कांग्रेस को बनाना पड़ेगा विरोधी पार्टियों का गठबंधन

भारतीय जनता पार्टी को जो अंदेशा था, वह धीरे-धीरे हकीकत बन कर उसकी आंखों में झांकने लगा है। उसके रणनीतिकारों को पता है कि 2019 में विपक्ष की एकता का सूचकांक 2014 के मुकाबले बहुत ऊंचा हो सकता है। इसलिए उसका काम 31 से 38 ़फीसदी वोटों से नहीं चलेगा। विपक्ष की इस सम्भावित एकता को पराजित करने के लिए भाजपा को 45 से 50 ़फीसदी वोट चाहिए, और इतनी बड़ी मात्रा में वोटों का मिलना एक असम्भव लक्ष्य जैसा है। कर्नाटक विधानसभा में भाजपा की पराजय से विपक्ष की शक्तियों में असाधारण उत्साह पैदा हुआ है। वे जान गए हैं कि भाजपा को हराने का ़फारमूला क्या है। यह है विपक्ष की चट्टानी एकता।   अपनी प्रेस कांफ्रैंस में राहुल गांधी ने जिस विपक्षी एकता का ज़िक्र किया, वह वास्तव में एक बनता हुआ ज़मीनी यथार्थ है। भाजपा द्वारा ़खरीद-़फऱोख्त के ज़बरदस्त और व्यापक अंदेशों के बावजूद कांग्रेस, जनता दल (सेकुलर) और बसपा के गठजोड़ के किसी सदस्य का न टूटना एक रेखांकित करने योग्य तथ्य है। शनिवार की सुबह जब कर्नाटक के एक पत्रकार ने भविष्यवाणी की कि भाजपा बहुमत नहीं जुटा पाएगी, तो दिल्ली के भाजपा-समर्थक पत्रकार ने उससे व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा कि क्या आपने कभी दस करोड़ रुपए नकद देखे हैं? जब कन्नड़ पत्रकार ने नहीं में जवाब दिया तो दिल्ली के उस पत्रकार ने और उत्साह से कहा कि अपना लैंस बदलिये, जो कुछ देखना हो उसे ‘कैश’ के लैंस से देखिये। ज़ाहिर है कि ‘कैश’ काम नहीं आया। विपक्ष की एकता इतनी मज़बूत थी कि कांग्रेस के वे दो विधायक भी अंतत: अपने विधायक दल में लौट आए जो एक होटल में छिपे बैठे थे। जब उन्हें यकीन हो गया कि अब भाजपा सरकार नहीं बचा पाएगी, तो उन्होंने सोचा होगा कि पराजय के लिए अभिशप्त पार्टी के लिए अपनी विधायकी की कुर्बानी क्यों दें। 
कांग्रेस ने कर्नाटक के चुनाव में एक और काम किया है जो भविष्य में उसके अनुकूल जा सकता है। उसने देवगौड़ा का विश्वास जीतने के लिए मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी से लेकर केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन तक का इस्तेमाल किया। लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि मायावती और ममता बनर्जी भी इस दिशा में अपनी तऱफ से सक्रिय थी कि कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) के बीच एक चुनाव-उपरांत समझदारी निकल आए। दूसरे, कांग्रेस को अभी इस सवाल का जवाब खोजना है कि जिन राज्यों में वह क्षेत्रीय शक्तियों के मुकाबले खड़ी है, उनमें वह लोकसभा चुनाव के दौरान तालमेल कैसे निकालेगी? उदाहरण के लिए, कांग्रेस को तय करना होगा कि क्या वह दिल्ली में आम आदमी पार्टी से लड़ती रहेगी या लोकसभा के लिए उसके साथ समझौता करेगी? अगर दिल्ली की सात सीटों के लिए तितऱफा टक्कर हुई तो भाजपा सात में से छह सीटें ले जाएगी। और कांग्रेस और ‘आप’ ने गठजोड़ कर लिया तो 6 सीटें जीतने की गारंटी है, सातों भी जीती जा सकती हैं। इसी तरह से बंगाल में ममता बनर्जी से कांग्रेस का गठजोड़ भाजपा के उभार की सभी संभावनाओं को खत्म कर देगा और कुछ सीटों को छोड़ कर बाकी पर उसकी दावेदारी पक्की हो जाएगी। अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सपा-बसपा के साथ जुड़ गई, तो भाजपा का पूरी तरह से सफाया हो जाएगा। लेकिन, यह सब कहना आसान है, करना कठिन है। गेंद पूरी तरह से अब कांगे्रस और राहुल गांधी के पाले में है। अगर वे अगले पांच साल की राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहते हैं तो उन्हें एक गठजोड़ात्मक पार्टी के रूप में उभरना होगा। अगर वे ऐसा कर पाए तो वे भाजपा के हिंदुत्ववादी स्वप्न को हाशिये पर समेट देंगे। विपक्ष को किस तरह से एक रहना चाहिए- इसका सबक वह कर्नाटक से सीख सकता है। शुरू से ही कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) के भीतर सांगठनिक स्तर पर गुटबाज़ी लगभग शून्य थी। पराजित मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, डी.