बाज़ारवाद की मार आम आदमी को राहत कैसे मिले ?

देश में आये दिन वेतन एवं सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा में निरंतर मांग चलती रहती है। वेतन एवं सुविधाओं को लेकर यहां सरकारी क्षेत्र में आयोग भी गठित है जो समय-समय पर इस दिशा में विचार कर नया वेतन एवं सुविधाएं लागू करता रहता है। हमारे जनप्रतिनिधि जिन्हें पहले  केवल भत्ते एवं सुविधाएं मिला करती थी अब वेतन भोगी हो चले हैं परन्तु वे वेतन आयोग के दायरे में नहीं आते। वे स्वयं ही इसका निर्धारण करते हैं। देश में अधिकांश ऐसे क्षेत्र हैं जो निजी क्षेत्र में आते हैं, जिनके वेतन एवं सुविधाओं का निर्धारण मालिक करता है। अधिकांश ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां कोई नियमावली लागू नहीं। जो कुछ दे दिया वही उनका वेतन है। सुविधाएं तो बिल्कुल नगण्य हैं। इस तरह के परिवेश में देश की अधिकांश जनसंख्या दैनिक दिनचर्या के तहत सिमटी हुई वैशाखियों के सहारे जिन्दगी गुजार रही है। वर्तमान में इन्हें दो परिवेश संगठित एवं असंगठित क्षेत्र में विभाजित किया गया है। इन दोनों क्षेत्रों में बेहतर वेतन एवं सुविधाएं दिलाने की दिशा में  विभिन्न तरह के संगठन बने हुये हैं जो आंदोलन कर सरकार पर दबाव बनाये रखते हैं। फि लहाल सरकारी क्षेत्रों में सातवें वेतन आयोग लागू  होने की चर्चा है, जिसे लेकर कहीं-कहीं उभरा असंतोष भी दिखाई दे रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक फि लहाल देश की कुल आबादी 132 अरब में 2.15 करोड़ की जनसंख्या सरकारी क्षेत्र में कार्यरत है जिन पर सातवां वेतन आयोग लागू है। वर्तमान में हमारे देश में सरकारी एवं निजी क्षेत्रों में जिस दायरे में वेतन एवं सुविधाएं बढ़ी हैं। उसके अनुपात में बाजार दर कई गुना बढ़ गई है जहां आम आदमी का जीना दुर्लभ होता जा रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में देश में वेतन लेने वाले प्रतिमाह लाख से लेकर 10 हजार प्रतिमाह तक वेतन पाने वाले हैं जिसमें अधिकांश अभी भी 10 हजार से कम पाने वाले भी हैं। जिन पर कोई वेतन आयोग नियमावली लागू नहीं है। वेतन आयोग द्वारा हर 5 से लेकर 10 वर्ष के अंतराल में वेतन एवं सुविधाएं बढ़ा तो दी जाती हैं जिसके अनुरूप यहां कई गुणा बाजार दर बढ़ जाती है। यहां बाजार तो सभी के लिये एक ही है। अलग-अलग बाजार तो है नहीं जहां कम वेतन पाने वाले सामान ले सकें। इस तरह के हालात का अल्प वेतन भोगी एवं दैनिक मजदूरी पाने वालों की जेब पर सर्वाधिक भार पड़ता है। जब कि सरकार ने इस तरह के लोग जो अल्प आय की श्रेणी में आते हैं, उनके लिये सरकारी दर पर कम कीमत की लागत पर सब्सिडी देकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना लागू तो की पर यह योजना भी भ्रष्ट व्यवस्था के कारण ऊंट के मुंह में जीरा सदृश साबित हुई। इस योजना के तहत कुछ ही सामान उपलब्ध हो पाता, अधिकांश सामान के लिये बाजार ही जाना पड़ता, जिससे इस योजना से कोई