जल संकट! प्यासी धरती प्यासे लोग

भूगौलिक दृष्टि से हमारा देश संसार में सातवां सबसे बड़ा देश है। हमारे देश में जहां 4000 नगर व उपनगर हैं और गांव 597464 हैं, तभी तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में बसता है और गांव की दशा है कि वहां 6304 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं है। भू-गर्भ-शास्त्री केलर के अनुसार हमारी पृथ्वी पर विद्यमान सम्पूर्ण जलराशि 1,386 मिलियन किलोमीटर है। 
मज़े की बात यह है कि धरती का 3/4 हिस्सा केवल जल है और ज़मीन मात्र 1/4 हिस्सा है। फिर भी प्राणी मात्र प्यासा है। सूखे की स्थिति भी मानव को परेशान करती रहती है। वर्षा ऋतु से जो पानी बरसता है वह नदी नालों से होता हुआ सागर में जा गिरता है। हिटलर ने एक बार कहा था कि विश्व का तीसरा महायुद्ध तेल के लिए होगा और चौथा पानी के लिए। तीसरा महायुद्ध तो हो चुका है। इराक, ईरान, लीबिया, सीरिया, फिलस्तीन जहां-जहां की धरती ने तेल उगला वहीं-वहीं गोलियां चलीं, बम फूटे और खून बहा और मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी। अब चौथे विश्व युद्ध की तैयारी होती दिखाई देती है। गत दिनों एक रिपोर्ट ने चिंता और चिंतन के द्वार खोल दिये उसके अनुसार सन् 2025 तक धरती से 15 प्रतिशत पेयजल गायब हो जायेगा। कुछ समय पूर्व भारत के प्रधानमंत्री ने जब इज़राइल का दौरा किया तब वहां के प्रधानमंत्री बैंजमिन नितेनयाहू ने समुद्र के खारे पानी को पीने के लायक बनाने वाली मशीन दिखाई। श्री नरेन्द्र मोदी ने उस पानी को पीकर देखा और प्रशंसा की। हमारे कहना का भाव यह है कि अब शासकों के पास एक ही रास्ता बचा अनुभव होता है कि वह ऐसी मशीनों को लाएं, जिससे सागर का खारा पानी मीठा बनाकर लोगों की प्यास बुझाई जा सके। एक दार्शनिक ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा था कि एक नदी जब सागर की ओर जाती है तो सागर पूछता है कि तू मेरे पास क्यों आती है कि जब तक तुझे मीठा न कर लूं मैं आती रहूंगी। युगों से सागर मंथन होता रहा। सब कुछ निकला परन्तु मीठी जल न निकला। भारत के गांवों की हालत अब किसी से छुपी नहीं नदियों, जौहड़ों, तालाबों और कुओं का पानी प्रदूषित हो चुका है। हैंडपम्प भी शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं करा रहे। नगरों की हालत भी सोचनीय है। भारत के कई ऐसे नगर हैं, जिन्हें वर्षा द्वारा झीलों में भरे पानी को पीने लायक बनाकर पीना पड़ता है। मुंबई का नाम ऐसे नगरों में अग्रणीय है। बुंदेलखंड और राजस्थान के बहुत से नगर टैंकरों द्वारा रेलगाड़ी अथवा अन्य व्हीकलों से पहुंचे जल को प्राप्त करने पर विवश हैं। ऐसे दृश्य प्रतिवर्ष देखने पड़ते हैं। इधर गर्मी शुरू हुई, उधर पानी के लिए हाहाकार मच जाती है। पानी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। कई जगह नलकूपों में 1200 फुट की गहराई में भी पानी उपलब्ध नहीं है। आज हमारे राज्यों में नदियों के पानी के लिए मारामारी दिखाई देती है। कहीं कावेरी का जल विवाद तो कहीं सतलुज यमुना लिंक के लिए खींचतान। विस्तार और तीव्रता के लिहाज़ से भारत को जल के रूप में सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ता है। चेन्नई, बंगलूरू, दिल्ली में जबरदस्त पानी की किल्लत अभी से दिखाई देने लगी है और जो पानी इस समय उपलब्ध भी है, वह पीने लायक नहीं। गिल्लड़, कैंसर और इस प्रकार की अन्य असाध्य बीमारियां दूषित पानी के कारण ही मानव को घेरे हैं। कई बार जांच कमेटयां बैठीं, कई बार सर्वेक्षण