क्यों आए कर्नाटक के ऐसे चुनाव परिणाम ?

कर्नाटक चुनाव परिणाम के हम कई निष्कर्ष निकाल सकते हैं। मसलन, कांग्रेस इसमें बुरी तरह पराजित हुई। अकेले बहुमत से वंचित रहने के बावजूद भाजपा ने बहुत ही बेहतर प्रदर्शन किया तथा जद. (से) ने अपेक्षा से बेहतर सफ लताएं पाईं। जब सिद्धारमैया ने यह बयान दिया कि यदि पार्टी किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाती है तो वो अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार हैं तब लोगों को समझते देर नहीं लगी कि उनको विधानसभा चुनाव परिणामों का आभास हो चुका है। वास्तव में 2013 में कांग्रेस को विजय मिली तो इसका मुख्य कारण भाजपा से लोगों की निराशा थी। भाजपा को 2008 में जिन उम्मीदों से लोगों ने मत दिया उस कसौटी पर वह खरी नहीं उतर पाई थी। नेताओं के बीच आपसी टकराव इतना था कि आधा दर्जन बार सरकार गिरने का संकट पैदा हुआ तथा तीन मुख्यमंत्री बने। भाजपा से अलग होकर बी.एस. येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनता पक्ष के नाम से अलग पार्टी बना ली तो बी. श्रीरामुलू बेल्लारी क्षेत्र में अलग पार्टी बनाकर लड़ रहे थे। दोनों को बड़ी सफ लता भले नहीं मिली लेकिन उन्होंने भाजपा को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2013 में भाजपा के मतों में 13.9 प्रतिशत की भारी कमी आई थी। येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष ने 9.79  तथा बी. श्रीरामुलू की बदवारा श्रमिकरा रैयतारा या बीएसआर कांग्रेस ने भी करीब 2.7 प्रतिशत मत प्राप्त कर लिया। इस तरह करीब 12 प्रतिशत मत जो भाजपा के खाते में जाने चाहिए थे वे कट गए। भाजपा के मतदाताओं ने नाराज होकर कांग्रेस एवं कुछ क्षेत्रों में जद. (से) के पक्ष में भी मतदान किया। 2018 की स्थितियां बिल्कुल बदली हुई थी। येदियुरप्पा सहित उनके साथ बाहर गए ज्यादातर नेता पार्टी में वापस आ चुके थे। भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर यह घोषणा कर दी कि वो ही पूरे कार्यकाल तक पद पर बने रहेंगे। वैसे 2013 के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में ही एक होकर लड़ रही भाजपा ने कांग्रेस को मात दी थी। उसने 28 में से 17 सीटें जीतीं तथा विधानसभा की तुलना में उसे 22 प्रतिशत ज्यादा मिले। उसे कुल 43 प्रतिशत मत मिले। उसमें भाजपा 132 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी। कांग्रेस केवल 77 स्थानों पर आगे थी। जाहिर है, 2018 में 2013 की पुनरावृत्ति नहीं होगी यह साफ  था। भाजपा कांग्रेस को पूरी तरह टक्कर देने की स्थिति में है इसे लेकर कोई संदेह नहीं था। हां, वह लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहरा पाएगी इसे लेकर संदेह जरूर था। कारण, लोकसभा चुनाव का वातावरण बिल्कुल अलग था। भाजपा के लिए बिल्कुल वही स्थिति विधानसभा चुनाव के दौरान नहीं थी। किंतु भाजपा के पास सबसे ज्यादा सीटें पाने की हैसियत है, यह लगभग साफ था।  सिद्धारमैया की समस्या यह भी थी कि वे जद. (से) से कांग्रेस में आए हैं। केन्द्र ने उन्हें अवश्य नेता बना दिया लेकिन उनकी कार्यशैली से प्रदेश के परंपरागत कांग्रेसी असुंष्ट रहे। पार्टी में उनके खिलाफ  विद्रोह हुआ और अनेक नेता भाजपा में चले गए। पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री एस.