मोदी राज के बीते चार वर्षों का आर्थिक मूल्यांकन

मोदी राज के चार साल बीत गये। वायदों से भरे हुए चार साल! आर्थिक घोषणाओं से परे हुए चार साल। शासन शुरू हुआ तो कई वायदे थे। सबसे पहले हर हाथ को काम। इसके लिए वचन था कि हर वर्ष कम से कम दो करोड़ नौजवानों को सरकार रोज़गार देगी। चार वर्ष बीत गये। बेकारी उसी तरह विकराल रूप धारण किए है। प्रत्यक्ष रोज़गार तो मात्र 4.1 लाख लोगों को मिल पाया। लेकिन सरकार कहती है कि हमने मुद्रा योजना को शुरू करके कम से कम चार करोड़ लोगों को रोज़गार दे दिया है। लेकिन जब हम इस योजना का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि इससे चार करोड़ लोगों में औसत तेईस हज़ार ने तिरतालिस हज़ार का मुद्रा ऋण मिला है। भला इस तुच्छ राशि को क्या स्व-रोज़गार मिल सकता है। जब इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई गई तो उत्तर मिला पकौड़े तल लो या पान की दुकान खोल लो। भला इससे अधिक हास्यस्पद समाधान और क्या हो सकता है। आप योग्य और शिक्षित नौजवानों को उनकी योग्यता से कहीं कम पकौड़े तलने का व्यवसाय सुझा रहे हैं। यह देश की प्रशिक्षित युवा शक्ति का अपमान ही तो है। वे क्षमता से कम काम करेंगे, तो देश का सफल घरेलू उत्पादन कैसे शीर्ष पर पहुंच सकेगा? जबकि देश के अच्छे दिन तभी आ सकते हैं, जब देश की श्रम शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग हो और हमारी श्रम उत्पादकता का स्तर उच्चतम स्तर पर हो। लेकिन इस संदर्भ में मोदी शासन में तकनीकी शोध एवं आविष्कार के अभाव में न तो हमारी श्रम उत्पादकता दर और न ही हमारी पूंजी उत्पादकता दर बढ़ सकी। इसके अभाव में दूसरी हरित क्रांति शुरू ही न हो पाई और औद्योगिक क्षेत्र में कोई क्रांति  सपना देखना गुनाह हो गया। क्योंकि इन चार वर्षों में इसके लिए कि मूलभूत आर्थिक ढांचे का निर्माण न हो सका। अपने पधमन विदेश दौरों में  मोदी केवल विदेशी निवेश को ही भारत आमंत्रित करते रहे। यह निवेश आया भी तो पूंजी निर्माण अर्थात् मूलभूत आर्थिक ढांचे का निर्माण मल क्यों करता? इनका तो यही लक्ष्य रहा, ‘माल उठाओ और चम्पता’ इसी कारण देश में स्वत: स्फूर्त विकास का कोई माहौल पैदा न हो सका। चार बरस में देश इन दोनों क्षेत्रों में फिसड्डी नज़र आने लगा है। दूसरी तरफ जहां तक महंगाई सूचकांक का सम्बंध है। कीमतों पर छदम नियंत्रण दिखाने के लिए सरकार अपने मूल्य सूचकांकों का आधार वर्ष बदलती रही। शुरू में कीमत स्तर को चार-पांच प्रतिशत तक स्थिर करके सरकार इस लक्ष्य प्राप्ति का दमगजा बजाती रही, लेकिन कब तक? अभी पिछले कुछ महीनों से पैट्रोलियम डीज़ल की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के उत्पाद की कमी के कारण हुई है। सरकार ने इन कीमतों के गिरने के काल में अपना राजस्व प्राप्त करने के लिए बार-बार टैक्स वृद्धि की थी। 9 चार टैक्स वृद्धि की और केवल एक बार टैक्स घटाया। लेकिन अब जब पैट्रोल और डीज़ल की इस उछाल को नियंत्रित करने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा अपनी एक्सरसाइज ड्यूटी और वैट कम करने का समय आया तो क्योंकि दोनों सरकारों अपना वित्तीय घाटा बढ़ाने के लिए तत्परता नहीं थी। टैक्स उसी जगह रहे। सरकार उन्हें घटाने के सीधे रास्ते के स्थान पर उनमें जी.सी. कीमतों में वृद्धि अथवा सत्तर रुपए लीटर से अधिक कीमत जाने पर सरकारें विंडफाल लाभ का कानून बनाने लगी, लेकिन कर चोरों के इस देश में मुख्य कर घटाने के स्थान पर वह छिट-पुट कर या कीमत घटा अपना सुरसा की भांत की तरह का कम्पनियों का घाटा पूरा करने की कोशिश करेगी। जो सफल होगा नहीं। यूं सरकार की यह वैकल्पिक फार्मूले वाली नीति फिस्स होती नज़र आएगी, और जनता उसी प्रकार महंगाई का बोझ सहती रहेगी। इन चार वर्षों में मोदी सरकार की बड़ी असफलता नोटबंदी के सर्जिकल प्रहार की असफलता और पूरे देश में जी एस.टी. लागू करके मंडी विस्तार से सकल घरेलू उत्पादन या आय बढ़ाने में असफलता रही है। नोटबंदी ने भ्रष्टाचार और काले धन को क्या समाप्त करना था, उसे बैंक खातों में जमा करवाने का रास्ता खोल कर और भी बढ़ावा दे दिया। जी.एस.टी. कर भी अपनी जटिलता के कारण सर्व-स्वीकार्य नहीं हो सका। अभी तो उसके कारण कर चोरी का बढ़ना, निवेश घटना और आर्थिक विकास दर में कमी के परिणाम ही सामने आ रहे हैं, जिसने आम आदमी को दिये गये अच्छे दिनों के सपनों को उससे और भी दूर कर दिया है। रही-सही कसर देश के उस आर्थिक विकास की दर ने निकाल दी है, जिसे विशेषज्ञ नौकरी रहित आर्थिक विकास कहते हैं। भला ऐसी आधी-अधूरी उपलब्धियां मोदी शासन के इन चार वर्षों को आशातीत रूप से सफल कैसे बता सकते हैं? जनता अगर इस मोहभंग के बावजूद अगर अगले वर्ष फिर मोदी सरकार के हक में फैसला दे देती है, तो इसलिए उसके पास कोई विकल्प नहीं। महागठबंधन के रूप में अगर विपक्ष आगे आता है तो उचित नेतृत्व के अभाव में वह भोथरा लगेगा।