देशी बनाम विदेशी कोच- - भारतीय हॉकी के लिए बेहतर कौन ?


जिन स्वदेशी कोचों के प्रशिक्षण अधीन भारत ने भिन्न-भिन्न ओलम्पिक खेलों और विश्व कप हॉकी मुकाबलों में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक जीते, वे हैं पंकज गुप्ता, प्रो. जगन्नाथ, हरबेल सिंह, कृष्ण लाल, बाल कृष्ण सिंह, धर्म सिंह सीनियर, के.डी. सिंह बाबू, बलबीर सिंह सीनियर और गुरचरण सिंह बोधी। उपरोक्त दर्शाई भारतीय कोचिंग शख्सियतों के विपरीत जिन विदेशी कोचों से प्रशिक्षण लेकर भारत न तो ओलम्पिक्स में और न ही विश्व कप हॉकी के मुकाबलों में कोई पदक जीत सका, वह है गैरहार्ड रॉक, रिक चार्ल्सवर्थ (मुख्य हॉकी सलाहकार), जोस बरासा, माइकल नौबज़, टैरी वाल्श, पाल वान आस और रोइलैट ओल्टमन्ज़।
हॉकी खेल की इस बुनियादी और अति ज़रूरी प्रक्रिया को सभी ही जानते हैं कि स्वदेशी हॉकी कोच भिन्न-भिन्न उम्र ग्रुप के होनहार बच्चों को निचले स्तर पर ही आवश्यकतानुसार कोचिंग और शारीरिक ट्रेनिंग देते हैं और उनको कुशल तेजस्वी और भरोसेयोग्य खिलाड़ी बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। यह प्रशिक्षण का सिलसिला लगभग 21 वर्ष की उम्र तक चलता रहता है। स्वदेशी कोच अपने खिलाड़ियों को अपने ही बच्चों की तरह प्यार करते हैं और उनकी दिन-प्रतिदिन की आदतें, ज़रूरतें खेलने के ढंग-तरीके, खेल के प्रति रुचि, लगन, चाल-चलन, खेल के प्रति वफादारी और समर्पण की भावना को भी जानते हैं। दूसरे शब्दों में स्वदेशी कोच इन खिलाड़ियों को अच्छी तरह जानते हैं और इनकी नब्ज़ को भी अच्छी तरह से पहचानते हैं।
अब सवाल उठता है कि अगर इतनी मेहनत करने के बाद इन तराशे हुए खिलाड़ियों को भारतीय टीम में शामिल करके अगली कोचिंग के लिए एक अन्जान विदेशी कोच के हवाले कर दिया जाता है तो यह कोई सार्थकता वाली बात नहीं लगती। विदेशी कोचों को इन खिलाड़ियों की बुनियादी आदतों, आंतरिक सम्भावनाओं, सामाजिक मनोभावों, नैतिक-मूल्यों और स्थानीय व राष्ट्रीय संस्कारों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती और न ही उनको इन अति अहम बातों के लिए कोई दिलचस्पी होती है। विदेशी कोचों की भाषा को समझना और उनके निर्देशों पर पूरा न उतरना भारतीय खिलाड़ियों के लिए आसान नहीं होता, क्योंकि ज्यादातर खिलाड़ी गांवों, छोटे कस्बों और गरीब घरों से होते हैं। अंग्रेज़ी भाषा कम जानते हैं। वह स्वदेशी अर्थात् भारतीय कोच की भारतीय भाषा में दिया गया प्रशिक्षण और शिक्षा से भरपूर लाभ ले सकते हैं।
विदेशी कोच और खिलाड़ियों के आपसी दृष्टिकोण, नज़रिए, खेल चालें, खेल तकनीकें और खेल शैली में विभिन्नता, अलगाव और रुचिहीनता होने के कारण टीम में एकता, एकसुरता और आपसी तालमेल बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। हॉकी का खेल वास्तव में ‘एक टीम गेम है’इसके लिए विभिन्न राज्यों, क्षेत्रों और श्रेणियों से आए खिलाड़ियों को एक सूत्र में बांध कर रखना विदेशी कोच के लिए एक चुनौती की तरह होता है। बहुत-से कोच तो इस चुनौती का मुकाबला करने में असफल हो जाते हैं, जिससे संबंधित देश और खिलाड़ियों को न पूरा किया जाने वाला घाटा और नुक्सान सहना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर 2012 के लंदन और 2016 की रियो ओलम्पिक खेलों में भारतीय टीम विदेशी कोचों के अधीन न तो एक मजबूत और ठोस यूनिट के तौर पर सामने आई, न ही कोई बेहतरीन खेल दिखाया गया, न योजना बनाई, न ही संघर्ष किया और न ही पैनल्टी कार्नरों को गोल में तबदील कर सकी। कोचों ने खिलाड़ियों को उस तरीके से नहीं खेलाया और इस्तेमाल किया, जिस ढंग से उनको दिल्ली, पुणे और बंगलौर में प्रशिक्षण दिया गया था। लंदन खेलों में तो यह पहली बार हुआ कि भारतीय टीम अपने पूल का कोई भी मैच नहीं जीत सकी, जिस कारण भारत को बड़ी नामोशी झेलनी पड़ी। (शेष अगले अंक में)