खास लाभ नहीं मिला। सरकार हर बार बजट में एक हाथ लॉलीपॉप तो दूसरे हाथ झुनझुना थमा जाती है, पर इससे उभरे भूचाल को कैसे शांत कर पायेगी, टेढ़ी खीर है। इस पर  मंथन होना चाहिए एवं इसके स्वरूप को इस तरह उजागर करना चाहिए, जिससे आम आदमी को राहत मिल सके। यह तभी संभव है जब सरकार वेतन एवं सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय मुनाफाखोरों पर नजर रखते हुए बाजार को नियंत्रित कर वास्तविक रूप में महंगाई पर रोक लगा सके। देश में सरकारें बदलती रहती हैं पर परिस्थितियां ज्यों की त्यों हैं। महंगाई की मार से आम जनता निन्तर परेशान है,जबकि आने वाली हर सरकारें महंगाई से निजात दिलाने की बातें करती हैं। देश में माफि या एवं मुनाफ ाखोरों का दबदबा है, जिसके हाथ बाजार है। जिसकी वजह से किसानों को फ सल के वास्तविक मूल्य कभी नहीं मिल पाते, जिससे वे कर्ज में सदा डूबे रहते हैं। सरकार भी मुनाफाखोरों पर नियंत्रण करने के बजाय कर्ज देकर किसानों को आत्मनिर्भर बनने  के बावजूद असहाय बनती जा रही है। देश की अधिकांश जनसंख्या अभी भी बेरोजगार एवं अल्प आय वाली है, जिसके लिए आज का बाजार महंगा सौदा है जहां वह किसी भी कीमत पर टिक नहीं सकता। वोट की राजनीति देश को अपंग बनाती जा रही है, जहां बाजार को नियंत्रण में रखने के बजाय सुविधाएं बांटने का बंदरबांट खेल कई वर्षों से चल रहा है। जिसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। बाजार के भाव आज कई गुणा बढ़ गये पर तुष्टिकरण के अलावा बाजार में खड़े होने के संसाधन आने वाली सरकारें आज तक नहीं जुटा पाई। जिससे सरकारें बदलने के बावजूद भी आम जन की समस्याएं ज्यों की त्यों बरकरार हैं। इस पर मंथन होना चाहिए। आखिर कब तक राजनीतिक दल सत्ता के लिये आम जन को भुलावे में रखते रहेंगे। जब तक बाजार पर नियंत्रण नहीं होगा, महंगाई बढ़ती ही रहेगी। देश में जब-जब भी चुनाव आते हैं, देश का अधिकांश अर्थ सत्ता पाने के लिये लोगों को मनाने, भुनाने में व्यय हो जाता है। चुनाव दिन-प्रतिदिन खर्चीले होते जा रहे हैं, जिसका प्रभाव आम आदमी पर ही पड़ता है। चुनाव उपरान्त महंगाई का बढ़ना स्वाभाविक है। चुनाव के दौरान आम आदमी को लुभाने के लिये की गई घोषणाओं के तहत आये अर्थ भार का प्रभाव बजट पर पड़ता है, जिससे नये-नये टैक्स एवं इससे प्रभावित बाजार का भार आम जन पर ही पड़ता है। चुनाव उपरान्त जनप्रतिनिधियों के कोष में तो दिन-दुनी रात  चौगुनी वृद्धि देखी जा सकती वहीं आम आदमी की जेब खाली होती जा रही है। सरकारें बदलती रही, महंगाई बढ़ती रही। आमजन को कहीं से भी राहत नहीं। सभी राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिये आम आदमी को आज तक केवल धोखे में रखते रहे हैं। पर बाजार पर किसी का नियंत्रण नहीं, आज भी बाजार मुनाफ ाखोरों के हाथ में है, जहां से राजनीतिक दलों का बेनामी अवैध अर्थ कमाने से जुड़ा गोरखधंधा दिन-प्रतिदिन पग पसार रहा है। फि र आम आदमी को राहत कैसे मिले?