कर्नाटक के नाटक का पटाक्षेप....

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर विधानसभा सदन में बहुमत साबित न कर पाने पर कर्नाटक के नव-नियुक्त मुख्यमंत्री येदियुरप्पा द्वारा त्यागपत्र दे दिये जाने से पांच दिन से जारी भाजपा-नीत नाटक का पटाक्षेप हो गया। जिस प्रकार जल्दबाज़ी में प्रदेश के राज्यपाल बाजु भाईवाला ने विपक्ष की सदस्य शक्ति और लोकतंत्र में विपक्षी दलों की महत्ता को नज़रअंदाज़ करके एकपक्षीय रूप से त्रिशंकु रूप में उभरी विधानसभा में भाजपा को सत्ता सौंपने की घोषणा की, और फिर तत्परता से भाजपा के येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी, उसी क्षण से भाजपा की केन्द्र सरकार की दबंगता और प्रदेश के राज्यपाल की पक्षधरता की तस्वीर साफ होकर सामने आने लगी थी। चुनावों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा ने तो केन्द्र सरकार की सत्ता के बल पर अपने दांत दिखाने ही थे, परन्तु राज्यपाल देश के लोकतांत्रिक इतिहास का वह पद होता है जिससे लोग निष्पक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करते हैं। परन्तु जब राज्यपाल ने ही विपक्षी दलों की सदस्य संख्या और उनकी पेशकशों को एकपक्षीय रूप से नकारते हुए भाजपा को सत्ता सौंप दी, तब देश के राजनीतिक धरातल पर वावेला मचना ही था। राज्यपाल की इस कार्रवाई की आलोचना भी हुई और लोकतंत्र के हक में कुछ विधि विशेषज्ञ लोगों ने ‘हाअ का नारा’ भी लगाया और राज्यपाल के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। राज्यपाल का फैसला इसलिए भी प्रश्न-चिन्हों के घेरे में आ जाता है कि उन्होंने न केवल भाजपा के पक्षधर के.जी. बोपैया को प्रो-टैम अध्यक्ष घोषित कर दिया, अपितु भाजपा को जोड़-तोड़ और सदस्यों की खरीद-फरोख्त करने हेतु 15 दिन का अवसर भी प्रदान कर दिया।सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर लोकतंत्र के एक शक्तिशाली और निष्पक्ष स्तम्भ की भूमिका अदा की और भाजपा को चुनावों के बाद सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की अहमियत को स्वीकारते हुए उसे 19 मई को विधानसभा भवन में अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया। नि:संदेह दल-बदल कराये बिना और विपक्षी दलों में विधायकों की खरीद-फरोख्त किये बिना, येदियुरप्पा के लिए 224 सदस्यीय विधानसभा में चुनावाधीन आए 222 सदस्यों के बीच अपने 104 विधायकों के बल पर बहुमत सिद्ध कर पाना असम्भव था। कांग्रेस ने अपने 78 सदस्यों और जनता दल (एस.) के 38 सदस्यों को एकजुट रखने की बड़ी पुष्ट व्यवस्था कर रखी थी। कांग्रेस द्वारा जद एस. को मुख्यमंत्री पद की पेशकश किये जाने की घोषणा ने भी इस चरण पर बड़ी अहम भूमिका अदा की थी। बेशक यह अवसर देश के दल-बदल कानून की भी बड़ी परख की घड़ी थी। केन्द्र और प्रदेश के कुछ सत्ता बिचोलियों द्वारा बड़े स्तर पर मंत्री पद के लालच के साथ अरबों रुपए की नकद धन-राशि की पेशकशों की चर्चा भी चली, परन्तु कांग्रेस और जनता दल (एस.) की सतर्कता के समक्ष भाजपा की एक न चलने के कारण अन्तत: येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। अब गेंद अपने आप प्रदेश की कांग्रेस पार्टी और जनता दल (एस.) के पाले में आ गई है, जिनके पास संयुक्त रूप से 116 सदस्यों का बहुमत हासिल है। इन्हें दो निर्दलीयों का समर्थन भी प्राप्त है। राज्यपाल को अब विवशतया इस गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देना ही पड़ेगा, परन्तु भाजपा के केन्द्रीय नेताओं के दबंग किस्म के भाषणों एवं प्रदेश के राज्यपाल की पक्षधरता के चलते यह कार्य आसानी से सम्पन्न होते महसूस नहीं होता। नि:संदेह बाजु भाईवाला की भूमिका को थोड़ा अधिक निष्पक्ष एवं बेलाग होना चाहिए था। देश की लोकतांत्रिक पृष्ठभूमि में राज्यपालों से, पद पर नियुक्त हो जाने के बाद दलीय सम्बद्धता से ऊपर उठ कर स्वतंत्र और निष्पक्ष भूमिका अदा किये जाने की अपेक्षा की जाती है। राज्यपाल पद पर राजनीतिक जोड़-तोड़ जैसी उंगली उठने से इस संवैधानिक पद की गरिमा का हनन एवं उल्लंघन होता है।
हम समझते हैं कि अव्वल तो राज्यपाल बाजु भाईवाला को पारदर्शिता को बनाये रखते हुए पहले ही कांग्रेस-जद गठबंधन के सामूहिक संख्या बल को देखते हुए उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण दिया जाना चाहिए था। यदि वह ऐसा नहीं भी करना चाहते थे, अथवा किसी कारण यह संभव नहीं था, तो भी उन्हें  दोनों पक्षों को अपने-अपने सदस्यों की अपने सामने परेड कराने हेतु कहना चाहिए था। परन्तु राजभवन के भीतर से, राजनीतिक पात्रों द्वारा जिस प्रकार का नाटक रचा गया, उसने जहां प्रदेश के राज्यपाल की निजी गरिमा को आघात पहुंचाया है, वहीं भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की छवि भी धूमिल तो हुई है। इससे भाजपा की किरकिरी भी हुई है। यह एक तथ्य भी भाजपा के पक्ष में नहीं गया कि भाजपा ने गोवा, मणिपुर और मेघालय में इस परम्परा के विपरीत भूमिका का निर्वहन किया। वहां भाजपा नेतृत्व ने दूसरे किस्म की तोड़-तोड़ की। कर्नाटक के राज्यपाल अब मौजूदा उभरी स्थिति में क्या फैसला लेते हैं, यह अभी देखने वाली बात है, परन्तु न्यायिक धरातल और संवैधानिक मांग के दृष्टिगत उन्हें कांग्रेस-जद (एस.) के गठबंधन को सरकार बनाने और फिर अपना बहुमत सिद्ध करने को कहना चाहिए। राज्यपाल ने यदि पहले ही ऐसा फैसला लिया होता तो नि:संदेह इससे जहां देश की राजनीति में राज्यपाल पद की गरिमा बढ़ती, वहीं प्रदेश के समूचे परिदृश्य पर एक अच्छा और विकास-परक दृश्य उत्पन्न होता। अब भी, बिखरे बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा। राज्यपाल अपने एक फैसले से प्रदेश की जनता के लिए आगामी पांच वर्ष के लिए विकास-धरा को उपजाऊ बना सकते हैं। इसके साथ ही वह अपने पद की गरिमा को पहुंचे आघात की भी क्षति-पूर्ति कर सकते हैं।