के. शिवकुमार और दलित नेता परमेश्वरन कर्नाटक कांग्रेस में अलग-अलग गुटों के नेता हैं। लेकिन इस भाजपा विरोधी ‘ऑपरेशन’ में वे कंधे से कंधा मिला कर खड़े थे। यहां तक कि सिद्धरमैया ने देवगौड़ा परिवार के प्रति अपनी तीखी अरुचि का भी थोड़ी देर के लिए त्याग कर दिया था। (मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धारमैया ने सचिवालय से एच.डी. देवगौड़ा की तस्वीर तक उतरवा दी थी)। शिवकुमार भी एक वोक्कलिगा नेता हैं और वे भी देवगौड़ा परिवार के वोक्कलिगाओं पर असर के विरोध में काम करते रहे हैं। पर आखिर में उन्होंने भी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्रित्व से न केवल समझौता कर लिया, बल्कि विधायकों को एकजुट रखने में बेहतरीन भूमिका निभाई। दूसरी तऱफ जनता दल में देवगौड़ा के दोनों बेटों (कुमारस्वामी और रेवन्ना) के बीच जिस सत्ता संघर्ष का अंदेशा जताया जा रहा था, वह कहीं नहीं दिखा। जो भाजपा समर्थक टिप्पणीकार कह रहे थे कि रेवन्ना को उपमुख्यमंत्री पद का लालच दे कर पटा लिया गया है, उन्होंने आखिर में अपनी अ़फवाहबाज़ी बंद कर दी। सवाल यह है कि मायावती ने अपने प्रेस वक्तव्य में इस पूरे ‘ऑपरेशन’ को सफलतापूर्वक संचालित करने वाली कांग्रेस और उसके नेता का उल्लेख क्यों नहीं किया? इसका प्रमुख कारण अक्तूबर-नवम्बर में होने वाले विधानसभा चुनाव समझ में आते हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी भाजपा से सीधी टक्कर लेगी। समझा जाता है कि इन राज्यों में एक तरह से दो-पार्टी प्रणाली है। लेकिन ऐसा समझने वाले भूल जाते हैं कि इन राज्यों में भी छोटी-छोटी पार्टियों के समर्थन के इलाके हैं। मसलन, राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के प्रभाव-क्षेत्रों के साथ-साथ ज़मींदारा पार्टी भी सक्रिय है। कुछ किसानों के संगठन भी हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश में बसपा और समाजवादी पार्टी के अलावा गोंडवाना पार्टी भी है। मायावती द्वारा अपनी वार्ता से कांग्रेस का नाम गायब कर दिये जाने को एक बड़े सवाल के रूप में देखा जा सकता है कि क्या कांग्रेस अपने खाते से इन छोटी-छोटी पार्टियों को कुछ देगी? क्या कांग्रेस एक ऐसे साझा मंच के रूप में स्वयं को विकसित करेगी जिस पर प्रत्येक भाजपा विरोधी शक्ति, चाहे छोटी हो या बड़ी, खड़ी हो सके? ध्यान रहे कि वोटों की सक्षमता का सूचकांक दो का होता है। एक बड़ी पार्टियों का और एक छोटी पार्टियों का। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने हिंदू एकता बनाने के लिए छोटी पार्टियों (अपना दल, सुहैलदेव पार्टी, निषाद पार्टी वगैरह) को अपने साथ जोड़ा। भाजपा के बड़े वोट (द्विज जातियां और लोधी-काछी जैसे ़गैर-यादव पिछड़े समुदाय) के साथ जैसे ही इन नन्हें दलों के छोटे वोट जुड़े, भाजपा का वोट प्रतिशत चालीस के पार चला गया। नतीजा यह निकला कि पच्चीस से तीस प्रतिशत वोट पा कर चुनाव जीतने का सपना देखने वाली सपा और बसपा का सूपड़ा स़ाफ हो गया। राजनीति शास्त्री अनिल कुमार वर्मा ने उत्तर प्रदेश की छोटी पार्टियों की ‘वोटिंग ए़िफकेसी इंडेक्स’ बना कर दिखाया है कि यह गणित किस तरह से काम करता है। इन तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस का रवैया ही यह तय करेगा कि वह 2019 में प्रत्येक भाजपा विरोधी शक्ति का सहयोग ले पाएगी या नहीं।