संयम व सब्र का महीना रमजान

हिजरी कैलेंडर के नवें महीने का नाम रमजान होता है जिसमें बालिग मुस्लिम मर्द व औरते रोजा यानी व्रत रखते हैं जिसे कुरआन में सोम कहा गया है। सोम का बुनियादी अर्थ है अल्लाह द्वारा निर्धारित नियमों के भीतर रहना या उनके अनुसार जीवन व्यतीत करना। सोम रखने वाले व्यक्ति को साइम कहते हैं यानी अपने आपको गलत रास्तों से रोकने वाला, अपने आप पर नियंत्रण रखने वाला। भूख इन्सान की बुनियादी आवश्यकता है। जब वह इस पर नियंत्रण करना सीख लेता है तो अपनी इन्द्रियों पर भी काबू करना सीख जाता है। इसीलिए रमजान के माह में रोजा रखने वाला व्यक्ति सुबह की पहली किरण से लेकर सूरज की अंतिम किरण तक खाने, पीने, धूम्रपान, सैक्स आदि से अपने आपको दूर रखता है।  रोजा रखने के लिए उसकी नीयत या इरादा करना लाज़िमी है। अगर ऐसा नहीं किया जायेगा तो यह रोजा नहीं होगा बल्कि फ ाका यानी भूखा रहना होगा। नीयत अगर सहर में की जाये तो बेहतर है, खासकर कुछ खाने पीने के साथ जिसे सहरी कहते हैं और जो सूरज की पहली किरण के निकलने से पहले खाई जाती है। शाम को जब सूरज की अंतिम किरण हो और जब सफेद व काले धागों के रंगों में अंतर करना कठिन हो जाये तो रोजा खोलना होता है जिसे इफ्तार कहते हैं। रोजा खोलने के लिए किसी खास चीज की जरूरत नहीं है। हलाल कमाई की हर हलाल चीज से रोजा खोला जा सकता है। वैसे बेहतर यह है कि ताजा खजूर से और ताजा न मिले तो खुश्क खजूर से इफ्तार किया जाये। बीमारी, सफर या किसी अन्य कारण से माह रमजान में रोजे रखना सम्भव न हो सके तो बाद में रोजे रखकर गिनती पूरी की जा सकती है लेकिन अगर बीमारी ऐसी है जैसे मधुमेह आदि, और इस कारण बाद में भी गिनती पूरी न की जा सके तो एक रोजे के बदले में एक गरीब व्यक्ति को भरपेट रोटी खिलाना जरूरी है। अगर जान-बूझकर कोई व्यक्ति बिना किसी ठोस कारण के रोजा तोड़ देता है तो उसे रोजे की दोनों कफा व कफ्फारा अदा करना होगा। एक रोजे के बदले रोजा रखना कफ कहलाता है और इसके आलावा जो जुर्माना अदा करना पड़ता है, उसे कफ्फारा कहते हैं। इस कफ्फारे की शक्ल यह है कि व्यक्ति एक गुलाम आजाद कराए। जाहिर है, आजकल गुलामी का दौर तो है नहीं, इसलिए दूसरा विकल्प यह है कि दो माह के लगातार रोजे रखे। अगर यह उसकी ताकत से बाहर हो तो गरीबों को खाना खिलाये। 
माह रमजान का महत्व इस बात से भी है कि इस महीने में कुरआन अवतरित होना शुरू हुआ था। चूंकि कुरआन एक मुस्लिम के लिए जीवन व्यतीत करने का तरीका बताता है, इसलिए इस माह में कुरआन को कम से कम एक बार दोहराना या पढ़ना लाज़िमी होता है। सामूहिक तौर पर ईशा की नमाज़ के बाद कुरआन को सुनना व समझना तरावीह कहलाता है। तरावीह में कम से कम 8 रकत नमाज़ की तरह अदा की जाती है। कुरआन का अध्ययन पूरा हो जाने पर कुछ मीठा खुशी में वितरित किया जाता है। 
माह रमजान में हर मुस्लिम को एक विशेष प्रकार का दान देना होता है जिसे सदका-ए-फितर कहते हैं, जो हर शख्स पर फर्ज है, चाहे वह कमाता हो या न कमाता हो। जो लोग कमाते नहीं, उनका सदका-ए-फितर उसे अदा करना होगा जिस पर उसके पालने की जिम्मेदारी है। सदकाए-फितर ईद की नमाज़ से पहले अदा करना जरूरी है और यह उस गल्ले से देना बेहतर है जो स्थानीय लोगों की खुराक हो जैसे गेहूं, चावल आदि। रमजान के अंत में ईद मनायी जाती है, जो वास्तव में कुरआन अवतरित होने की साल-गिरह मनाने का पवित्र जश्न है। इस दिन शुक्रिया के तौर पर एक विशेष नमाज़ अदा की जाती है जो अक्सर शहर के बाहर बनी ईदगाह में होती है। नमाज़ के बाद लोग एक दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देते हैं। खुशी में अपने रिश्तेदारों व दोस्तों को ईदी दी जाती है और एक दूसरे के घर पर जाकर  सेवइयां दूध व मेवे से बनी खीर खाई जाती है।

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-समीर चौधरी