कर्नाटक में लोगों को स्पष्ट ़फतवा देने का अवसर नहीं मिला

कर्नाटक के चुनाव में कौन जीता?  जैसे जैसे टीवी के पर्दे पर चुनाव के रुझान और परिणाम आ रहे थे, वैसे वैसे पार्टियों के प्रवक्ता जनादेश के दावे पेश कर रहे थे। शुरू में भाजपा काफी आक्रामक थी। बाद में कुछ ठंड खा गई। उधर शुरू में पस्त नजर आ रहे कांग्रेस के प्रवक्ता भी शाम तक वोट प्रतिशत के आंकड़ों के बहाने कहीं सांत्वना पुरस्कार की तलाश कर रहे थे।  जनता दल सेकुलर ने जनादेश का दावा नहीं किया मगर शाम आते आते सीधे सरकार बनाने का दावा ठोक दिया।
टीवी स्टूडियो की इस चिल्लपों  में बैठा मैं सोच रहा था कि हम सब यह मानकर क्यों चलते हैं कि कर्नाटक की जनता ने कोई जनादेश जारी किया है। दरअसल जनता से ना तो कोई आदेश मांगा गया था, न ही उसने कोई आदेश दिया। उससे वोट मांगा गया था, जनता ने वोट दे दिया। इस वोट की गिनती के नतीजे में किसी जनादेश को ढूंढना बेमानी है। ऐसे में जनादेश के नाम पर सत्ता के दावे करना तो ठगी है। इस चुनाव में जो भी जीता हो, कर्नाटक की जनता हारी है।
कर्नाटक के चुनाव में जीत का पहला दावा भाजपा का है। पिछली बार 40 सीटों पर सिमट जाने वाली भाजपा इस बार अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे पहली पायदान तक पहुंच गई। भाजपा को राजनीतिक जीत हासिल हुई है। कुश्ती की भाषा में कहें तो यह जीत चित्त करने वाली जीत नहीं है। यह पॉइंट में बढ़ोतरी के आधार पर प्राप्त की गई तकनीकी जीत है।  न तो वह बहुमत के लिए जरूरी 112 के आंकड़े को छू पाई, और न ही वोट के लिहाज से भाजपा कांग्रेस को मात दे पाई। सीटों में भाजपा भले ही कांग्रेस से 26 सीट आगे निकल गई, लेकिन भाजपा को कांग्रेस से 6 लाख 40 हजार कम वोट मिले। इसे जनादेश नहीं कहा जा सकता है।
कभी कभी जनादेश प्राप्त करने वाली पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, जैसा कि दिल्ली में 2013 में आम आदमी पार्टी के साथ हुआ था। लेकिन वो तभी होता है जब एक पार्टी किसी एक मुद्दे पर उन सबका भी मन जीत लेती है जिन्होंने उसे वोट ना दिया हो। कर्नाटक में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
उधर कांग्रेस नि:संदेह हारी है। भले ही उसे सबसे अधिक वोट मिले हैं लेकिन जिस सत्ताधारी दल का मुख्यमंत्री और आधे मंत्री अपने चुनाव क्षेत्रों में हार जाएं, वह किसी भी तरह की नैतिक जीत का दावा नहीं कर सकता। यूं भी 122 के आंकड़े से सिमटकर 78 पर आ जाना किसी भी लिहाज से राजनीतिक हार ही कहलाएगा। जिस पार्टी ने पांच साल राज किया हो, उसे एक और मौका पाने के लिए स्पष्ट बहुमत चाहिए था जो कांग्रेस को नहीं मिला। इसलिए चाहे मज़बूरी में ही सही, कांग्रेस ने नई सरकार के नेतृत्व का दावा छोड़कर सही काम किया।
रही बात जनता दल (सेकुलर) की, उसे कुर्सी से मतलब है जनादेश से नहीं। पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में उसके वोट भी घटे और तीन सीट भी कम हुईं लेकिन बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन और भाजपा से गुप्त समझौते के चलते जनता दल ने आगामी विधान सभा में एक निर्णायक भूमिका हथिया ली है। इसे किसी भी लिहाज से जनादेश नहीं कहा जा सकता।
कर्नाटक की जनता ने इस चुनाव में जनादेश क्यों नहीं दिया? यह सवाल पूछने से पहले इस पर भी गौर करना चाहिए कि क्या किसी ने जनता को आदेश देने का मौका दिया? चुनाव जनता को एक मौका देता है उम्मीदवार चुनने का, सरकार चुनने का, और उसके साथ-साथ नीतियां चुनने का और अपना भविष्य चुनने का भी। जब चुनाव आज की दशा और भविष्य की दिशा तय करने का अवसर बनता है, तब हम जनादेश की बात कर सकते हैं।