एम. कृष्णा जैसे कद्दावर नेता ने उनके रवैये से निराश होकर पार्टी छोड़ दी। चुनाव के दौरान भी आप देखेंगे कि सिद्धारमैया के अलावा केवल कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ही नजर आ रहे थे। कर्नाटक के मुख्य नेताओं की भूमिका चुनाव में न के बराबर थी। इसका असर कांग्रेस के प्रदर्शन पर होना ही था। उन्होंने इसकी भरपाई करने की कोशिश में जद (से) को तोड़ा। उस पार्टी के नेताओं को शामिल किया। चुनाव के ऐन पूर्व भी उसके सात विधायकों को राहुल गांधी के समक्ष पार्टी में शामिल कराया। इससे उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस की स्थिति अभी भी इतनी अच्छी है कि दूसरी पार्टियों के नेता उसमें आ रहे हैं। पांच सालों का सत्ता विरोधी रुझान भी था। वहां एक बड़े वर्ग में सरकार एवं कांग्रेस के खिलाफ  वातावरण था। सिद्धारमैया सरकार पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे। कई क्षेत्रों में सरकार की विफलता साफ  थी।  उनके कार्यकाल में बेंगलुरु तक की सड़काें की बुरी हालत हुई है। कानून और व्यवस्था की स्थिति खराब हुई। एम.एस. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या का आरोप भले हिन्दूवादी संगठनों पर लगाया गया लेकिन पुलिस  हत्यारों का सुराग पाने में विफ ल रही। उनके कार्यकाल में काफी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की। भाजपा और अपने क्षेत्र में जद. (से) ने इन सबको काफी पहले से मुद्दा बनाना आरंभ कर दिया था। इनका सामना करने के लिए सिद्धारमैया ने सबसे पहले क्षेत्रवाद की राह पकड़ी। कन्नड़ स्वाभिमान का नारा लगाते हुए प्रदेश के अलग झंडे की आवाज उठा दी। उसके लिए समिति बनाई तथा उससे मनमाफि क रिपोर्ट मंगवाकर अलग झंडे को स्वीकृति दी। कन्नड़ भाषा को सर्वोपरि रखने की मुहिम शुरू की। उन्होंने हिन्दी विरोध को उभारा। कन्नड़ को उन्होंने सभी विद्यालयों के लिए अनिवार्य कर दिया। मेट्रो से लेकर सरकारी विभागों पर लगे हिन्दी नामों की पट्टिकाएं हटा दी गईं। उन्होंने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देकर उसका प्रस्ताव केन्द्र के पास भेज दिया। येदियुरप्पा लिंगायत हैं और उनके प्रभाव से लिंगायतों के मत का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को मिलता रहा है। 2013 में उनके विद्रोह के कारण लिंगायतों का मत बंटा था और एक सर्वेक्षण में सामने आया कि करीब 40 प्रतिशत ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। उनको उम्मीद थी कि इससे लिंगायतों का एक वर्ग उनके पक्ष में आ जाएगा। लगता है कि क्षेत्रवाद का यह दांव कांग्रेस के पक्ष में गया नहीं। बेंगलुरु में करीब 10 लाख हिंदी भाषी रहते हैं और मैसूर में करीब दो लाख। इनका मत शायद ही कांग्रेस के पक्ष में गया होगा। 
भाजपा ने इसका मुकाबला क्षेत्रवाद से नहीं किया। अमित शाह ने साफ  घोषणा कर दी कि भाजपा हिन्दू समाज को बंटने नहीं देगी। लिंगायत हिन्दू समाज के अंग हैं और रहेंगे। इसके साथ अमित शाह ने लिंगायतों से लेकर अन्य मतों के मठों का दौरा किया तथा उनके प्रमुख संतों का आशीर्वाद प्राप्त किया। मठों का दौरा तो राहुल गांधी ने भी किया लेकिन जितने सुनियोजित तरीके से अमित शाह ने इसे अंजाम दिया वैसा राहुल गांधी के रणनीतिकार नहीं कर सके। भले भाजपा को अपनी अपेक्षाओं के अनरूप जितनी सफ लता मिलनी चाहिए उसमें हल्की कमी रह गई, लेकिन कांग्रेस की तो पराजय हो ही गई। वास्तव में कर्नाटक में केन्द्रीय कांग्रेस नहीं सिद्धारमैया की प्रकृति वाली कांग्रेस चुनाव लड़ रही थी। वहां सिद्धारमैया ही सब कुछ थे। भाजपा ने सिद्धारमैया की स्थिति को देखते हुए चुनावी रणनीति को कई महीने पहले से अंजाम देना आरंभ कर दिया था। मत-पत्रों के एक-एक पन्ना प्रमुखों की जगह यहां अर्ध पन्ना प्रमुख बनाए गए। इसके अलावा मतदान केन्द्र प्रमुख, फि र क्षेत्र प्रमुख बनाए गए। 