आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं है

पहले परीक्षा देने और फिर परिणाम निकलने का इंतजार और उसकी घोषणा होने तक विद्यार्थियों की मन:स्थिति क्या होती है यह समझने के लिए अपना वो समय याद करना ही काफी है जिसका सामना हम सभी ने कभी न कभी अवश्य ही किया होता है। ऐसे में जब इस तरह की बातें सुनने, पढ़ने और देखने में आती हैं कि नतीजों के अपने अनुकूल न आने,  फेल हो जाने और भविष्य अंधकारमय नज़र आने के कारण किसी विद्यार्थी ने आत्महत्या का रास्ता चुना है तो मन में अवसाद, दुख तथा बेचारगी का भाव आना स्वाभाविक है। प्रश्न यह नहीं है कि किसी ने यह रास्ता चुना जो उसे सबसे बेहतर लगा बल्कि यह है कि वह कौन से कारण हैं जिनकी वजह से 15 से 18 या फिर 25 तक की आयु के छात्र-छात्राएं यह आत्मघाती कदम उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह बात तब और भी अधिक विचलित कर देती है जब यह कदम उठाने वाले ज्यादातर वे होते हैं जो सभी कक्षाओं में अच्छे नम्बर लाते रहे हैं लेकिन बोर्ड की दसवीं या बारहवीं कक्षा में उनके नम्बर कुछ कम रह गये या वे सही रैंक या स्थान पाने से चूक गए। परेशानी की बात यह है कि आत्महत्या करने वालों में 60-70 प्रतिशत से लेकर 99 प्रतिशत तक अंक पाने विद्यार्थी मेहनती और देश के लिए कुछ कर सकने में सक्षम थे। इन होनहार बच्चों ने मात्र दो-चार अंक या प्रतिशत के कम-ज्यादा होने से अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ली। यह किसी व्यक्ति परिवार की ही क्षति नहीं है बल्कि समाज और देश का भारी नुकसान है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। कारण क्या है? आत्महत्या किसी के लिए भी उचित नहीं है। जीवन में मजबूरियां हो सकती हैं ; जैसे कि पारिवारिक या व्यक्तिगत समस्याएं, आर्थिक तंगी और पढ़ाई के दौरान कमाई करने की मजबूरी। इसके अतिरिक्त स्कूल, कालेज या शिक्षा संस्थान में ही पढ़ाई-लिखाई की ठीक व्यवस्था ही न हो और विद्यार्थी बार-बार फेल होता रहता है इसमें उसका कतई दोष नहीं है।इसके साथ ही अन्य बहुत से कारण हो सकते हैं  जैसे कि स्कूल में शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों के साथ बुरा व्यवहार, शिक्षक को सरकार या प्रशासन की ओर से पढ़ाने के बजाय दूसरे कामों में व्यस्त रखना जिसमें नेताओं और अधिकारियों के व्यक्तिगत कामों से लेकर, टीका लगाने, पोलियो की दवा पिलाने, आबादी के आंकड़े इकट्ठा करने और चुनाव के दौरान ड्यूटी लगने जैसे काम आते हैं। जहां तक आंकड़ों की बात है, हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग दस हज़ार विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं। जीवन समाप्त करने के लिए उनमें से ज्यादातर को कोई योजना नहीं बनानी पड़ती है। घर ही में सभी सामग्री या उपकरण मिल जाते हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है कि जो अवस्था जीवन की नींव मज़बूत करने, उसे संवारने की होती है उसमें कोई अपने ही हाथों अपना अंत कर दे तो यह कितनी बड़ी त्रासदी है। इसे मात्र दुर्घटना कहना या समझना भूल है क्योंकि कोई भी विद्यार्थी अपनी खुशी, रोमांच और कुछ करके दिखाने की भावना लेकर तो अपना जीवन समाप्त नहीं करेगा।कोई भी विद्यार्थी यह कदम तभी उठाता है जब उसके सामने कोई और विकल्प नहीं रहता। हमारी शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि नम्बरों और प्रतिशत के आधार पर ही विद्यार्थी की योग्यता नापने का पैमाना बना दिया गया है। यदि कोई विद्यार्थी पूरे वर्ष अच्छे नम्बर लाए लेकिन अन्तिम परीक्षा के दौरान बीमार हो जाए, किसी मुसीबत में पड़ जाए, पारिवारिक, सामाजिक, प्राकृतिक दुघर्टना का शिकार हो जाए और उसका परिणाम ठीक न आए तो उसे फेल कर देना या आगे पढ़ने के लिए अयोग्य मान लेना या किसी उच्च संस्थान में दाखिले के दरवाजे बंद कर देना कहां का न्याय है? इसी कारण बहुत से देशों में ग्रेड दिए जाते हैं जो पूरे वर्ष की परफ ारमेंस के आधार पर होते हैं। इसके साथ ही अगर ग्रेड कम है तो उसे सुधारने के लिए दोबारा परीक्षा देने का भी प्रावधान होता है। हमारे यहां फेल