कर्नाटक में कांग्रेस ने रणनीति से हार को जीत में बदला


कर्नाटक में रणनीति के हिसाब से कांग्रेस ने लड़ाई जीत ली जबकि विधान सभा के लिए हुए चुनावों में कर्नाटक की जनता ने उसे सीधे-सीधे नकार दिया है। फिर भी, इस प्रक्रिया में कांग्रेस ने चुनाव में उतरीं 222 में से 78 सीटें हासिल कर लीं। पार्टी आला कमान ने जल्दी से एक बैठक की और झट से 38 सीटें पाने वाले जनता दल (सेकुलर) को बाहर से समर्थन देने का फैसला किया।
अंतत: कांग्रेस ने अपनी हार का बदला ले लिया। साथ ही, उसने सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली भाजपा के खिलाफ  बाजी पलट दी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपनी झोली में 104 सीटें होने पर भी भाजपा सराकर नहीं बना पाएगी। लाभ के रूप में, पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले जद (एस) को वह तोहफ ा मिल गया जिसकी उसने उम्मीद नहीं की थी। लेकिन लोगों के फैसले के कारण भाजपा को मिली सफ लता से कोई इन्कार नहीं कर सकता। यह सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के कारण संभव हुआ जिन्होंने पार्टी के झगड़ रहे दो गुटों, एक बीएस येदियुरप्पा तथा दूसरा, श्रीरामुलु, को इकट्ठा कर लिया। आर.एस.एस. संतोष महसूस कर सकता है कि उम्मीदवार चुनने में उसकी चली।
यह पहली बार हुआ है कि भाजपा, जो हमेशा से उत्तर भारत से जुड़ी रही है, दक्षिण में पैर जमाने विंध्य पार कर गई है। इसका असर आंध्र प्रदेश में भी होगा जब भी वहां चुनाव होंगे। खासकर, केंद्र की ओर से राज्य को विशेष दर्जा देने से इन्कार करने पर मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू के भाजपा का मुकाबला करने के फैसले के बाद।
केरल परम्परागत रूप से कांग्रेस का गढ़ रहा है, जबकि तमिलनाडु अभी भी दो द्रविड़ पार्टियों, डीएमके तथा एआईएडीएमके की पकड़ में है। इन दो राज्यों में सेंध लगाना भाजपा के लिए कठिन बात होगी, लेकिन चुनावों को ध्यान में रख कर उसने तैयारी शुरू कर दी है। जहां तक, तेलंगाना का सवाल है, मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव अभी जड़ जमाए हुए हैं।
लेकिन कुल मिला कर माहौल सेकुलर पार्टियों के विचारों को मदद करने वाला नहीं है। बाकी की तुलना में, कांग्रेस ने इसे सबसे ज्यादा महसूस कर लिया है। यही कारण है कि पार्टी आलाकमान ने दो वरिष्ठ नेताओं, गुलाम नबी आज़ाद और अशोक गहलोत को एचडी कुमारस्वामी को पार्टी के समर्थन की पेशकश के लिए बेंगलुरू भेज दिया। इस प्रकिया में, कांग्रेस भाजपा को सत्ता से बाहर करने में सफ ल हो गई। इसमें एक ही संभावित बाधा सिद्धारमैया थे जिन्हें पार्टी ने कुमारस्वामी को नेतृत्व की पेशकश करने के पहले विश्वास में ले लिया। यह उसके विपरीत था जो गोवा, मणिपुर तथा मेघालय में हुआ जहां भाजपा अपनी जल्दबाज़ योजना के साथ सरकार बनाने के लिए तेजी से आगे बढ़ गई थी। शायद, भाजपा ने इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी।यह लिखते समय, गेंद राज्यपाल के पाले में था। सब कुछ इसी पर निर्भर है कि वह क्या फैसला करते हैं। परम्परा के मुताबिक, राज्यपाल को अकेली सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाना है और उन्हें अपना बहुमत सदन में साबित करने के लिए कहना है। लेकिन हाल के अुनभव सुखद नहीं हैं। कांग्रेस गोवा और मणिपुर, दोनों जगह पर अकेली सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, लेकिन उसे सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया गया। (नोट - राज्यपाल द्वारा अब कुमार स्वामी को सरकार बनाने के लिए निमंत्रण दिया जा चुका है)।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जद (एस.) और कांग्रेस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल है, लेकिन यह चुनाव के बाद का गठबंधन है जिसे कोई मान्यता नहीं है। आमतौर पर, राज्यपाल के लिए भरोसा तथा स्थायी सरकार का गठन पक्का करने के लिए राजनीतिक पार्टियों के बीच का चुनाव-पूर्व गठबंधन , उनके बीच हुए चुनाव-बाद के गठबंधन से ज्यादा सुरक्षित विकल्प होता है। निश्चित तौर पर, यह भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए है। फिर भी, विधायकों की संख्या को लेकर गठबंधन के दावे, जिसका आखिरी महत्व होगा, को खारिज नहीं किया जा सकता है।
एसआर बोम्मई मामले का फैसला साफ  कहता है कि पार्टियों की ताकत की जांच सदन में होनी चाहिए, राजभवन में नहीं। कांग्रेस इस परिस्थिति को टाल सकती थी अगर उसने चुनाव से पहले गठबंधन कर लिया होता। कांग्रेस या सिद्धारमैया, दोनों में से किसी के ध्यान में नहीं आया होगा कि पिछले तीन दशकों से कर्नाटक ने कभी भी सत्ता में रहने वाली पार्टी को नहीं जिताया है। निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सत्ता विरोधी लहर की पकड़ में आ गए। शुरू के चार सालों के उनके कुशासन की गिनती की जाने लगी। उनका दो क्षेत्रों में से एक से ही चुनाव जीतना जनता में उनकी लोकप्रियता के बारे में बहुत कुछ कहता है। नतीजतन, कांग्रेस ने एक और राज्य अपने हाथ से गंवा दिया। यह महज संयोग नहीं है कि राहुल गांधी जब से अध्यक्ष बने हैं, पार्टी के पांव उखड़ रहे हैं। कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि शीर्ष पर कोई नया चेहरा रखे। सवाल उठता है कि उनकी जगह कौन ले। सबसे अच्छा तो यही होगा कि सोनिया गांधी फिर से पद पर आ जाएं। अब उनके विरुद्ध इटालियन होने का पट्टा भी नहीं रह गया है।
दूसरा विकल्प प्रियंका वाडरा हैं, अगर खानदान में से ही किसी को चुनना है। दूसरे कई नेता उपलब्ध हैं, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार से पार्टी इतना जुड़ी है कि कोई और व्यक्ति योग्य नहीं ठहरता। दुख की बात यह है कि भारत के लोग खानदान से दूर हो गए हैं, लेकिन वह अपनी सोच से नहीं निकल पाया है।
निश्चित तौर पर, कर्नाटक चुनावों के भारतीय राजनीति पर असर होंगे। इसके बावजूद कि प्रधानमंत्री मोदी देश के सबसे लोकप्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में उभरे हैं, वह या यूं कहिए, भाजपा 2019 की संभावनाओं को लेकर पूरी तरह पक्का नहीं हो सकती है।