224 क्षेत्रों की ज़िम्मेवार 224 सांसदों को दी गई। कर्नाटक के सभी 30 जिलों का प्रभार एक-एक केन्द्रीय मंत्रियाें को दिया गया। अमित शाह ने अलग-अलग व्यवसाय के लोगों के साथ मुलाकात करने की रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री को मुख्यत: चुनाव अभियान के अंतिम चरण में मैदान में उतारा गया। मोदी ने कर्नाटक में 21 रैलियां की और दो बार नमो ऐप के जरिये मुखातिब हुए। 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी 20 रैलियां और 40 रोड शो व नुक्कड़ सभाएं की। उन्होंने मोदी से दो गुना अधिक दूरी तय की। लेकिन वे कर्नाटक में चेहरा नहीं थे। यह बात अलग है कि मोदी ने सिद्धारमैया के साथ उनको भी निशाना बनाया। किंतु यह भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए किया गया था। मोदी ने स्थान-स्थान पर अलग-अलग मुद्दे उठाए जो वहां की जन भावनाओं से जुड़ते थे। उदाहरण के लिए उत्तर पश्चिमी कर्नाटक के गडग में मोदी ने गोवा के साथ महादायी नदी विवाद में हस्तक्षेप करने और इसे हल करने की बात की थी। विधानसभा की 50 सीटें इसी इलाके में हैं। इसमें कांग्रेस के पास 31 सीटें थीं।  महादायी को लेकर पिछले दो साल से गडग शहर, नदी के किनारे बसे सभी गांवों और पड़ोसी जिले धारवाड़ के कई हिस्सों में आंदोलन चल रहा है। इसका असर वहां के मतदान पर पड़ा।  
इसमें भाजपा की सीटें बढ़नी ही थी और वह कांग्रेस की कीमत पर ही बढ़ सकती थी। जद.(से) का एक निश्चित जनाधार करीब 20 प्रतिशत के आसपास रहा है। लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में उसे केवल 11 प्रतिशत मत मिले। सिद्धारमैया भाजपा को सीधे नुकसान पहुंचा नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने जद.(से) को अपना निशाना बनाया। लेकिन अपने क्षेत्र में सिद्धारमैया के सेंध लगाने के बावजूद उसने अच्छा प्रदर्शन किया। उसने बसपा के साथ गठबंधन किया, असदुद्दीन ओवैसी के एआईएमआईएम ने उसे समर्थन देने की घोषणा की। इसका कुछ असर मुस्लिम मतों पर पड़ा है। जद.(से) के अच्छे प्रदर्शन ने पूरे परिणाम पर असर डाला है। वास्तव में सिद्दारमैया ने जो अहिंदा समीकरण बनाने की कोशिश की वह सफ ल नहीं रही। अहिंदा कन्नड़ शब्दों अल्पसंख्यात (अल्पसंख्यक) हिंदुलिदाव मट्टू (पिछड़ी जातियां) और दलित (दलितों) का पर्याय है। इस समुदाय के कर्नाटक में करीब 60 प्रतिशत मतदाता हैं। सिद्दारमैया स्वयं कुरुबा जाति से हैं जिनकी आबादी 7 प्रतिशत है और वह पिछड़ी जाति में आता है। वह खुद को भी अहिंदा बताते रहे। सिद्दारमैया ने दलित और आदिवासियों के लिए कई योजानाएं घोषित कीं। अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए उन्होंने अपराध और अन्य मामलों में बंद लोगों पर से मुकदमा हटाने की चाल चली।  लगता है कुछ क्षेत्रों में दूसरे समुदाय में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई और वह मत भाजपा के खाते में गया। तो सिद्धारमैया ने एक सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश की किंतु उसमें जितना सफ ल होना चाहिए था, नहीं हुए। कर्नाटक में कांग्रेस का ठोस जनाधार रहा है, इस कारण उसका सफाया करने में सफ ल नहीं रहीं।  भाजपा ऐसी स्थिति में नहीं आ पाई कि उसका सफाया कर सके। इन सबका ऐसा ही परिणाम होना था।


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