हो गये तो मान लिया जाता है कि विद्यार्थी के आगे पढ़ने के सभी रास्ते बंद हो गए हैं उसे अच्छी नौकरी के लिए आवेदन करने का कोई अधिकार नहीं है और वह ज़िन्दगीभर सरकार की दोषपूर्ण व्यवस्था का शिकार बना रहता है। आज जहां एक ओर प्रतियोगिता का जबरदस्त दौर है तो वहां विद्यार्थी के पास पढ़ाई करने या अपने कैरियर चुनने के इतने विकल्प पहले कभी नहीं थे। आज प्रतिदिन नये नये कोर्स सामने आ रहे हैं, पढ़ाई-लिखाई की नवीनतम टैक्नोलॉजी उपलबध है,  संचार साधनों की विशालता है और तकनीक पर आधारित व्यवसाय करने की शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएं हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी यदि कोई विद्यार्थी आत्महत्या का रास्ता अपनाता है तो यह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि सरकार और व्यवस्था के ऊपर एक ऐसा कलंक है जो अगर मिटाया नहीं गया तो देश की होनहार पीढ़ी हीन भावना का शिकार होती रहेगी और जीवन को समाप्त करने का रास्ता अपनाने के प्रति अग्रसर होगी। इसी कारण जब ऐसी खबर सुनने को मिलती है कि विद्यार्थी के फेल होने पर उसके पिता ने उसी प्रकार जश्न मनाया जैसा कि उसके पास होने की खुशी में मनाते । इससे यह संदेश मिलता है कि पास या फेल होना जीवन में ज्यादा मायने नहीं रखता बल्कि अपने लक्ष्य के प्रति मज़बूती से कदम उठाना रखता है। परिवर्तन का विरोध वास्तविकता यह है कि अभी भी माता-पिता हों या शिक्षक या फिर सरकार ही क्यों न हो, केवल कुछेक पुराने घिसे-पिटे पाठ्यक्रमों को ही विद्यार्थियों पर लादने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसे कुछ लोग भ्रमवश पीढ़ियों का अन्तर कहने लगते हैं जबकि यह विकास की सामान्य प्रक्रिया है जिसके अनुसार जो पुराना है वह नष्ट होने पर ही नये का सृजन होता है। यह परिवर्तन स्वीकार करने में जो देश और समाज पिछड़ गया, वह हमेशा पिछड़ेपन से ही जूझता रहता है और कभी भी गरीबी और अशिक्षा के दल-दल से बाहर नहीं निकल पाता। हालत तो यह है कि केन्द्र और राज्य सरकारें इसी बात को लेकर लड़ती रहती हैं कि कौन-सी शिक्षा नीति देश में लागू की जाए। कह सकते हैं कि विद्यार्थियों को आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए मजबूर करने के लिए सरकार की ही सबसे अधिक भूमिका है।मार्ग-दर्शन केन्द्र विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या करने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए इस प्रकार की मनोवैज्ञानिक सलाह और उपचार करने वाले संस्थानों की स्थापना होनी चाहिए जो स्कूल-कालेजों में ऐसे विद्यार्थियों का मार्ग-दर्शन कर सकें जिनमें आत्महत्या करने की प्रवृत्ति दिखाई दे। हमारे यहां इस प्रकार की संस्थाएं न के बराबर हैं और यदि हैं भी तो वे केवल कुछेक बड़े महानगरों में ही है। विकसित देशों में विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या करने की दर बहुत ही कम है जबकि हमारे यहां का आंकड़ा यह है कि हर घंटे कोई न कोई छात्र या छात्रा अपने जीवन का अंत करने की सोचने लगता है। होना तो यह चाहिए कि स्कूलों में ही इस प्रकार के कोर्स या किताबों में चैप्टर हों जिनसे किसी विद्यार्थी का मानसिक स्वास्थ्य भी विकसित हो। इससे बच्चों और उनके माता-पिता को तुरन्त पता चल सकता है कि कहीं कोई मानसिक ग्रन्थि तो नहीं है जिसके कारण विद्यार्थी पढ़ाई-लिखाई में कमजोर है। यदि है तो मनोवैज्ञानिक चिकित्सा से उपचार करने की व्यवस्था होनी चाहिए। आधुनिक संचार साधनों, सोशल मीडिया की बदौलत यह पता करना बहुत मुश्किल नहीं है कि विद्यार्थी में अपने को समाप्त करने का विचार तो नहीं पनप रहा है। आत्महत्या का विचार तूफान से पहले की शांति की तरह होता है। यदि यह दिखाई दे कि विद्यार्थी गुमसुम रहने लगा है, अपने आसपास की गतिविधियों में रुचि नहीं ले रहा तो समझ लीजिए कि वह शारीरिक या मानसिक उलझन का शिकार बनने की ओर बढ़ रहा है और आत्महत्या करना उसे सबसे आसान विकल्प लग सकता है। ऐसे में उसे इतना ही बताना काफी होगा कि मरना किसी भी समस्या का हल नहीं है और फेल होने का विकल्प तो कतई नहीं है।