जनहित याचिकाएं मुकद्दमें घटा रही हैं या बढ़ा रही हैं ?

कुछ महीने पहले बंबई उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि पीआईएल के 80 फीसद मामलों में निहित स्वार्थ या ब्लैकमेलिंग होती है। 2010 में आयी भंडारी गाइडलाइंस में स्वार्थपूर्ण मामलों के प्राइवेट या पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन पर सख्त जुर्माने के नियम बनाए गए थे। इसके बावजूद भी पब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर पीआईएल के गोरखधंधे पर अदालतों की रोजमर्रा की नोटिस क्या न्यायिक त्रासदी नहीं है? गौरतलब है कि कुछ महीने पहले उच्चतम न्यायालय ने भी जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग पर तल्ख टिप्पणी करते हुए एक याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। तमाम न्यायाधीश पहले भी इस संबंध में अनेक बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन पीआईएल के दुरुपयोग का मामला नहीं रुक रहा है। संविधान के अनुसार संसद को कानून बनाने, सरकार को रोजमर्रा के काम करने और अदालतों को न्याय देने का काम दिया गया है। सरकार और संसद की विफ लताओं की चर्चा तो हम हर गली कूचे में करते हैं, लेकिन अदालतों में जो करोड़ों की तादाद में मुकद्दमें लंबित हैं, उन पर हम कभी विस्तार से बहस नहीं करते। अदालतों के सुस्त रवैय्ये के कारण करोड़ों परिवार त्रस्त हैं। इन लंबित मुकद्दमों का कारण कम तादाद में न्यायाधीशों का होना भी है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनाए गए न्यायिक आयोग को रद्द कर दिया। साथ ही कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार और भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई न्यायिक पहल नहीं की। इस तरह जनता को जल्द न्याय के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि अदालतें अपना घर दुरुस्त करें। लेकिन वे तो ‘वाचडॉग’ बनने को बेकरार नजर आती हैं, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। एक नहीं कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पीआईएल की भरमार आयी हुई है। मसलन पर्यावरण और प्रदूषण का ही उदाहरण लें। यदि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए अदालती सख्ती के चलते निवेशक देश में निवेश करने से ही कतराने लगें तो फि र ईज ऑफ  डूइंग बिजनेस और मूडी द्वारा ग्रेडिंग सुधार का अर्थव्यवस्था को कैसे लाभ मिलेगा? इसी तरह से गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अपराध जैसे देशव्यापी मर्ज पीआईएल के जादुई मंत्र से कैसे दूर हो सकते हैं? यदि पीआईएल ही प्रत्येक मर्ज की दवा है तो फि र अदालतें यह सपाट आदेश पारित कर दें कि अब सभी निर्णय पीआइएल द्वारा लिये जाएंगे।  ऐसा नहीं है कि पीआईएल का देश को या लोकतंत्र को कोई फायदा नहीं हुआ। 1979 में पीआईएल की बदौलत ही स्वर्गीय कपिला हिंगोरानी ने भारतीय जेलों में बंद चालीस हजार कैदियों को मुक्त कराया था। आज भी देश में चार लाख से ज्यादा लोग जेलों में बंद हैं, जिनमें से अधिकांश गरीब, अनपढ़ और वंचित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले हैं और वह सिर्फ  इसलिए जेल के सींखचों के पीछे हैं क्योंकि उनके पास न तो पैसा है और न कोई पैरवी करने वाला। लेकिन देश की अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकद्दमे लंबित पड़े हैं। जिसके दायरे में करीब 10 करोड़ लोग आते हैं। पीआईएल इस बोझ को और बढ़ा देता है, क्योंकि इनके  कारण पुराने मुकद्दमों पर सुनवाई ही नहीं हो पाती। संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में याचिका (रिट पटीशन) के व्यक्तिगत अधिकार को जनहित याचिका में तबदील करने का श्रेय पूर्व न्यायाधीश पी.एन. भगवती को है। जिन्होंने पीआईएल के माध्यम से अनेक महत्वपूर्ण मामले उठाए। मगर बाद में धीरे-धीरे पीआईएल राजनीतिक प्रचार और निहित स्वार्थी तत्वों के दुरुपयोग का हथियार बन गया। इसी दुरुपयोग को रोकने के लिए अंतत: उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2010 में विस्तृत आदेश पारित किए जिन्हें भंडारी गाइडलाइंस कहा जाता है। लेकिन आठ साल बाद भी तमाम उच्च न्यायालयों ने भंडारी गाइड लाइंस के अनुसार अभी तक पीआईएल संबंधी नियम ही नहीं बनाए हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि कहीं पीआईएल इस व्यवस्था को और कमजोर करने का एक तरीका मात्र तो नहीं है? हालांकि पहले भी कहा गया है कि पीआईएल ने कुछ  क्रांतिकारी फैसले कराये हैं। लेकिन अगर उन क्रांतिकारी फैसलों की पूंछ पकड़कर आम मुकद्दमों का ढेर बनता रहा तो प्रबुद्ध समाज को सोचना होगा कि ये अच्छी बात होगी 
या खराब।