बेहद गम्भीर हो गई है : आवारा जानवरों की समस्या

भारत जैसे देश में आवारा घूमते जानवरों खासतौर पर कुत्तों की बात समझ में आने वाली नहीं है। यह समस्या बड़ी से बड़ी होती जा रही है परन्तु कोई भी सरकार इसका संतोषजनक हल नहीं निकाल सकी। केन्द्र सरकार के संबंधित मंत्रालय ने भी अनेक बार म्यूंनिसीपल कमेटियों तथा पंचायतों तक को निर्देश जारी किये हैं, परन्तु इस पक्ष से व्यवहारिक रूप में ज्यादा कुछ न होने के कारण यह समस्या अपनी जगह न सिर्फ बनी हुई है, अपितु और अधिक गम्भीर होती जा रही है। अगली बात धार्मिक मान्यताओं तथा पशु प्रेमियों की है, जो अपने दिलों में परिन्दों और पशुओं के प्रति दया रखते हैं, इनको हर तरह बचाने का प्रयास भी करते हैं। परन्तु जब यह बेजुबान सड़कों पर आवारा घूमते हैं, जब उनको पानी या खाने के लिए कुछ नसीब नहीं होता, जब स्थान-स्थान पर इनको धक्के और डंडे मिलते हैं, तो उस समय पशु प्रेम कहां चला जाता है? इसकी समझ नहीं आती कि आज तक इस बात का जवाब नहीं दिया जा सका कि आवारा कुत्तों के दर-बदर घूमने का उद्देश्य क्या है। उन्नत देशों में और सभ्य समाजों में ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलते, जिसने कोई जानवर रखना है, हर तरह सांभ-संभाल की ज़िम्मेदारी उसकी अपनी है। यदि हम गौ-माता की बात करें, तो पंजाब में हज़ारों ही गौशालाएं होने के बावजूद भूखी-प्यासी और पिंजर बनीं आवारा घूमती गायों और बछड़ों या सांडों की चिन्ता कौन करता है? क्या इनको इस तरह आवारा घूमने देना मनुष्य का जुल्म नहीं है। दूसरी तरफ यदि आवारा कुत्तों की बात करें, तो आज पंजाब भर में कम से कम इनकी संख्या 10 लाख के लगभग हो गई है। वर्ष 2012 में इस संबंधी सर्वेक्षण किया गया था, उस समय इनकी संख्या 4 लाख 70 हज़ार बताई गई थी। इतनी बड़ी संख्या में आवारा कुत्तों के घूमने पर यह कहावत लागू होती है कि ‘रब्ब कुत्ते का जीवन किसी को न दे’। दूसरी तरफ ये कुत्ते बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं। गत दिनों पंजाब में दो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटनाएं घटीं। संगरूर ज़िले में भिंडर गांव में कुत्तों ने एक पांच वर्षीय बच्ची को नोच-नोच कर मार दिया। अब नाभा के निकट कुत्तों द्वारा गांव मेहस में भट्ठे पर काम करते एक प्रवासी मज़दूर के सात वर्ष के बच्चे को भी आवारा कुत्तों ने नोच-नोच कर खा लिया। कुत्तों के काटने की अधिकतर घटनाएं गांवों में होती हैं, परन्तु शहरों में भी अक्सर ऐसा कुछ होता है। वर्ष 2017-18 में देश भर में 10 हज़ार के लगभग जानें कुत्तों के काटने के कारण गई थीं। एक महीने में 800 के लगभग लोग मारे जाते हैं। मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में सबसे अधिक ऐसे मामले सामने आए हैं। आज तक यह बात बहस का विषय बनी हुई है कि ज्यादा जानें सांप के डसने से जाती हैं या कुत्तों के काटने से जाती हैं। विडम्बना यह है कि इस तरह के कानून बने हुए हैं, जोकि इन जानवरों का किसी तरह का कोई निपटारा नहीं होने देते, अपितु इनको आवारा घूमने के लिए खुला छोड़ देते हैं। इन कानूनों में संशोधन होना चाहिए। किसी भी तरह के जानवर को पालने वाले का अंत तक उसको संभालने का दायित्व होना चाहिए। यदि हम इतनी गम्भीर हो रही समस्या का कोई हल नहीं निकाल सकते तो इसको हमारी सरकारों और समाज की नालायकी ही कहा जा सकता है। कई बार कुत्तों के आगे बच्चे पैदा न होने से रोकने के लिए टीके लगाने का सिलसिला शुरू किया गया परन्तु वह बुरी तरह असफल हो गया। देश की जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ आवारा घूमते जानवरों की आबादी भी बढ़ती जा रही है, जो अब खतरे का निशान पार कर गई प्रतीत होती है। जानवर प्रेमियों को इस संबंधी सोच-विचार करके किसी हल पर पहुंचने की ज़रूरत है। यदि गौ-धन को बचाना है तो निश्चय ही उसको गलियों-बाज़ारों में धक्के खाने और पिंजर बनने से बचाने की ज़रूरत भी है। जब तक इस संबंधी समूचे रूप में कोई कड़ी योजनाबंदी नहीं की जाती तब तक यह समस्या गम्भीर से गम्भीर होती जायेगी और अंतत: हमारे समाज के लिए एक ऐसा बोझ बन जायेगी जिसको उठा पाना बेहद मुश्किल होगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द