मत हो निराश, ज़िंदगी अभी बाकी है

मानव जीवन में ‘कर्म’ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी महत्ता देखते हुए प्राचीन विद्वानों, ऋषियों-मुनियों द्वारा सम्पूर्ण मानव-जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया व जीवन को ‘आश्रम’ का ‘उपनाम’ दिया गया। विद्यार्थी आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम। यद्यपि प्रत्येक आश्रम का अपना एक विशेष महत्व है तथापि बाकी तीन आश्रम, विद्यार्थी आश्रम की सुदृढ़ता पर टिके हैं। नींव जितनी गहरी होगी, भवन उतना ही टिकाऊ व सुरक्षित होगा। वर्ष भर की परीक्षाओं के पश्चात् वार्षिक परीक्षा होती है और उसके पश्चात् परिणाम का इंतज़ार। बहरहाल, पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड द्वारा 10वीं व 12वीं कक्षाओं के परिणाम घोषित किये जा चुके हैं। अपेक्षित सफलता अर्जित करने वाले विद्यार्थियों के घर में गहमागहमी का माहौल है। बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ है। मोबाइल की घंटियां लगातार बज रही हैं।
जहां एक तरफ अखबार की सुर्खियों में छाए मेधावी छात्र-छात्राओं की तस्वीरें देखकर मन-हर्षित हो रहा है, वहीं दूसरा पन्ना उलटते ही मन में टीस उठती है। चेहरे पर विषाद की गहरी रेखा खिंच जाती है। परीक्षा में असफल एक छात्र द्वारा ज़हरीली दवाई पीकर आत्महत्या करना व दूसरे का फांसी के फंदे को गले लगाना। ऐसी घटनाएं हमें सोचने पर विवश कर देती हैं कि इतनी छोटी उम्र में ही हम इतनी तनावग्रस्त ज़िंदगी जी रहे होते हैं कि असफलता का दर्द झेलने तक की क्षमता नहीं रख पाते। हर वर्ष ऐसी अनेक घटनाएं मन को उद्वेलित कर देती हैं। दरअसल, बचपन जीवन का प्रारम्भिक पड़ाव है जब मानव रूपी ‘घटक’ की संरचना प्रारम्भ होती है। नैतिकता, आदर्शवाद, सुदृढ़ मानसिकता की थपकियां देकर उसे सुयोग्य आकार प्रदान किया जाता है। परिश्रम, कर्मठता की भट्ठी में तपाकर उसे मजबूती प्रदान की जाती है व सत्यनिष्ठा, संवेदनशीलता, माधुर्य से उसे सुशोभित किया जाता है। माता-पिता का अति कठोर रवैया जहां बच्चे को विद्रोही अथवा दब्बू बना देता है, वहीं अति संवेदनशीलता या संवेदनशून्यता का भाव भी उसमें दृष्टिगत होने लगता है। आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार भी उसे निकम्मा, जिद्दी, निखट्टू व अकर्मठ बना देते हैं। इस आयु में बालक के भीतर आत्मविश्वास की भावना जागृत करना अत्यावश्यक है। उसे मानसिक रूप से इतना सबल होना चाहिए कि वह जीवन की प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हो।कई बार अपने अधूरे सपने बच्चों पर लाद देने से भी मां-बाप गुरेज नहीं करते। अन्य बच्चों से की जाने वाली तुलना से भी बालक असहज व व्यग्र हो उठता है। आज के समय में अंकों की अंधी दौड़ चालू है। मेधावी छात्र तो अपना लक्ष्य पा लेते हैं मगर सामान्य छात्र सामान्य अंकों से, स्वयं को इस दौड़ में पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं। खुदा-ना-खास्ता असफल हो जाएं तो समाज की बात तो कोसों दूर, पारिवारिक सदस्य ही तानों, उलहानों से सीना छलनी करने पर उतारू हो उठते हैं। वास्तव में सफलता व असफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि असफलता को भी सकारात्मक तरीके से लिया जाए तो कई बार देखने में आया है कि एक ठोकर हमें एक दिन उस मुकाम पर पहुंचा देती है जहां पहुंचने की सामान्य जीवन में हम कल्पना भी नहीं कर पाते। ‘घुड़सवारी वही सीख पाते हैं, जो गिरने से भयभीत नहीं होते, चोट सहन कर फिर उठ खड़े होने का मादा रखते हैं।’समाज के नागरिक होने के नाते हमारा कर्त्तव्य है कि न केवल हम अपने असफल बच्चों को असफलता के दौर में सशक्त बनाएं वरन् अपने आस-पास के प्रत्येक असफल व्यक्ति के दिल में आशा का दीप पुन: जला उसे प्रोत्साहित करें। जीवन की सफलता मूल मंत्र भी विफलता में छिपा है। जब भी असफल हों, जी भर कर रो लें, ताकि अंदर की हतोत्साहिता का भाव आंसुओं संग बह जाए। पुन: मन को एकाग्र करें। असफलता के कारणों पर सूक्ष्मता से पुनरावलोकन करें। अपनी कमियों से सीख लेते हुए उन्हें सुधारें। क्लान्त हों तो विश्राम अवश्य करें, पर थोड़ा-सा। भीतर की ऊर्जा को पुन: सहेजें व अपने कर्म के मार्ग पर चल पड़ें। स्वयं पर दोषारोपण करते हुए न तो गंदला जलाशय बनें और न ही संभावनाओं को समाप्त करता सूखा कुआं। एक स्वतंत्र नदी बन जाएं जो निरन्तर, निर्बाध रूप से चुनौतियों को स्वीकार करती, बस आगे ही आगे बढ़ती जाती है। मानव जीवन अति मूल्यवान है। संघर्ष, चुनौतियों का सामना करते हुए इसे सहज रूप से स्वीकारना सीखें। जीवन के इस कुरुक्षेत्र में विजेता बनें। एक बार असफल हुए तो क्या? फिर प्रयास करें।
मत हो व्यथित
मत हो निराश
ज़िंदगी अभी बाकी है ‘दोस्त’
एक और प्रयास
पुन: प्रयास

मो. 99143-42271