हुए, कई बार लैबोटरी टैस्ट भी हो चुके परन्तु इस समस्या का समाधान नहीं हुआ। राजस्थान और बुंदेलखंड के दाम्पत्य जीवन में पानी की हालत यह है कि पौ फटते ही घर की महिलाएं सिर पर मटके रख कर कई-कई किलोमीटर दूर से पानी लाने के लिए मजबूर हैं। इसलिए घरेलू ज़िम्मेदारियां न निभा सकने पर कई तरह की अन्य समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जल संकट की समस्या पर गहन चिंतन करके भारत की सारी नदियों को जोड़ने का इरादा किया। सन् 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार इस योजना को आगे न बढ़ा सकी, क्योंकि डा. मनमोहन सिंह की सरकार सत्तासीन हो गई और यह योजना ठण्डे बस्ते में डाल दी गई। जब नरेन्द्र मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वह साबरमती नदी का जल बड़े-बड़े पाइपों को जोड़ कर गांधी नगर तक ले आए। यह अपने आप में एक अजूबा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मरदमशुमारी सन् 1951 में शुरू हुई थी तब देश की जनसंख्या 40 करोड़ थी। तब पानी ठीक-ठाक उपलब्ध भी था। धरती और जल से स्रोत तो उतने ही रहे परन्तु प्यासे लोगों की आबादी बहुत बढ़ गई। आज 130 करोड़ से अधिक आबादी हो चुकी है, परन्तु हम जल आपूर्ति के साधन कुछ अधिक न बढ़ा सके। नलकूप तो पूरे देश में लगे, इससे लाभ से अधिक हानि हुई। हरित क्रान्ति से भी एक हानि यह हुई कि जिन स्थानों पर धान की खेती नहीं चाहिए थी वहां भी धान की खेती होने लगी, जिससे पानी का उपयोग बहुत अधिक होने लगा और धरती के नीचे से पानी का दोहन ही जल संकट को बढ़ाता गया। सन् 2005 में छपी एक रिपोर्ट जिसमें केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने कहा था कि देश के 593 ज़िलों में से 206 ज़िलों में भूमिगत जल स्तर अत्यधिक दोहन एवं वर्षा जल द्वारा प्राकृतिक एवं कृत्रिम पुनर्भरण चक्र के अभाव में रसातल में जा चुका है। राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा के अधिकतर इलाकों में भूमिगत जलस्तर 20 सेमी. प्रति वर्ष की दर से गिरता हुआ जल संकट को बढ़ाता जा रहा है। एक अन्य अनुमान के अनुसार कृषि में प्रयोग किए जाने वाले रासायनिक खादों का 50 प्रतिशत अंश फसलों के पोषण, 25 प्रतिशत मिट्टी में मिलकर नाइट्रोजन गैस एवं शेष 25 प्रतिशत मिट्टी में रिस रिस कर भूमिगत जल को प्रदूषित कर रहा है। इसमें सुधार कब होगा? देश की राजनीतिक पार्टियां जब भी चुनाव लड़ती हैं, तीन मुद्दे उनके चुनावी घोषणा-पत्रों में ज़रूर होते हैं। पानी, बिजली, सड़क अथवा जल, जंगल, जानवर और ज़मीन की हालत सुधारने के वायदे। क्या यह सब हो सका। देश में नदियां सूखती जा रही हैं। डैम बने हैं, गंगा जैसी सभी बड़ी नदियों को छोड़िये हर छोटी नदी में भी कूड़ा-कर्कट फैंका जा रहा है। भौतिकवाद ने उन्नति की आड़ लेकर सभी नदियों को प्रदूषित कर दिया है। यह कहना उचित नहीं होगा कि मानव अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा है, बल्कि कुल्हाड़ी पर पांव मार रहा है। आने वाली पीढ़ियों के लिए असाध्य रोग छोड़कर जा रहा है। कई वर्षों से करोड़ों रुपए जल को स्वच्छ बनाने के लिए खर्चे जा रहे हैं, परन्तु रहे ढाक के वही तीन पात।  गंगा, यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी के घाटों का सौंदर्यकरण तो हुआ परन्तु मानव की सोच मलीन ही रही। आज सरकार, समाज और साधु वर्ग भाषण से अधिक जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए कुछ प्रयास करे तो मानवता के लिए बहुत बड़ा उपकार होगा और क्या कहें?