से सारे देश में कांग्रेस के लिए रास्ता खोलने वाला साबित हो सकता है।