इस बार कर्नाटक के चुनाव ने वहां की जनता को यह अवसर दिया ही नहीं। पिछले छह महीने से चुनावी सरगर्मियां चलती रही लेकिन जनता के जिंदगी से जुड़े किसी अहम मुद्दे पर कोई गंभीर चर्चा नहीं होने दी गई। पिछले पांच साल में कर्नाटक में बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या हुई है। इनमें से तीन साल प्रदेश को सूखे का सामना करना पड़ा, कुछ प्रकृति निर्मित तो काफी कुछ मानव निर्मित। प्रदेश के बड़े इलाकों में पानी का संकट है। किसानों को फसलों का उचित दाम नहीं मिल रहा। युवा बेरोजगार हैं। भ्रष्टाचार में राज्य ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। राज्य के शहरी क्षेत्रों में राजकाज की व्यवस्था पूरी तरह से अराजकता की शिकार है  लेकिन पिछले छह महीने में राज्य में इनमें से किसी भी मुद्दे पर सत्ता और विपक्ष के बीच गंभीर बहस नहीं हुई। कांग्रेस तो चाहती थी कि ये मुद्दे न उठें लेकिन साथ ही साथ विपक्ष की भी दिलचस्पी इन सवालों को उठाने में नहीं थी। अगर किसानों की आत्महत्या और सूखे का सवाल उठता तो भाजपा को भी जवाब देना पड़ता। शहरी इलाकों की अव्यवस्था में सभी पार्टियों की मिलीभुगत है। और भ्रष्टाचार के सवाल पर कर्नाटक में पहली उंगली तो भाजपा पर ही उठती है। अब भी कर्नाटक के लोग भाजपा के मुख्यमंत्री येदुरप्पा के कार्यकाल का भ्रष्टाचार और बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं की लूट नहीं भूले हैं। 
इसलिए चुनाव से पहले और चुनाव प्रचार के शीर्ष तक सभी बड़ी पार्टियों ने मिलकर प्रदेश की जनता का ध्यान प्रमुख मुद्दों से भटकाने का खेल खेला। भाजपा ने बदस्तूर हिंदू मुसलमान में घृणा और हिंसा फैलाने की कोशिश की।  मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इसके जवाब में लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की चाल खेली। सौभाग्यवश चुनाव परिणाम से स्पष्ट हुआ कि ये दोनों ही खेल नाकामयाब हुए। भाजपा के संकीर्ण राष्ट्रवादी प्रचार तंत्र के मुकाबले कांग्रेस ने कन्नड़ अस्मिता, कर्नाटक के अपने झंडे और नाम पट्टिकाओं से हिंदी को मिटाने जैसे मुद्दे खड़े किए। चुनाव प्रचार का अंतिम दौर आते-आते चुनाव को मुद्दों से भटकाने की कमान स्वयं प्रधानमंत्री ने संभाली। उन्होंने हैदर अली बनाम आदिवासी राजा, नेहरू बनाम जनरल थिमैया या भगत सिंह जैसे मुद्दों को उछाला। प्रदेश और पूरे देश ने प्रधानमंत्री को सरेआम झूठ बोलते सुना। अब चुनाव बीत गया है। जनता के पास चुनने के लिए उम्मीदवार तो थे, लेकिन उम्मीद का कोई आधार नहीं था। ऐसे में जनता क्या आदेश देती? वोट दे सकती थी, वो उसने दिया।
ऐसे में जाहिर है कि यह चुनाव किसी बड़े मुद्दे का चुनाव नहीं था, किसी उम्मीद का चुनाव नहीं था। यह चुनाव राजनीतिक तिकड़म और रणनीति का खेल बनकर रह गया। चुनाव परिणाम आने के बाद भी वही तिकड़म का खेल जारी है। गोवा में पटखनी खाई कांग्रेस किसी भी कीमत पर भाजपा की सरकार बनने से रोकने की जुगत में जुटी रही। उधर गोवा मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी के सिद्धांत को तिलांजलि दे चुकी भाजपा ने उसी सिद्धांत के आधार पर कर्नाटक में सत्ता हथियाने में तत्पर दिखाई दी।
एक बार तो कर्नाटक की जनता पर थोंप दिया गया, परन्तु अंतत: सर्वोच्च न्यायालय के दखल से एकाएक बाज़ी पलट गई, और अब प्रदेश में कांग्रेस-जद (एस) की सरकार ने शपथ ले ली है।